Tue. Apr 29th, 2025

तड़पता गणतंत्र “बुरे बंश कबीर के उपजे पूत कमाल” : अजय कुमार झा

अजय कुमार झा, जलेश्वर |  गणतंत्र:- “गण” मूलतः वैदिक शब्द है। इसका अर्थ समूह होता है, जैसे देवगण, मनुष्यगण और राक्षसगण। ऐसेही अंग्रेजी में गन का अर्थ घातक हथियार ‘बन्दुक’ होता है। जो शत्रुओं से बचाव और युद्ध में लड़ने के लिए प्रयोग हेतु निर्माण किया गया है। अब सोचने बाली बात यह है कि, हमारे ऊपर कौन सा ‘गण’ शासन कर रहा है! दस वर्ष के राजनीतिक घटना क्रम:- भ्रष्टाचार, हिंशा, न्यायहिनता, लुट-खसोट और सत्य से ध्यान भटकाने हेतु उग्र राष्ट्रवाद का नारा के भठ्ठी में युवाओं झोककर एक पीडादायक अवस्था का सृजना किया गया है, उससे यही प्रमाणित होता है कि अभी राक्षसगण अपनी बन्दुक के बलपर नेपाली जनता के अस्मिता को लुट रहा है।
आर्थिक और भौतिक रूपसे हमें दरिद्र बनाने बाले उग्र राष्ट्रीयता के नाम पर मनोवैज्ञानिक रूपसे भी हमें खोखला बनाते जारहे हैं। और हम उन्हें अपना भाग्य विधाता माने बैठे हैं।
भारत के बैचारिक सहयोग और भौतिक समरक्षण में पोषित माओवादी जनयुद्ध नेपाल सरकार, संसदिय दलों तथा माओबादी विद्रोहियो के बीच का सत्ता संघर्ष था। सशस्त्र रूप मे किया गया यह युद्ध सन १९९६ से २००६ तक निरंतर चलता रहा। नेकपा माओवादी के द्वारा १ फागुन २०५२ वि सं (१३ फरवरी १९९६) से आरम्भ यह संघर्ष नेपाल के राजतन्त्र की खात्मा और संघीय गणतंत्र की स्थापना हेतु लक्षित था । जो २१ नभेम्बर २००६ के दिन तत्कालीन सरकार और माओबादी विद्रोहीयो के बीच हुए बृहत शान्ति सम्झौता में पूर्ण हुआ। लेकिन, क्या माओवादीओं ने जिस युद्ध को जनता के भाव से संवोधित कर जन समर्थन पाया था, भारत के द्वारा सुरक्षित राजनैतिक अवतरण संभव हुआ था, अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबन्ध निष्क्रिय हुआ था। उस जन भावना को आज दस वर्ष बीत जाने के वाद भी संवोधित करने के प्रयास  किया गया है ? क्या सत्ता और शक्ति का सामूहिक सुख नेपाली जनता को मिल पाया है ? इन सबके वावजूद आज सत्ता और शक्ति प्रचंड और ओली जी के इर्द गिर्द घुमती दिख रही है। आम नेपाली नागरिक भारत को गाली देकर अपने को शक्ति संपन्न होने का मनोवैज्ञानिक सुख से तृप्त दिख रहे हैं। गणतंत्र का परिभाषा उनके लिए इतना ही पर्याप्त है। वैसे भी भैंस के लिए घास फूस ही महा सुखदायक होता है। सायद इस रहश्य को वर्त्तमान राजनीति कर्मी अच्छे से जानते हैं। यही कारण है कि नेपाली नेताओं के बैचारिक स्तर में 2007 साल से लेकर आजतक में कोई ख़ास उत्थान नजर नहीं आ रहा है। जिस प्रकार बी.पी. के समाजवाद को और लौह पुरुष गणेशमान जी के त्याग और हार्दिकता को एक भी कांग्रेसी नेताओं ने नहीं समझ पाया, उसी प्रकार साम्यवाद के समता और समत्वभाव को तथा नागरिक के समवेदना को एक भी बामपंथियों ने समझने की कोशिस नहीं की। नेपाल के सभी राजनीतिक व्यक्ति और सत्ताधारीयों का एक ही आदर्श है; वह है- उग्र राष्ट्रवाद के नामपर आमजन और देसके भविष्य को गर्त में डालते हुए भी व्यक्तिगत विकास और पारिवारिक उन्नति करना।
धन और पद के आगे धर्म, संस्कृति और सभ्यता तक को बेचने वालों से सुरक्षित भविष्य की कल्पना करना मूढ़ता का ही प्रतीक है। आज
क्या एक भी नेपाली नागरिक अपनेआप को विश्व के किसी भी देस में गौरव के साथ माओवादी के नामपर शिर उठाके जीने का अनुभव कर पा रहे हैं ? नेपाल के किसी राजनीतिक बिचारक के आदर्श को विश्व पटल पर स्थापित होने की गरिमा से मंडित होने का सौभाग्य मिल पाया है ? इस विश्व मंच में यदि आज नेपाल को जो कुछ गरिमा प्राप्त है वह राजर्षि जनक और सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के कारण है, जिसे नेपाल के तथाकथित माओवादी, मार्कसवादी, लेलिनवादियों ने इसाइयों के हाथो बेच डाला है। धर्म निरपेक्षता के षडयंत्र तहत 90% नेपालियो के आत्मा से छल किया गया है। देस के सर्वोच्च व्यक्तियों द्वारा होली वाइन के नामपर आत्मा पतन रस पीना बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग और सम्यक आहार तथा सम्यकता का धज्जी उड़ाया गया है। हिन्दू संस्कृति के शिखर अस्तित्व के रुपमे चीर परिचित पशुपति नाथ, स्वर्गद्वारी, जानकी मंदिर, बराह क्षेत्र को नजरअंदाज करना संस्कारगत पतन का द्योतक है। क्या संस्कार है हमारे नेतृत्व वर्ग में जिसके कारण आज हमें विश्व में प्रतिष्ठा और पहचान मिल पाए ? वास्तव में हम मूढ़ता रूपी धर्म निरपेक्षता के नामपर योजना बद्ध रुपमे सामूहिक रूपसे अपनी ही जड़ो को उखाड़ने पर तुले हैं, और खुद को आधुनिक समझ गौरवान्वित समझ रहे हैं। क्या हम इतने दीनहिन् और बुद्धू हो गए हैं कि जिसके निर्देस पर क्षणिक लोभ में फ़सकर हम अपनी धर्म, संस्कृति और सभ्यता को लात मार रहे हैं, वही, वो अपनी धर्म, संस्कृति और सभ्यता का पाँव हमारे यहाँ पसार रहा है, और हमें वोध तक नहीं हो रहा! जनसाधारण इसबात से वाकिफ़ होते हुए भी खुदको अपने ही चक्रव्यूह में फ़सा हुआ और मजबूर अनुभव कर रहा है। लोग देख रहे हैं, कि सबकुछ जनता के नामपर ही किया जा रहा है; लेकिन उन्हें बोलने तक का अधिकार नहीं है। यहाँ के अधिकाँश प्रौढ़ नागरिक भोलेभाले हैं और युवावर्ग वेहोश है। ए धूर्त राजनीति कर्मी अपनी तात्कालिक लाभ और सत्ता समरक्षण के इन्हें बड़ी आसानी से अपनी चक्रव्यूह में फसाकर युवाओं के द्वारा ही युवाओं के भविष्य को मटियामेट करते आरहे हैं। दुर्भाग्य तो तब लगता है, जब देश के भविष्य युवा पुस्ता इन्हें अपना आदर्श और संरक्षक मानकर इनके लिए मरने मारने को उतारू हो जाते हैं।
तथाकथित बिकाऊ नेपाली बुद्धिजीबी वर्ग क्षणिक लाभ के लिए अपनी ही युवाओं को गुमराह कर सामूहिक आत्महत्या के लिए अपनी कलम को गतिमान कर तात्कालिक वाहवाही लुटने में अपनी काबीलियत समझते हैं। कबीर दास ने कहा है “बुरे बंश कबीर के उपजे पूत कमाल”।
कोरोना महामारी के रुपमे उपस्थित भयानक मानवीय संकट से अपनी देसबासियो तथा देशके आर्थिक- भौतिक मेरुदंड कर्मठ नेपाली युवाओं को बिदेश में मरने के लिए तड़पते छोड़ देना क्या सावित करता है!
लिम्पिया धुरा, लिपू लेक और कालापानी को लेकर पुरे देश मे भारत के बिरोध के नामपर नेपाली मधेसी नागरिकों के प्रति घ्रिनास्पद और घटिया शब्दों का प्रयोग कर यहूदियों के प्रति हिटलर की तरह मुठ्ठी भर लोगो द्वारा देशमे सामाजिक विभेद सृजना कर आम जन जीबन को भयाक्रांत करने का षडयंत्र को यहाँ के विद्वानों के द्वारा समर्थन होना कितना हास्यास्पद और दुखदायी है, इसका हिसाव लगाना मुस्किल होगा।
देसके एक भी आम नागरिक, जो किसी भी पार्टी और संस्था के सदस्य नहीं है; उनसे गणतंत्र का स्वाद पूछा जाय, तब जा के पता चलेगा कि लोकतंत्र में लोक का हाल क्या है!

यह भी पढें   आतंकवादी हमलों का कड़ी निंदा करते है : डा.शेखर कोइराला

 

About Author

आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *