मधेसी राजनीति मोर्चा “सत्ता र्समर्पण और मुद्दा विर्सजन” के पथ पर
जयप्रकाश गुप्ता:नेपाल की राजनीति अभी सभी पर्ूव सहमति और प्रतिवद्धताओं के विपरीत प्रतिगमन की ओर ध्रुवीकृत हैं । इसकी पृष्ठभूमि में अभी आकार ग्रहण करता राजनीतिक ध्रुवीकरणों को समझें ।
नेपाली काँग्रेस, एमाले और राप्रपा वगैरह दक्षिणपंथी रुझान की पार्टियों ने तय किया हैं कि राज्य के रुपान्तरण का पहले के किसी भी प्रस्ताव को वे नहीं मानेगें । संविधानसभा का नयाँ चुनाव हो और नई संविधानसभा में प्रकट जनमत भावी संविधान के बिषय बस्तुओं का नए सिरे से निर्धारण करें । अभी तक की सहमति उन्हे मान्य नहीं हैं । वे माओवादी के साथ हुए १२ सूत्रीय सम्झौता, मधेस के साथ हुए २२ और ८ सूत्रीय सम्झौता को निरस्त करना चाहते हैं । राज्य के शासकीय रूपान्तरण के दायित्व से वे मुकर रहे हैं । सभी संघीयता विरोधी तत्त्व इस में सहकार्य रखते हैं ।
यह स्वयंसिद्ध है कि वैचारिक रूप से भी माओवादी लोकतान्त्रिक शासन पद्धति के पक्ष में नहीं हैं । अभी तक हासिल किये गये स्वयं उनके हित की कई महत्वपर्ूण्ा उपलब्धियों को वे डूबते देख रहे हैं । परन्तु साम्यवादी जनवाद से मिलती-जुलती राजकीय संरचना को वे छोडÞ नहीं सकते हैं । माओवादी पार्टर्ीीे विभाजन की आधारभूत कारणों का जिक्र करते हुए अभी-अभी मोहन वैद्य किरण ने कहा हैं- ‘माओवादी का चुनवाङ’ बैठक में तय हुआ था, कि नेपाल में राजतन्त्र की समाप्ति तक के लिए ही माओवादी पार्टर्ीीलोकतान्त्रिक गणतन्त्र’ की बात करेंगे । ‘गणतन्त्र’ हासिल करने के वाद माओवादी पार्टर्ीीजनवादी सत्ता’ को हासिल करने के लिए आगे बढेंगे ।” प्रचण्ड और बाबुराम भट्टर्राई के प्रति मोहन वैद्य का विरोध मूलतः इसी मुद्दे पर हैं कि प्रचण्ड-बाबुराम ने इस पर्ूव स्वीकृत रणनीति को छोडÞ दिया । अभी हेटौडÞा में सम्पन्न महाधिवेशन में माओवादी पार्टर्ीीे प्रचण्ड के इस सपने पर मुहर लगाया है, जिस में कहा गया हैं कि, ‘बस् अब नेपाली क्रान्ति सफल होने को ही है और हमे समाजवादी क्रान्ति के वारे में सोचना हैं ।” यह कहना उसी चुनवाङ बैठक का नया दिशा-निर्देश है ।
प्रचण्ड ने वैद्य के इस आरोप को अस्वीकार किया है, जिसमें वैद्य ने उन्हे संशोधनवादी कहा था और उनका दावा हैं कि अभी भी उनका रास्ता चुनवाङ बैठक का निर्ण्र्ााही हैं । संविधानसभा को बलात् भंग करने का और फिर हर हालत में सत्ता पर काविज हो, सिर्फअपने नेतृत्व में निर्वाचन कराने का या फिर अपने अनुकूल की सरकार के द्वारा ही निर्वाचन कराने का माओवादी हठ प्रचण्ड के अभी का सपना- ‘बस् नेपाली क्रान्ति तो पूरा होने वाला ही है” की पुष्टि करता है ।
आज र्सार्वजनिक प्रशासन, न्यायपालिका, नेपाल प्रहरी, नेपाल सेना, कूटनीतिक नियोग सभी माओवादी के वर्चस्व में है । सत्ता में मदान्ध मधेसी मोर्चा और माओवादी के सत्ता पक्ष में रह रही छोटी पार्टियों का गठबन्धन उनके सहयोगी मोहरा भर मात्र हैं । दोनों माओवादी पार्टर्ीीपष्ट रुप में मधेस विरोधी रहा हैं । माओवादी पार्टर्ीीक रहते ही इन्होंने प्रचण्ड के द्वारा हस्ताक्षरित चार सूत्रीय सम्झौता को राष्ट्रघात कहा था । फिर स्वयं प्रचण्ड ने अपने पदाधिकारी बैठक में अब चार सूत्रीय सम्झौता का कोई औचित्य नहीं रहा- र्सार्वजनिक रूप में कहा था । इनकी यह मान्यता आज भी बरकरार है ।
आज मधेसी मोर्चा का अपना रास्ता और अपना उद्देश्य क्या बचा हैं – शांति प्रक्रिया लगभग पुरी हर्ुइ है । शांति प्रक्रिया के लिए माओवादी को सत्ता में रहना आवश्यक था, क्योकि शांति प्रक्रिया पर्ूण्ा होने के वाद ही संविधान निर्माण की दिशा में मुल्क आगे बढÞ सकेगा । मधेस के लिए संविधान का निर्माण ही अह्म अपेक्षित बिषय था । सरकार में रहकर ही नागरिकता, सेना में भर्ती, समावेशी कानून आदि को आगे बढÞाया जा सकता है-इन्ही सोच के आधार पर मधेसी मोर्चा ने माओवादी के नेतृत्व में सत्ता गठबन्धन बनाया था । अभी हेटौडा के महाधिवेशन में माओवादी पार्टर्ीीे अध्यक्ष प्रचण्ड द्वारा प्रस्तुत किया गया पार्टर्ीीी अवधारणा में ‘अब नेपाली सेना में किसी भी भौगोलिक क्षेत्र के नाम पर और किसी भी समुदाय के नाम पर सामूहिक भर्ती नहीं की जाएगी” यह पास हुआ है । यह मधेसी मोर्चा का चेहरे पर एक करारा थप्पडÞ है । मोर्चा जैसे अपनी इज्जत बचावे, पर यह समझने का समय आ रहा हैं कि, संविधानसभा से होने वाला कोई भी काम अब होनेवाला नहीं है । चार सूत्रीय समझदारी में उल्लेखित कोई ठोस काम अब इस सरकार से नहीं होगें । अब माओवादी के साथ सत्ता में चिपक कर रहने का औचित्य क्या है – मोर्चा यह बताने में अर्समर्थ रहा है । काँग्रेस, एमाले एवं माओवादी समेत तीनो पक्ष ने मधेस के साथ हुए २२ सूत्रीय और ८ सूत्रीय सम्झौते के वजूद को र्सार्वजनिक रूप में अस्वीकार किया है । ये तीनों पक्ष अब मधेस के साथ हुए सम्झौते को कार्यान्वयन का दायित्व नहीं मानते ।
मधेसी मोर्चा के वाहर रह रहे अर्थात् उपेन्द्र यादव, शरदसिंह भण्डारी वगैरह के मधेसी पार्टियों का पहाडÞी समुदाय के जनजाति पार्टियों के साथ एक मोर्चा गठन हुआ हैं । संविधानसभा के बिघटन के वाद बने इस मोर्चा का सम्पर्ूण्ा ध्यान नई सरकार के गठन पर केन्द्रित है । मधेस की पहचान, संघीयता, जातीय संघीयता, शासकीय संरचना, प्रतिनिधित्व और भाषिक मान्यता जैसा र्सवाधिक महत्त्व का अहम् सवाल पर मधेसी पार्टियों के र्सवथा विपरीत दृष्टिकोण रखने वाली जनजाति पक्षों के साथ बना यह गठबन्धन नई सरकार के गठन के वाद औचित्यहीन होना निश्चित है । विजय गच्छदार के बाहुबल में फसे हुए मधेसी मोर्चा, जहाँ सरकार की कर्ुर्सर्ीीे न उतरने के लिए नाभिकीय शक्ति लगा रहा है, वहीं उपेन्द्र यादव कर्ुर्सर्ीीर चढÞने हेतु सीढÞी लेकर तयार खडे हैं । इससे मधेस के मुद्दों की स्थिति पर क्या र्फक पडÞता है –
दूसरी तरफ राजावादी-दक्षिण पंथी तत्वों का पक्ष भी है, जिसका नेतृत्व कमल थापा कर रहे हैं । ‘हिन्दूत्व और महेन्द्रवादी राष्ट्रियता’ का पुनरुत्थान इनका मुख्य ध्येय रहा है । महेन्द्रवादी राष्ट्रियता की मान्यता का पुनरुत्थान ही मधेसी पहिचान की मान्यता की हत्या है । कमल थापा का मुख्य कार्य स्थल अभी के दिनो में मधेस को बनाया गया है । इस पक्ष की दूसरी कार्यनीति संविधानसभा के वजाय राजनीतिक सम्झौता के तहत राजतन्त्र की मान्यता को स्थापित कराना है । इस खतरनाक संभाव्य आगमन के वारे में मधेसी मोर्चा एवं मधेसी-जनजाति गठबन्धन की चुप्पी है । इन्होंने देशभक्ति के नाम पे माओवादी के साथ सम्बन्ध बढाया है ।
नेपाल की राजनीति में मधेस विरोधी वाम-दक्षिण पंथी गठजोडÞ के पक्ष में चित्रबहादुर के.सी. के नेतृत्ववाली पार्टर्ीीौर नारायणमान विजुक्छे की पार्टर्ीीग्रणी रही है । महेन्द्रवादी राष्ट्रवाद, उग्र भारत विरोध, मधेस विरोध और संघीयता का विरोध इनका वैचारिक-कार्यनीतिक आधार रहा है । इन मान्यताओं के सर्न्दर्भ में इनका तालमेल माओवादी-कांग्रेस-एमाले और कमल थापा सभी के साथ समान रहा है ।
नेपाल में राज्यका रुपान्तरण और संघीयता का बिषय अब क्षेत्रीय भू-राजनीति का भी एक हिस्सा बन गया हैं । पडÞोसी चीन के कई कूटनयिक एवं आधिकारिक व्यक्तियों ने मधेस प्रदेश की मान्यता को नेपाल के बिखण्डन के साथ जोडा है । उन्होने संघीयता हरगिज भी नेपाल के हित में नहीं होने का दावा किया है । कई गैरसरकारी भारतीय बुद्धिजीवियों ने भी कभी नेपाल में संघीयता का, फिर कभी एक या दो मधेस प्रदेश की रचना को अव्यावहारिक कहा है । नेपाल की शांति प्रक्रिया और संविधान के प्रति गंभीर सरोकार रखनेवाला पडÞोसी देश से संघीयता के पक्ष में उत्साहजनक भाव र्सार्वजनिक नहीं किया गया हैं । परन्तु नेपाल के साथ गंभीर सरोकार के पडोसी राष्ट्रों का दृष्टिकोण हमारे लिए महत्त्वपर्ूण्ा है ।
मैने यहाँ संक्षेप में आज मुल्क में विद्यमान राजनीतिक ध्रुवीकरण की चर्चा की है । हमे पता करना होगा कि, इस परिदृश्य में मधेस और मधेसी का मुद्दा कहाँ हैं – मधेस के मुद्दे को इन पक्षों के बीच राजनीतिक छलफल में कैसा स्थान प्राप्त हो सकता हैं – हम जानते हैं कि संविधानसभा का चुनाव जब हो, जिस किसी सरकार के नेतृत्व में हों- उस में मधेस को हासिल हो सकने वाली उपलब्धी की एक सीमा है । हम न तो पूरे मुल्क में उम्मीदवारी दे सकते हैं न तो मधेस के सभी सीटो में शतप्रतिशत कामयाव ही हो सकते हैं । भूगोल और बसोवास के तरिके को अब नहीं बदला जा सकता । हमें याद करना होगा कि वि.स. २०६४ का संविधानसभा निर्वाचन के पर्ूव हमने निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निधारण क्यो करवाया था – देश का नागरिकता कानून में जबरन संशोधन क्यों करवाया था – काँग्रेस-एमाले-माओवादी सभी की तरफ से उदासीन रहा समानुपातिक प्रतिनिधित्व के मसले को हमने ही क्यों उठाया – संघीयता के तहत मधेस प्रदेश की प्रत्याभूति के लिए संविधानसभा के ठीक पहले हमने आठ सूत्रीय सम्झौता करने के लिए राज्य को क्यों विवश किया – विगत के संविधानसभा के निर्वाचन पर्ूव इस प्रकार कई प्रयास हम ने किये । इन सभी प्रयत्नो का प्रयोजन संविधानसभा में मधेसियों का प्रतिनिधित्व विस्तार करना था, और संविधानसभा में मधेसियों का संख्यात्मक प्रतिनिधित्व जैसा भी हो, परन्तु भावी संविधान में मधेस के सवालों को आधारभूत मान्यता के रूप में ग्यारेन्टी हो-यह मान्यता रखी गई थी । क्या आज वह स्थिति है –
आज मधेस आपस में विखरा हुआ है । राजनीतिक विचलन और मुद्दों से पथ-भ्रष्टता फैलती जा रही है । सत्तासीन संयुक्त लोकतान्त्रिक मधेसी मोर्चा मधेस के सभी सवालो को परित्याग कर माओवादी के साथ ‘सत्ता र्समर्पण और मुद्दा विर्सजन” के पथ पर है । उपेन्द्र यादव- जनजाति गठबन्धन काँग्रेस-एमाले पथ से होकर सत्तासीन होने हेतु प्रतीक्षारत है । इन दोनो खेमे के मधेसी पार्टियों ने सिद्धान्त, विचार और क्रान्तिकारी सोच के बदले जातिवाद को जनाधार हासिल करने का रास्ता समझ लिया है । जातीवादी रूझान और अनवरत सत्तास्वार्थ के कारण इन के बीच किसी भी तरह का विलय और इमान्दार समझदारी अब संभव नहीं है ।
इसीलिए मधेस आन्दोलन की उपलब्धियों को सुरक्षित करने के लिए और भावी संविधानसभा को मधेसी के हित में उपलब्धीपर्ूण्ा बनाने के लिए एक उपयुक्त राजनीतिक माहौल बनाना अपरिहार्य है । यह कार्य सत्तावादी, र्समर्पणवादी पक्षों से संभव नहीं है । इसके लिए अब क्रान्तिकारी मधेसी शक्तियों का एक सुसंगठित नवीन प्रयास होना वाञ्छनीय है । इस कार्य का सम्पादन अब मधेस का दायित्व होना चाहिए । इस हेते अब एक अभियान को अन्जाम देना होगा ।
-जयप्रकाश गुप्ता, भ्रष्टाचार के मुद्दा में जेल में हैं)
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