Tue. Mar 18th, 2025

असरफ गानी का भ्रष्टाचार और तालिबानों की सरकार : कैलाश महतो

कैलाश महतो, पराशी । २०२१ अगष्ट १५ । एक तरफ उसके पडोसी भारत स्वतंत्रता दिवस मना रहा था, वहीं अफ़गानिस्तान तालिबानों का शिकार हो रहा था । अफगानिस्तान अपने राजधानी, काबुल को अपने हाथों से छोड रहा था और तालिबानी सुपर फास्ट गति से काबुल को अपने शिकञ्जों में कस रहा था । दुनिया बेखर थी । दुनिया को अकल्पनीय समाचार ने हत्प्रभ और नि:शब्द बना दिया था । यहाँ तक कि बीस सालों तक अफगानिस्तान पर अपना सैनिक और तीक्ष्ण इन्टेलिजेंस और बेहद पैनी नजर बाले खुफिया एजेन्सियों के सर्वशक्तिशाली निकायों बाला अमेरिका भी अन्दाज लगाने में असफल हो गया, और देखते ही देखते तालिबान लडाकूओं ने काबूल ही नहीं, अफगान सियासत को चलाने बाला सबसे ताकतवर शासन की मंदिर पर अकल्पनीय रुप में धावा बोल दिया । दुनिया देखती रह गयी । यहाँ तक कि तालिबान के बडे बडे नेता और सुप्रिम कमाण्डर भी अचम्भित और भौचक्के रह गये ।
इक्कीसवीं सदी की यह कहीं इकलौता राजनीतिक सबसे बडा (Apple Cart) तख्ता पलट न बन जाये – जो राजनीतिक खेल मैदान का अन्तिम गोल कहला जाये । मगर देखासिखी ही संसार चलती है । एक दूजे का नक्कल करके ही दुनियादारी आगे बढती है । अगर भ्रष्टाचारों का दर एशिया, अफ्रीका और कुछ अरब व मिड्ल इष्ट देशों में स्थिर या बन्द नहीं हुए तो न जाने कितने अफगानिस्तान और कितने तालिबान जन्म लेंगे ।
दुनिया के शासकों का एक जन्मजात साझा भाषा यह रहा है कि उसके भ्रष्ट आचरण, भ्रष्ट नीति और नियत, गलत निर्णय और देश व समाज विरोधी रबैयों का कोई समूह विरोध करें तो सरकार और शासक उसे अपना विरोधी ही नहीं, दुश्मन और आतंककारी नाम दे देते हैं । एक किसी सरकार ने अपने बचाव में जब उसे आतंकवादी कह दें तो दुनिया के सर्वशक्तिशाली कहलाने बाले दो चार राष्ट्र भी उस पर अपना मोहर लगा देते हैं और वे उन लडाकू समूहों को बिना सोचे समझे अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवादी तक का नाम दे देते हैं । फिर उनके साथ उसी तरह के व्यवहार किये जाते हैं ।
आश्चर्य और दुर्भाग्य की बात तब यह बन जाता है कि किसी मूक देश में साम्प्रदायिक, जातीय, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, भाषिक, शैक्षिक, अवसरीय आतंक सृजना करने बाले सरकार और शासक उन अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति के उक्साहट में उसके गुनाह के विरोध में खडे शक्तियों से समझदारी करना छोडकर उस बाह्य शक्ति को ही अपना शक्ति मानकर अपने देश और जनता पर थप सितम ढालने लगते हैं । दूसरी तरफ उन बाह्य ताकतवर कहे जाने बाले देश और राष्ट्र उस देश के आन्तरिक राजनीतिक और सामरिक मामलों में अडंङ्गा डालकर एक तरफ वे सरकार के साथ होने का, और दूसरी तरफ वे वहाँ के सरकार के विरोध में खडे विद्रोहियों को आन्तरिक रुप से सरकार के विरोध में उकसाने का काम करते हैं । अब वे बाह्य शक्तियाँ उस देश के आन्तरिक लड़ाई से कम से कम चार फायदे लेने में सफल होते हैं ।
दुनिया में चले सन् १९४६ से सन् १९९१ तक चले शित युद्ध से लेकर सन् २००१ से लेकर सन् २०२१ तक अफगानिस्तान, इराक, सिरिया, सुडान, कुर्दिस्तान लगायत के देशों में चले हिंसात्मक लडाई और झड़पें केवल सम्बंधित देशों और जनताओं का नहीं रहे हैं । उन झगडों, लफडों, हिंसा, द्वन्द्व और युद्धों को भड़काने में उन तमाम बाह्य शक्तियों का अहम रणनीतिक भूमिका रही हैं, जिनसे उन युद्ध ग्रस्त देशों और समाजों ने यह उम्मीद की थी कि वे उनको सहयोग करेंगे । मगर वे बाह्य शक्ति राष्ट्रों ने उनके युद्ध और द्वन्दों को सुलझाने के बदले बडी बेरहमी से उलझाते रहें, जिसका खामियाजा आज उन सारे युद्धरत देश और राष्ट्रों को भुगतना पड रहा है ।
दर असल वे शक्ति राष्ट्र कभी यह चाहते ही नहीं कि किसी देश का आन्तरिक और द्वि-देशीय और त्रि-देशीय असमझदारी सुलझें । क्योंकि आन्तरिक और आपस में उलझे उन देशों से उन्हें अथाह आर्थिक और श्रोतीय लाभ होते हैं । वे शक्ति राष्ट्र सरकारी पक्ष को खुलकर और सरकार के विरोधी शक्तियों को गोप्य रुप में अपने हथियार बेचते हैं । सरकार और विरोधी दोनों पक्षों से पैसे कमाते हैं । तीसरा यह कि वे उन देशों में उपस्थित होकर दुनिया में अपनी मार्केट बनाते हैं कि वे संसार के सुपर पावर हैं । चौथा, और सबसे खतरनाक उनका उद्देश्य यह होता है कि युद्ध के अफरातफरी में वे वेहिचक उन युद्ध ग्रस्त देशों के अन्दर रहे प्राकृतिक श्रोत, साधन, सम्पदा और बौद्धिक सम्पतियों का बेसुमार दोहन कर लेते हैं ।
दुनिया को यह समझने की आवश्यकता है कि जिसे कोई शासक और सरकार आतंकी, देशद्रोही, राष्ट्र विप्लवी, विखण्डनकारी, आदि नाम देते हैं, क्या वे आतंकवादी, देशद्रोही, विखण्डनकारी ही बनने के लिए पैदा होते हैं ? क्या वे आराम की जिन्दगी छोडकर बन्दुक उठाने, अपनी निन्द और चैन हराम करने, देश तोड़ने, गोला बारुद बनाने, मरने और मारने तथा जेल नेल भोगने के लिए ही जन्म लेते हैं ? उसके पीछे का कारण क्यों नहीं खोजा जाता ? वे शक्ति राष्ट्रों की बुद्धि कहाँ खो जाती है ? अगर आतंकी, सरकार विरोधी, देश विरोधी, शासन विरोधी इतने बुरे हैं तो फिर उन्हें जन्म लेने को बाध्य करने बाले देश, सरकार और शासन सत्ता कितने दोषी और बुरे होंगे – इन बातों पर विश्व शक्तियों का ध्यान कब जायेगा ?
अगर रिपोर्ट सही है कि देश के राष्ट्रपति असरफ घानी देश के डॉलरीय नगद सम्पत्ति मात्र चार जीप और हेलिकॉप्टर में ले जाकर हवाई जहाज़ तक में न अटने के कारण पचासों लाख अमेरिकी डॉलर को एयरपोर्ट में ही छोड गये तो आजके अफगानिस्तान पर सशस्त्र कब्जा करने बाले तालिबान किस हदतक दोषी हो सकता है ? देश के प्राकृतिक स्रोतों को विदेशी हाथों में सौंपना कौन सी देशभक्ति है ? कागजों पर तीन लाख सेना दिखाकर (जबकि अफगानिस्तान में तीन लाख सेना ही नहीं होने की बात आ रही है) अमेरिका से मासिक अरबों डॉलर लेना और उसे भी सरकारी नेता और सैनिक अधिकारी मिलकर खा जाना कौन सी सरकारी नीति और अन्तराष्ट्रीय ईमानदारी है ?
सरकारी सहयोग में रहे कहे जाने बाले अमरिका समेत से छल और ठगी कर अपने देश और जनता को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय दो जोखिमों के अग्नि में झोंकना असरफ का कौन सा राष्ट्र प्रेम था ? देश के आन्तरिक समस्याओं को आन्तरिक ढंग से ही सुलझाने के बजाय केवल बाह्य शक्तियों पर आश्वस्त और निर्भर होना कौन सी सत्तानीति होती है ? सही में कहा जाय तो अफगानिस्तान में असरफ गानी के भ्रष्टाचारों ने तालिबानों की सरकार बनाने का जग निर्माण किया है ।
दुनिया के विश्लेषक अफगानिस्तान नीतियों में अमेरिका को भले ही असफल कहें, मगर अमेरिका अपने नीति में पूर्ण सफल रहा है । अमेरिका अपने सेना के साथ अफगानिस्तान में अफगानिस्तान को सुरक्षा देने नहीं, बल्कि वो ओसामा बिन लादेन खत्म करने के अभियान से गया था । अमेरिका ने चाहा होता तो लादेन को चन्द दिनों में ही साफ कर दिया होता । मगर अपने स्वाभाव और राष्ट्रीय नीतियों के अनुसार ही उसने वहाँ लादेन खोजने का नाटक कर समय बिताने, सरकारी पक्षों को सहयोग करने और सरकार विरोधी तालिबान विरुद्ध एक्शन लेने का बाहरी और आन्तरिक खेल खेलकर सरकार और तालिबान दोनों को अपना हथियार बेचने, दुनिया को खबर यह करने की कि संसार का वह एक मात्र महाशक्ति होने और सरकार और तालिबानों पर किये गये खर्चों के कैयों गुणा वहाँ के बहुमूल्य प्राकृतिक सम्पत्ति, खानी और साधन व स्रोतों को हथियाने का काम जब पूरा हो गया, तो वह अपने अचूक ग्राहक रहे तालिबानों से गोप्य सहमति कर अफगानिस्तान को उसके अपने हालात पर छोड दिया ।
अमेरिका सौदागर है । वह अपने फायदेमन्द सौदों के लिए कहीं भी कुछ भी कर सकता है । वह नेपाल को भी अछुता नहीं रखना चाहेगा – यदि नेपाल सरकार और मेपाली राजनीतिक दल सचेत नहीं हुए तो । वे आज भी शक्तिशाली ही है । अगर वो चाहे तो आजके तालिबान को, जो जहाँ है, वहीं सारे को खत्म कर सकता है । उसने जहाँ भी कदम रखा : वह चाहे उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच हो, इराक और कुवेत मामले में हों, या भियतनाम में हों, सद्दाम हुसेन के इराक में हों, या भारत पाकिस्तान मामले में हों या फिर लादेन और अफगानिस्तान मामले में ही क्यों न हों, उसने अपने रणनीति को कामयाब ही किया है ।
नेपाल अपने राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, नश्लीय, जातीय, शैक्षिक, अवसरिक चरित्रों को सुधार नहीं किया तो इसे राजनीतिक और सामरिक रुप में अमेरिका, यूरोप, चीन और भारत के चंगुल में फंसना निश्चित प्रायः है । धार्मिक रुप से इसे हिन्दू, मुस्लिम, क्रिश्चियन और घोर ब्राम्हणबाद के जकड़न में जाने तथा साम्प्रदायिक रुप से उच्च वर्ग/वर्ण, यादव, नन्-यादव, थारु, दलित, पिछडा वर्ग, महिला, अल्पसंख्यक, पहाडी, मधेशी, आदिवासी, जनजाति, खस, आर्य, अनार्य, आदि दुष्चक्र के यह शिकार होने के कागार पर है । इन सारे समस्याओं को नेपाल समय रहते ही खुद से समाधान नहीं किया तो यहाँ भी असरफ गानी, तालिबान, मुजाहिदीन, लस्करे तोयबा, अलकायदा, आइएसाइएस, अमेरिका, आदि नहीं पनपेंगे – यह कहना मुश्किल होगा ।

About Author

आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

WP2Social Auto Publish Powered By : XYZScripts.com