मधुश्रावणी में टेमी’ मैथिल महिलाओं की अग्निपरीक्षा
करुणा झा:वैदिक काल के प्राचीन जनपदों में से एक राजा जनक की नगरी मिथिला का अतीत स्वणिर्म था। धनबल, जनबल और आत्मबल में मिथिला की ख्याति पूरी दुनियाँ में थी। मिथिला अपने गौरवमय इतिहास और संस्कृति के लिए विश्व में प्रसिद्ध है।
प्रत्येक माह और प्रत्येक ऋतु में कोई न कोई त्यौहार मनाना मिथिला की परम्परा रही है। पर कालान्तर में, अन्य समाजों की भांति मिथिला में भी विवाह के नाम पर कुरीतियों का खेल शुरु हुआ और फिर कुप्रथाओं ने मिथिला की उत्तम संस्कृति को ऐसा जकडÞा कि यह समाज अभी तक उससे उबर नहीं पाया है। रीति-रिवाजों के नाम पर अंधविश्वास के दल-दल में धसता चला गया और इसका शिकार सिर्फमहिलाओं को होना पडÞा। ऐसे ही एक वैवाहिक प्रक्रिया है- मधुश्रावणी में जलाना, नव विवाहिताओं को। मिथिलाञ्चल में कुछ खास समुदाय ब्राम्हण, कायस्थ, वैश्य में ये प्रथा सदियों से चली आ रही है। विवाह के पश्चात् जो पहला सावन मास पडÞता है, उसमें १३ दिनों तक यह त्यौहार मनाया जाता है। सावन महिना में पडÞने के कारण इसे ‘मधुश्रावणी’ कहा गया। यानी जो सावन मधु के समान मीठा हो, यानी मिथिलाञ्चल का ‘हनीमून’ भी इसे कहा जा सकता है। हमारी वैदिक परंपरा कितनी वैज्ञानिक तरीके की थी, जो सावन का महिना पूरे हरे भरे वातावरण से भरपूर और इस मौसम को भगवान शिव और पार्वती को भी पसंद करते हैं, शास्त्रों में भी कहा गया है कि यौनिक क्रिया के लिए ये मास सर्वोत्तम है। यही कारण है कि मिथिलाञ्चल में सावन मास को ‘हनीमून’ के लिए चुना गया। ‘मधुश्रावणी’ पर्व इसी का रूप हैं।
तेरह दिनतक चलनेवाला इस पर्व में, नवविवाहिता नए-नए कपडे, जेवर पहनकर, साज श्रृंगार कर शाम को विभिन्न प्रकार के फूल-पतियां तोडÞ कर लाती है, और सुवह नहा-धोकर इन्हीं फूलपतियों से शंकर-पार्वती की पूजा करती हैं और कथा सुनती हैं। मधुश्रावणी की कथा में भी शंकर पार्वती के प्रेम प्रसंगों की ही चर्चा होती है, पार्वती जी के रुप रंग यहाँ तक की उनके वक्षस्थल समेत और भी अंगों की खूबसूरती की प्रशंसा होती है। तेरह दिनों तक नवविवाहिता घर का कोई भी काम नहीं करती, स्वादिष्ट खाना, नए-नए कपडÞे पहनना ही उसका काम होता है। पर अचानक, तेरहवें दिन नये-नये वस्त्र, जेवर पहनकर दूल्हा-दूल्हन पूजा पाठ करते हैं और फिर पूजा में जो दीप जलता रहता है, उसी की बाती से दुल्हन को चार जगह दोनों घुटनों और पावों पर दागा जाता है, दागते समय दुल्हा पान के पत्तों से दुल्हन की दोनों आँखों को मुंदे रहता है। घर और पडÞोस की औरतें मिलकर दूल्हन को पकडÞे रहती हैं, और इस समय महिलाएं मंगलगान गाती रहती हैं। मिथिलाञ्चल के पंडितों का ये मानना है कि जलाने के बाद कितना बडÞा घाव हो पाता हैं, घाव जितना बडÞा होता है, उसे उतना ही शुभ माना जाता है, उस बधू को पति ज्यादा प्रेम करता है। २१वीं सदी चल रही है, और यहाँ की महिलाएँ धर्म और परम्परा को अभी भी विश्वासपर्ूवक मान रही हैं।
यदि घाव ही पति के मानने का मापदण्ड है तो फिर ये मापदण्ड पुरुषों के लिए क्यों नहीं – जगतजननी माँ सीता की ही धरती है मिथिला, पर सीता को तो त्रेता युग में श्रीराम ने अग्निपरीक्षा ली थी पर अब कलियुग में राम तो कहीं हैं नहीं, पर उनके द्वारा शुरु की गई यह परंपरा आज की दौड में भी बरकरार है।
यहाँ के तथाकथित धर्म और परम्परा के ठेकेदार इस हिंसा को बढÞावा दे रहे हैं। महिलाओं मे व्याप्त अशिक्षा, और धर्म के नाम पर अन्धविश्वास के कारण आज भी ये प्रथा मिथिलाञ्चल में फल-फूल रही है। और दुःख की बात तो यह है कि इसमें महिलाएँ ही मिलकर एक नवविवाहिता के साथ ये हिंसा कर रही हैं।
आज की इस २१वीं सदी में जब महिलाएँ भी पुरुषों के साथ चाँद, मंगल या एभरेष्ट की चोटी पर पहुँच चुकी हैं तो फिर मिथिलाञ्चल में कुछ खास समुदाय -ब्राहृमण, कायस्थ, देव, वैश्य) में ही महिला हिंसा क्यों – जिसके कारण ये मिथिलाञ्चल का हनीमून ‘मधुश्रावणी’ ‘टेमी’ प्रथा के कारण महिलाओं के लिए दुःख और दर्द का कारण बन रहा है।
इस ‘मधुश्रावणी’ पर्व को पर्यावरण के दृष्टिकोण से अगर देखा जाय तो हमें लगता है कि हमारे पर्ूवजों ने इस पर्व की महत्ता पर्यावरण के संरक्षण के लिए आवश्यक माना होगा। इस सर्न्दर्भ में सप्तरी के महेन्द्र विन्देश्वरी बहुमुखी काँलेज की इतिहास शिक्षिका बन्दना मिश्रा का कहना है- ‘इस पर्व में विभिन्न प्रकार के पुष्प, पत्तियां, इकट्ठा कर पूजा होती है। वनस्पतियाँ हमारे वातावरण में हमेशा मौजूद रहें। साथ ही इसमें नाग देवता -विषहारा) की भी पूजा होती है। इसलिए पृथ्वी पर जानवरों का भी उतना ही अधिकार है जितना मनुष्यों का। विषैला होने के कारण र्सप को मार देते हैं, ऐसे मे इसकी प्रजाति कही विलुप्त न हो जाय। सावन महिना में उसकी पूजा की व्यवस्था की गई होगी।’
इसी तरह तर्राई मधेश लोकतान्त्रिक पार्टर्ीीहिला संघ की जिला अध्यक्ष साधना झा ने बताया कि मधुश्रावणी को मिथिलाञ्चल में नव वर-वधू के लिए हनीमुन की संज्ञा दी जाती है। उन्होंने कहा- ‘हमारी प्राचीन संस्कृति में नव विवाहितों के लिए हर्षोल्लास और उमंग के साथ विताने बाला ये १५ दिन का समय हिन्दू धर्म संस्कृति ने ‘हनीमुन’ की तरह मनाने वाला पर्व के रुप में माना है।’ मैथिल महिलाएं ही नहीं बल्कि पुरुष लोग भी इस पर्व को वैज्ञानिक रुप से सटीक और र्सार्थक बताते हैं। सप्तरी के बरिष्ठ पत्रकार व्यासशंकर उपाध्याय का कहना है कि यह ‘मधुश्रावणी’ पर्व मैथिल महिलाओं के लिए खास कर सावन महिना में मनाया जाना, बहुत ही सान्दर्भिक है। क्योंकि सावन महिना में महिलाएं ‘कजरी’ गीत गाती है और सखियों के संग उमंग का अनुभव करती हैैं।