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नेपाल श्रीलंका होने के बेहद करीब : कैलाश महतो

-कैलाश महतो, पराशी ।  स्थानीय निर्वाचन २०७९ का हुर्दङ्ग सेशन समाप्ति के बाद आज से पार्टियों और उम्मीदवारों का बन्द सेशन शुरु हुआ है । मौन सेशन से चुनाव में जो असर दिखने लगा है, उसका खामियाजा देश और जनता को भुगतमा निश्चित है । मौजूदा चुनावी स्थिति से नेपाल को श्रीलंका बनने में लम्बे इन्तजार की आवश्यकता नहीं रह सकती ।

किसी जमाने में श्रीलंका में एलटीटीइ और प्रभाकरण अकारण ही नहीं उब्जे थे । उस शक्ति को दर किनार कर उसे नाश करने बाले महिन्द्रा राजपाक्षे ने आज श्रीलंका को दयनीयता प्रदान की है । लोकतान्त्रिक निर्वाचन से ही सत्ता को अपने गिरफ्त में लिए राजपाक्षे और उनकी सरकारों ने वहाँ के जनता को विश्व के राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में लज्जास्पद हालात में खडा कर दिया है । आर्थिक मन्दी का स्तर यहाँ तक पहुँच जाने की खबर है कि एक समान्य सी सब्जी, आलु का किमत अकल्पनीय सुना जा रहा है । समाचारों को मानें तो हाल फिलहाल वहाँ आलु प्रति किलो ५००-६०० रुपये है । यह सरकार की असफलता, देश की दुर्भाग्य और जनता की बदहवाली का नंगा तस्वीर है ।

विश्व के राजनीतिक बाजार में यह सत प्रतिशत प्रमाणित तथ्याङ्क है कि विदेशी किसी सहयोग, अनुदान या ऋण से आज के कोई भी शक्तिशाली देश सम्पन्न और शक्तिशाली नहीं हुए हैं । कभी जर्जर और भूखमरी का शिकार रहे रुस, चीन, भारत, युरोप, दक्षिण अफ्रीका या कोरिया जैसे देशों ने औपनिवेशिक शासनों से छुटकारा पाने के बाद भी किसी से सहयोग, अनुदान या ऋण लेकर विकास करने के बजाय उनके देशों में उपलब्ध मानव और संसाधनों के भरपूर प्रयोग के आधार पर ही शक्ति सम्पन्न और अत्याधुनिक जीवन यापन कर रहे हैं ।

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प्रमाणित यह भी है कि जिन मुल्कों ने देश विकास के नाम पर विदेशी सहयोग, अनुदान या ऋण लिये, लगभग सारे वे मुल्क परनिर्भर हुए हैं । विदेशी सहयोग और अनुदान एक ओर जहाँ उसे आलसी, कामचोर और निकम्मा बनाता है, वहीं विदेशी ऋण उन्हें डुबो देता है । कोसोभो, सुडान, इथियोपिया, कंगो जैसे अनेक अफ्रीकी और एशियन मुल्कें आज जिस आर्थिक संकटों का सामना कर रहे हैं, वे सारे के सारे मुल्क विदेशी ऋण, अनुदान और सहयोग के आकांक्षी रहे हैं । श्रीलंका उसी का एक ताजा उदाहरण है, जो आज आर्थिक रुप में दिवालियापन का शिकार है । उसका सबसे बडा बन्दरगाह हम्बलटोटा आज चीन के कब्जे में जाने का प्रमुख कारण ही वैदेशिक ऋण रहा है । पाकिस्तान, अफगानिस्तान और नेपाल भी उस अवस्था से अछूते नहीं रह सकते ।

आसन्न स्थानीय निर्वाचन नेपाल को ले डूबने का एक बहुत बडा आधार बन सकता है । श्रोतों को मानें तो मेयर और वार्ड अध्यक्षों के अधिकांश उम्मीदवारों ने पार्टियों से करोड़ों और लाखों के टिकट खरिदे हैं । सुना यहाँ तक जा रहा है कि मेयर के उम्मीदवारों ने सात और आठ करोड के टिकट खरीद कर चुनाव लड रहे हैं । वैसे ही वार्ड अध्यक्षों तक ने  दश से बीस लाख रुपयों में टिकट प्राप्त किये हैं । अगर बात सत्य है तो फिर यह भी तय है कि पालिकाओं में भ्रष्टाचार का अकल्पनीय इजाफा तय है । चुनाव के बाद गाँव पालिका दांवपालिका और नगर पालिका कर पालिका बनेगा, और उसका पूरा खामियाजा जनता को भुगतना होगा । क्योंकि यह क्लियर कट हिसाब है कि करोडों के टिकट खरीदने बाले उम्मीदवार चुनावी मैदान में दारु, मांस और नास्ते खिलाने में, सारी, कपडे बांटने में और भोट के लिए पैसे देने में भी करोड़ों का खर्च करेगा । जानकारी यहाँ तक है कि उम्मीदवार लोग प्रति भोट दश से बारह हजार तक की लगानी कर रहे हैं । जब एक उम्मीदवार कोई दश करोड

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खर्च कर चुनाव जितेगा, वह नि:सन्देह अरबों की कमाई करेगा, जिसे व्यक्तिगत हम भ्रष्टाचार नहीं कह सकते । वह कमाई कहलायेगा । क्योंकि हर क्षेत्र में लोग जो लगानी करता है, वह कई गुणा ज्यादा कमाना चाहेगा । यह उसका प्रकृति है ।

भ्रष्टाचार की गति बढने का आधार यह खुल्लम खुल्ला है कि अगर किसी पार्टी का उम्मीदवार जीता, उसे उसके पार्टी द्वारा उस जिला या क्षेत्र में किये जाने बाले हर कार्यक्रम का आर्थिक बोझ उठाना पडेगा जिसमें पब्लिक बजेट का ही दुरुपयोग किया जायेगा । वैसे ही तकरीबन साल भर के अन्दर होने बाले संघीय और प्रादेशिक चुनावों में भी टिकट खरीद बिक्री, सांसद किनबेच, समानुपातिक उम्मीदवारों की दोहन थप आर्थिक संकट पैदा करना पक्का है ।

इसी आसन्न स्थानीय तह निर्वाचन के लिए नेपाल सरकार ने १९ देशों के सामने सहयोग के लिए हाथ फैलाया था । मगर किसी भी देश ने नेपाल को निर्वाचन में सहयोग करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई । कारण वे सारे देश कोरोना के कारण आर्थिक मन्दी के शिकार होने की बात है । आने बाले केन्द्रीय और प्रादेशिक चुनावों में नेपाल पून: वैदेशिक भिख मांगेगा । सारे निकाय वैदेशिक ऋण पर ही चल रहे नेपाल को अगर अगले चुनावों में वैदेशिक आर्थिक सहयोग और अनुदान न मिला तो वैदेशिक ऋण लेना तय है । आज भी हरेक नेपाली रु. ६०,०००/- के वैदेशिक ऋणी है । चुनाव ऋण के साथ प्रत्येक नेपाली का ऋण का दायरा बढना तय है । देश की आर्थिक अवस्था, कृषि और व्यापार घाटा, आयात में इजाफा, व्यक्तिगत और राष्ट्रीय ऋण, महंगाई, अनावश्यक कर के दायरे और बढते आधुनिकीकरण के मार में देश और जनता इतने संकटग्रस्त होंगे कि बिना कोई देरी नेपाल को श्रीलंका होना तय है । इसका अंदेशा भारतीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक विश्लेषकों ने महीनों पूर्व ही कर चुका है ।

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हालात अगर श्रीलंका सा हुआ तो यह भी निश्चित प्राय: है कि नेपाल भी भूखमरी और अस्थिरता का शिकार होकर महिन्द्रा राजपाक्षे के जैसे ही राजनीतिक और आर्थिक हालात निर्माण होगा । राजनीतिक व्यवस्था तक परिवर्तन होने तक का नौवत आयेगा । कई नेताओं की जाने जा सकती है ।‌ व्यक्तिगत सम्पतियों की आगजनी और बर्बादी भी संभव हो सकती है ।

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