मेरे इस जिस्म में, तेरा साँस चलता रहा, धरती गवाही देगी, धुआं निकलता रहा : अमृता प्रीतम
डा श्वेता दीप्ति
जन्मदिन विशेष
रिवाजों और रिवायतों को चुनौती देने वाली, अपनी शर्तों पर जीने वाली, जिन्दगी को नया रंग और नाम देने वाली, जिसने हर कदम पर एक नया मकाम बनाया, आज उस प्रिय लेखिका का जन्मदिन है .
तेरे रंगों में घुलती रहूँगी
या रंगों की बाँहों में बैठ कर
तेरे कैनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रूर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
31 अगस्त 1919 में पंजाब के गुजरावाला में करतार सिंह के घर अमृता का जन्म हुआ. पिता की वजह से घर में धार्मिक माहौल था. अमृता का पूजा-पाठ में मन नहीं लगता था. कम ही उम्र में माता की मृत्यु होने के बाद भगवान पर से अमृता का विश्वास उठ गया. इसके बाद पढ़ाई के लिए वो लाहौर आ गईं. उनके पिता को लिखने-पढ़ने का काफी शौक था जिसकी वजह से उन्हें भी यह आदत लग गई. कविताएं, कहानियां लिखना अमृता का शौक बन गया.
16 साल की उम्र में ही अमृता की शादी प्रीतम सिंह से हो गई थी. पेशे से प्रीतम सिंह लाहौर के व्यापारी थे. बचपन में ही दोनों परिवारों ने दोनों की शादी तय कर दी थी. लेकिन कुछ सालों के भीतर ही वो अपने पति से अलग हो गईं. पति से तलाक लेने के बाद भी उनके नाम के साथ जीवन भर ‘प्रीतम’ जुड़ा रहा.
अमृता प्रीतम ने अपनी रचनाओं में सामाजिक जीवन दर्शन का बेबाक, यथार्थ एवं रोमांचपूर्ण वर्णन किया है । जिस भी विषय पर उनकी लेखनी चलती है; उन विषयों पर उनके लेखन की गहराई एवं गम्भीरता नजर आती है । उन्होंने सामाजिक मान्यताओं पर न केवल यथार्थता से लिखा है, अपितु उसे तोड़ने का साहस भी किया है ।
भारत विभाजन की त्रासदी का दर्द भोगते लोगों का मनोवैज्ञानिक चित्रण हो या भारतीय नारियों की बदलती हुई छवि, उसकी सोच को सजीव अभिव्यक्ति दी है । उनकी रचनाओं में सारा मानव-समाज व उसका दर्द बोलता है ।
हिंदी-पंजाबी लेखन में स्पष्टवादिता और विभाजन के दर्द को एक नए मुकाम पर ले जाने वाली अमृता प्रीतम ने समकालीन महिला साहित्यकारों के बीच अलग जगह बनाई। अमृता जी ने ऐसे समय में लेखनी में स्पष्टवादिता दिखाई, जब महिलाओं के लिए समाज के हर क्षेत्र में खुलापन एक तरह से वर्जित था। एक बार जब दूरदर्शन वालों ने उनके साहिर और इमरोज़ से रिश्ते के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, दुनिया में रिश्ता एक ही होता है-तड़प का, विरह की हिचकी का, और शहनाई का, जो विरह की हिचकी में भी सुनाई देती है – यही रिश्ता साहिर से भी था, इमरोज़ से भी है……।
अमृता जी की बेबाकी ने उन्हें अन्य महिला-लेखिकाओं से अलग पहचान दिलाई। जिस जमाने में महिलाओं में बेबाकी कम थी, उस समय उन्¬होंने स्पष्टवादिता दिखाई। यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था।
भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के दर्द पर लिखी उनकी नज़्म आज आखां वारिस शाह नु तू कब्रा विच्चों बोल काफी प्रसिद्ध हुई. इस नज़्म ने दोनों देशों के बीच की खाई को पाटने का काम किया. लोग इस नज़्म को अपनी जेब में रखते थे और पढ़ते हुए अक्सर रोने लगते. पाकिस्तान में बनी एक फिल्म में इस नज़्म को फिल्माया भी गया था.
अपने विवाहित जीवन के दौरान उन्हें प्यार तो हुआ, मगर किसी और से। और हुआ भी तो उनसे जो खुद शब्दों से लोगों का दिल जीतने में माहिर थे। साहिर लुधियानवी, प्रीतम की पहली मोहब्बत। और मोहब्बत भी ऐसी थी कि लुधियानवी को दूर से देखना भर ही प्रीतम के लिए काफी था। मगर इतना टूट के प्यार करना लिखा भी तो उससे ही था जिसका मिलना तकदीर में नहीं था। हालांकि प्रीतम के लिए लुधियानवी का प्यार भी कुछ कम नहीं था, मगर ये सिलसिला कुछ ही समय का था, क्योंकि साहिर अपने और अमृता के रिश्ते को कोई नाम नहीं देना चाहते थे। पर प्रीतम ने उन्हें प्यार करना कभी नहीं छोड़ा, और उनकी याद को अपने दिल में बसा लिया।
आज़ादी से पहले ही अमृता प्रीतम की मुलाकात साहिर लुधियानवी से हो चुकी थी. दोनों की मुलाकात एक मुशायरे में हुई थी. अपनी पहली मुलाकात पर अमृता प्रीतम ने लिखा था, ‘प्रीत नगर में मैंने सबसे पहले उन्हें देखा और सुना था. मैं नहीं जानती कि ये उनके लफ्ज़ों का जादू था या उनकी खामोश नज़रों का जिसके कारण मुझपर एक तिलिस्म सा छा गया था.’
अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में अमृता लिखती हैं, ‘ये मेरे संस्कारों का ही दायरा था कि मैं साहिर से कभी अपने दिल की बात नहीं कह सकी.’ वो आगे लिखती हैं, ‘मैं साहिर के साथ घंटों बैठती. उस दौरान साहिर कई सारी सिगरेट पी जाते थे. उनके जाने के बाद में उन जली हुई सिगरेट को संभाल के रखती थी और उन्हें छूकर साहिर के स्पर्शों को महसूस करती थी.’
पहली मुलाकात में ही अमृता साहिर के प्रति आकर्षित हो गई थी. बंटवारे के बाद साहिर और अमृता भारत आ गए. अमृता दिल्ली आकर बस गई और साहिर मायानगरी बंबई(आज के मुंबई) चले गए. धीरे-धीरे मुलाकातों का सफर बढ़ता गया. दोनों की मुलाकातें मुशायरों में होने लगी. अमृता को साहिर से प्रेम हो गया था. इस रिश्ते के बारे में अमृता ने कभी कुछ छुपाया नहीं. जो था ज़माने को खुल कर बताया. उस दौर में यह सब करना उतना आसान नहीं था. अमृता अपनी बेबाक, ज़िद्दी छवि के कारण लोकप्रिय होने लगी थी.
अमृता के साथ होने के दौरान साहिर ने कई खूबसूरत नज़्में लिखी. साहिर द्वारा लिखी नज़्म ‘ताजमहल‘ काफी लोकप्रिय हुई. इस नज़्म को साहिर ने फ्रेम कराकर अमृता को भेंट की थी जिसे जीवन भर उन्होंने संभालकर रखा.
जितनी शिद्दत से अमृता साहिर को चाहती थी शायद ही, वो भी उन्हें उतना चाहते थे. दोनों के बीच दूरियां बढ़ने लगी. अमृता को लेकर साहिर भी काफी तनाव में थे. इसी दौरान उन्होंने अपनी नज़्मों की किताब ‘तल्खियां‘(1946) लिखी. जिसमें अमृता को ध्यान में रखकर कई सारी नज़्में लिखी. कई सालों बाद इन नज़्मों को बड़े पर्दे पर फिल्माया भी गया.
एक नज़्म में साहिर लिखते हैं, ‘तंग आ चुके हैं कश्मे-कशे जिंदगी से हम’. इस नज़्म को रफी साहब की आवाज़ में सुनते हुए आप साहिर के दुख को महसूस कर सकते हैं. अमृता से अलग होने पर साहिर एक नज़्म में लिखते हैं, ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों.’ जिस कारण कई सालों तक अमृता अवसाद में जीती रहीं. इसी दौरान उन्होंने अपने जीवन की सबसे दर्द भरी कविताएं लिखी.
आज हमने आसमान के घड़े से
बादल का एक ढकना उतारा
और एक घूँट चाँदनी पी ली
यह जो एक घड़ी हमने
मौत से उधार ली है
गीतों से इसका दाम चुका देंगे
साहिर से अलग होने के बाद उनको याद करते हुए अमृता प्रीतम ने ‘सुनेहड़े’ नाम से एक नज़्म लिखी. इस नज़्म को खूब प्रसिद्धि मिली और उन्हें इसके लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला.
इमरोज़ ने अमृता के जीवन में रंग भरा…
साहिर से अलग होने के बाद अमृता की मुलाकात एक दिन इमरोज़ से हुई. उस समय अमृता आकाशवाणी में उद्घोषक के तौर पर काम कर रही थी. इमरोज़ रोज़ अमृता को स्कूटर से दफ्तर छोड़ने जाते थे. रास्ते में अमृता उनकी पीठ पर कुछ न कुछ लिखती रहती थी. लिखा जाने वाला शब्द हमेशा साहिर का ही होता था.
इमरोज़ पेशे से चित्रकार थे. दोनों के बीच रिश्ता इस कदर बन गया कि ज़माना देखता ही रह गया. शानदार चित्रकारी के लिए इमरोज़ काफी प्रसिद्ध थे. अपने गांव से आने के बाद इमरोज़ दिल्ली में उसी कॉलोनी में रहने आए जहां अमृता रहती थी. इमरोज़ अपनी स्कूटर से अमृता को आकाशवाणी के दफ्तर छोड़ने जाते थे.
1964 में दोनों ने फैसला किया कि वो अब साथ रहेंगे. उस दौर में यह ऐसा कदम था जो समाज को चुनौती देने वाला था. लेकिन दोनों ने इसकी परवाह नहीं की. दोनों एक साथ नया समाज रच रहे थे.
सोचा कि अगर तू कहीं मिले
तो समुन्द्र की तरह
इसे छाती पर रख कर
हम दो किनारों की तरह हंस सकते थे
और नीची छतों
और संकरी गलियों
के शहर में बस सकते थे….
पर सारी दोपहर तुझे ढूंढते बीती
और अपनी आग का मैंने
आप ही घूंट पिया
2002 में अमृता ने इमरोज़ के नाम आखिरी कविता लिखी जिसका शीर्षक था, ‘मैं तुम्हें फिर मिलूंगी.’
मैं तुझे फिर मिलूँगी कहाँ कैसे पता नहीं शायद तेरे कल्पनाओं की प्रेरणा बन तेरे कैनवास पर उतरुँगी या तेरे कैनवास पर एक रहस्यमयी लकीर बन ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी मैं तुझे फिर मिलूँगी कहाँ कैसे पता नहीं या सूरज की लौ बन कर
या रंगों की बाँहों में बैठ कर
तेरे कैनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रूर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
अमृता प्रीतम की कविता की ये दो पंक्तियां उनके पूरे जीवन की कहानी को बयां करती है. उनकी मृत्यु होने पर इमरोज़ कहते हैं, ‘अमृता ने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं.’ वो कहते हैं, ‘हम जीते है कि हमें प्यार करना आ जाए, हम प्यार करते हैं कि हमें जीना आ जाए.’
जिस दौर में महिलाएं घर से बाहर निकल नहीं पा रही थी ठीक उसी समय अमृता प्रीतम समाज के बंधनों को तोड़ते हुए महिलाओं के लिए एक लीक बना रही थी. अमृता प्रीतम को अगर आज़ाद भारत की पहला नारीवादी लेखिका कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. अमृता लगातार महिलाओं के मुद्दों को अपनी लेखनी में उतारती रहीं और मुखर रूप से उनकी आवाज़ बनकर सामने आई.
अमृता प्रीतम की लेखनी उनका अपना जिया हुआ संसार था, उनका अपना अनुभव था. ऐसा अनुभव जिसकी साहिर ने नींव रखी थी और जिसे इमरोज़ ने अपने प्रेम से जीवन भर सींचा था.
अमृता अपने जीवन के आखिर तक इमरोज़ के साथ रहीं. 31 अक्टूबर 2005 में 86 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया. लेकिन अपने पीछे अमृता जो विरासत छोड़ गई हैं वो सदियों तक लोगों को याद रहेंगी. जब भी प्रेम की बात होगी, नारीवाद की बात होगी वहां अमृता प्रीतम को बड़े अदब के साथ याद किया जाएगा.
प्रस्तुत है अमृता प्रीतम की कविता- मुझे पल भर के लिए आसमान को मिलना था का कुछ अंश
मुझे पल भर के लिए आसमान को मिलना था
पर घबराई हुई खड़ी थी…
कि बादलों की भीड़ में से कैसे गुज़रूँगी…
कई बादल स्याह काले थे
ख़ुदा जाने—कब के और किन संस्कारों के
कई बादल गरजते दिखते
जैसे वे नसीब होते हैं राहगीरों के…
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मैं नहीं जानती थी कि क्या और किसे कहूँ
कि काया के अंदर एक आसमान होता है
और उसकी मोहब्बत का तकाज़ा…
वह कायनाती आसमान का दीदार माँगता है…
पितृसत्तात्मक समाज में, परिवार के पुरुष सदस्यों पर महिलाओं की आर्थिक-निर्भरता होती है, जिसकी वजह से वे अपने वजूद को पुरुषों के तले सीमित मानती थीं. अमृता प्रीतम ने समाज की नब्ज को कुशलता से पकड़ा और अपनी रचनाओं के जरिए उस जमी-जमाई सत्ता पर सेंध मारते हुए महिलाओं के मुद्दों को सामने रखा. जिन्हें हम उनकी किताब- पिंजर, तीसरी औरत और तेरहवें सूरज जैसी रचनाओं में साफ देख सकते है.