विश्लेषण चुनौती है संक्रमणकालीन न्याय-व्यवस्थापन
कुमार सच्चिदानन्द :गोरखा, फुजेल के कृष्ण प्रसाद अधिकारी प्रकरण से जुडÞे मामले में यहाँ के प्रमुख दलों के बीच जो राजनैतिक गतिरोध देखा जा रहा है, उसे संक्रमणकालीन नेपाल की राजनैतिक अवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता । प्रहरी द्वारा गिरफ्तार अभियुक्तों की रिहाई न होने तक एकीकृत नेकपा माओवादी प्रमुख सत्ता साझेदार काँग्रेस और एमाले के साथ वार्त्तर्ााें न बैठने और संसद तक अवरोध करने का निर्ण्र्ाालिया था । दूसरी ओर संवैधानिक व्यवस्था यह है कि अदालत में दायर कोई भी फोैजदारी मुद्दा निश्चित मापदण्ड के अभाव में सरकार वापस नहीं ले सकती । लगभग तीन वर्षपर्ूव सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को स्पष्ट रूप से निर्देशित किया था कि औचित्य के अभाव में निश्चित मापदण्ड के बिना मुद्दों को वापस नहीं लिया जा सकता । मुद्दा वापस लेने के मन्त्रीपरिषद् के निर्ण्र्ााके विरुद्ध दायर रिट पर अन्तिम फैसला देते हुए २०६८ माघ २५ गते रामकुमार प्रसाद साह और भरत प्रसाद उप्रेती के इजलास ने संयुक्त रूप से यह निर्ण्र्ाादिया था कि सरकार कानून के प्रावधान के अनुसार निश्चित मापदण्ड और आधार तय कर मुद्दा वापस लेने का निर्ण्र्ााअगर करती है तो ऐसा निर्ण्र्ाामान्य और निर्विवाद हो सकता है ।
दूसरी ओर माओवादियों का यह स्पष्ट आरोप है कि सरकार एक ओर द्वन्द्वÞकालीन मुद्दे को पुनर्जीवित कर षड्यंत्र की ओर अग्रसर है और आर्श्चर्यजनक ढंग से संसद में ‘सत्य निरुपण और मेलमिलाप विधेयक’ प्रस्तुत किया है । नेकपा माओवादी अपने कार्यकर्त्तर्ााें की रिहाई की माँग तो कर ही रहे हैं, दूसरी ओर यह भी कहा है कि अगर इन निर्दोष लोगों को नहीं छोडÞा जाता है तो वे परिवर्त्तन के पक्षधर दलों के साथ संयुक्त मोर्चा का निर्माण कर सडÞक और सदन में कडÞे संर्घष्ा के कार्यक्रम की घोषणा करेगा । एक तरह से यह टकराव की राजनीति है जो समय-समय पर यहाँ देखने को मिलता है । संसद का अवरोध तो हुआ ही दूसरी ओर नेकपा माओवादी के दोनों ही घटकों में आत्म-मंथन की प्रक्रिया जारी है और अनेक ऐसे दल भी हैं जो मौजूदा सरकार और संविधान सभा की दशा-दिशा देखकर स्वयं को उपेक्षित और असंतुष्टि महसूस रहे हैं । वे भी किसी न किसी रूप में मोर्चाबन्दी के मनोविज्ञान में हैं । अगर ऐसा होता है तो एक बात तो निर्विवाद है कि इससे न केवल संविधान निर्माण की प्रक्रिया प्रभावित होगी बल्कि उसकी स्वीकार्यता पर भी प्रश्नचिह्न लग सकता है । एक सवाल तो उठाया जा सकता है कि ये मुद्दे आज के नहीं हैं । आज जब सत्य निरुपण और मेलमिलाप विधेयक संविधानसभा के पटल पर है तो आनन-फानन में इन अभियुक्तों को गिरफ्तार करने का औचित्य क्या है –
आज यह समस्या जटिल रूप में हमारे सामने है । दो मूल्य हैं जो आपस में टकरा रहे हैं । आज यह परिस्थिति उलझी हर्ुइ है तो उसका जिम्मेवार हमारी राजनैतिक अदूरदर्शिता है क्योंकि माओवादियों को राजनैतिक मुख्यधारा में आए हुए लगभग आठ वर्षहो चुके लेकिन अब तक युद्धकालीन न्याय निष्पादन की जमीन नहीं बन पायी है । विस्तृत शांति समझौता और अन्तरिम संविधान के अनुसार संक्रमणकालीन न्याय को दो वर्षमें निष्कर्षपर पहुँचाने की बात तो थी लेकिन उसका प्रारम्भ बिन्दु सत्य निरुपण तथा मेलमिलाप आयोग तथा लापता व्यक्तियों की जँाच-पडÞताल सम्बन्धी आयोग सात वर्षबीतने के बावजूद नहीं बन सका है । लेकिन पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार वर्त्तमान सरकार ने विधेयक संसद में प्रस्तुत किया । विधेयक संसद में पंजीकृत कराने के साथ ही राष्ट्रीय और अंतर्रर्ाा्रीय स्तर पर इसका विरोध प्रारम्भ हुआ । कानून तथा न्याय एवं शांति तथा पुनर्निमाण मंत्री नरहरि आचार्य मानते हैं कि विधेयक का सही ढंग से अध्ययन बिना विरोध करने के कारण यह समस्या उत्पन्न हर्ुइ है । आम-क्षमादान को लेकर अन्तर्रर्ाा्रीय समुदाय भी इसका विरोध कर रहा है । उनका मानना है कि कहीं न कहीं शांति स्थापना न होने दे का यह षड्यंत्र है ।
डा. अंगराज तिमिल्सिना ने यह स्थापना दी है कि विश्व के विभिन्न देशों से प्राप्त अनुभव पर अगर हम ध्यान दें तो कहा जा सकता है कि सत्य निरुपण और मेल-मिलाप के सम्बन्ध में तीन तरह की धारणाएँ सामने आती है । पहली धारणा तो यह है कि शान्ति और प्रजातंत्र की स्थापना के बाद पर्ूव की घटनाओं की छेडÞछाडÞ न की जाए क्योंकि इससे समाज में अस्थिरता की स्थिति आ सकती है और उसकी सहिष्णुता भी भंग हो सकती है । जैसे सैनिक शासन से प्रजातंत्र में रूपान्तरित अर्जेन्टीना -सन् १९८३) और चिली -सन् १९९०) में पार्टियों में सेना से नजदीकी सम्बन्ध रखनेवालांे द्वारा सत्ता परिवर्त्तन के भय से वहाँ का सत्य निरुपण आयोग द्वारा विगत के जघन्य आरोपों को दण्ड से छुटकारा देने का उदारण विश्व के सामने है ।
दूसरा उदाहरण दक्षिण अफ्रीका जैसे देश के अनुभव पर हम दृष्टिपात करें तो अपराधियों पर कारवाई करने से अधिक महत्व निष्पक्ष और गहरे अनुसन्धान के द्वारा सत्य तथ्य का उद्घाटन कर जनता के समक्ष लाना और पीडिÞतों को अधिक राहत देने के प्रयोजन से सत्य और मेल-मिलाप आयोग बनाने का उदाहरण हमारे सामने है । दक्षिण अफीका के आयोग ने सात पुस्तकों में घटनाओं का विवरण तैयार किया था और उत्कृष्ट अनुसन्धान तथा खुली कार्रवाई कर सत्य तथ्यों को बाहर लाने में सफलता पायी थी । यही कारण है कि अन्तर्रर्ाा्रीय जगत ने दक्षिण अफ्रीका के सत्य और मेल-मिलाप को आदर्श उदाहरण के रूप में ग्रहण किया है ।
तीसरी धारणा यह है कि कि अगर द्वन्द्वकाल की घटनाओं को कानून के दायरे में न लाया जाए तो प्रजातंत्र के मुख्य आधार कानून के राज्य के मर्म पर आघात पहुँचता है । फिलीपिन्स के पर्ूव राष्ट्रपति कोराजोन अकिनो के शब्दों में कि मेलमिलाप को न्याय का साथ देना चाहिए क्योंकि इसके अभाव में यह चिरस्थायी नहीं होता । हम सभी शान्ति की कामना करते हैं किन्तु शान्ति-शान्ति के नाम जप से शान्ति नहीं प्राप्त होती । इसके लिए न्याय की प्रत्याभूति आवश्यक है । रुवाण्डा के सत्य और मेलमिलाप की प्रक्रिया को न्याय और मेलमिलाप की प्रक्रिया के रूप में ग्रहण किया जाता है । क्योंकि भविष्य में रुवाण्डा में नरसंहार और अमानवीय घटनाएँ न होने देने के लिए द्वन्द्व काल के मुद्दों को अन्तर्रर्ाा्रीय अदालत तथा राष्ट्रीय और स्थानीय अदालतों की कानूनी प्रक्रिया द्वारा इसका समाधान किया गया था ।
नेपाल के सर्न्दर्भ में सबसे बडÞी समस्या यह है कि यहाँ राजनीति इतनी ज्यादा होती है कि राष्ट्र की समस्याओं का समाधान खोजने से ज्यादा उसका राजनीतिकरण कर दिया जाता है । नेपाल के दस वषर्ीय द्वन्द्वकाल में लगभग तेरह हजार लोगों की मृत्यु हर्ुइ और लगभग एक हजार तीन सौ लोग लापता हैं । इस आँकडÞे की निष्पक्ष जाँच प्रस्तावित आयोग की सबसे बडÞी चुनौती है । सत्य निरुपण और मेलमिलाप आयोग का काम माओवादियों के राजनैतिक मुख्यधारा में आने के साथ-साथ होना चाहिए । अगर ऐसा होता तो शांति स्थापना में इससे अवश्य सहयोग मिलता । लेकिन इसमें अब तक लम्बा समय गुजर चुका है । द्वन्द्व से पीडिÞत लोगों का धर्ैय जबाब देने लगा है । इसलिए सरकार पर दबाब बढÞा है । अन्तर्रर्ाा्रीय शक्तियाँ इसलिए विरोध जतला रही है कि उन्हें डर है कि अगर आम माफी की व्यवस्था होती है तो इससे भविष्य में राजनैतिक हिंसा के मनोविज्ञान को बल मिलेगा । इसलिए मानवाधिकार के नाम पर वे सरकार को घेरने की मनःस्थिति में हैं ।
सामान्य स्तर पर भी इस बात को तो समझा जा सकता है कि संक्रमणकालीन न्याय नियमित अदालत, नियमित कानून और नियमित सिद्धान्त के द्वारा नहीं हो सकता । इसमें विगत के द्वन्द्व की एक-एक घटना को सामने लाकर प्रतिशोध लेने का काम भी नहीं हो सकता । लोकप्रचलित कानून का सहारा लेकर सभी को अपराधी सिद्ध करने और कारागार में डालने का काम भी नहीं किया जा सकता है । संक्रमणकालीन न्याय की र्सवमान्य प्रकृति और विश्वव्यापी मान्यता भी निश्चित नहीं है । हर देश के द्वन्द्व और संर्घष्ा की अपनी-अपनी प्रकृति और परिस्थितियाँ होती हैं, इसलिए Þद्वन्द्व का निष्पादन भी इसी अनुरूप होता है । इसलिए इससे से सम्बद्ध मामलों का निष्पादन हर देश में अलग अलग अन्दाज में होता है । कहा जा सकता है कि इसक मूल्य और मान्यता नेपाल के सर्न्दर्भ में ही विकसित होना चाहिए । संक्रमणकालीन न्याय व्यवस्थापन में सत्य का अन्वेषण, पीडिÞत को क्षतिपर्ूर्ति और भविष्य में इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो इस बात का प्रयास होना चाहिए ।
द्वन्द्व की जो सामान्य प्रवृत्ति है जिसमें एकपक्षीय रूप में जब व्रि्रोही पराजित होते हैं तो सम्पर्ूण्ा रूप से व्रि्रोहियों को जिम्मेवार माना जाता है । इसी तरह जब व्रि्रोही सत्ता कब्जा करते हैं तो सम्पर्ूण्ा रूप में इसका जिम्मेवार सत्ताधारी को बनाया जाता है । सामान्यतया इस तरह की हालात में संक्रमणकालीन न्याय व्यवस्थापन प्रतिशोधात्मक होता है । मगर नेपाल की स्थिति अलग है । यहाँ न तो नेकपा माओवादी ने सत्ता हस्तगत किया है और न ही उसे सरकार द्वन्द्वकाल में पराजित ही कर पाई । वे वार्त्तर्ााे द्वारा कुछेक अन्तर्रर्ाा्रीय शक्तियों की मध्यस्थता या समन्वय के उपरान्त मुख्यधारा में आए । इसलिए देश के प्रचलित दण्ड विधान के अनुसार इस काल की घटनाओं का न्याय व्यवस्थापन वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता । दूसरा पक्ष है यह कि जिन्होंने इस काल की ज्यादतियों को भोगा और झेला है, उनकी कटुता स्वाभाविक है । लेकिन इस न्याय निष्पादन में जितनी भी देर हो रही है, असंतोष का बढÞना स्वाभाविक है ।
एक बात तो दोनों ही पक्षों को स्वीकार करना चाहिए कि द्वन्द्वकाल में ज्यादतियाँ दोनों ही पक्षों से हर्ुइ है । इसलिए कठघरे में किसी एक पक्ष को ही खडÞा करना उपयुक्त नहीं है । आज जब देश युद्ध की काली छाया से निकल चुका है और शान्ति प्रक्रिया के दौडÞ से गुजर रहा है तो दोनों पक्षों को चाहिए कि वे सत्य को स्वीकार कर समाज के समक्ष एक सकारात्मक संदेश दे । शान्ति और मेलमिलाप के सम्बन्ध में विश्वविख्यात धर्मगुरु डेस्मण्ड टुटु जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका के पर्ूव राष्ट्रपति नेल्सन मण्डेला द्वारा गठित शान्ति और मेलमिलाप आयोग का नेतृत्व किया था, उनका कथन था कि ‘ क्षमा स्वार्थनिहित महानता मात्र नहीं, यह व्यक्तिगत स्वार्थ का ही सर्वोत्कृष्ट रूप है , क्योंकि क्षमादान की प्रक्रिया में घृणा और क्रोध दोनों ही भावनाएँ संलग्न होती है । इसलिए गलती करनेवाले को र्सार्वजनिक रूप से गलती को स्वीकार करना आवश्यक है । अन्यथा क्षमादान का कोई अर्थ नहीं है । ‘
यह एक सकारात्मक तथ्य है कि चिर-प्रतीक्षा के बाद लापता लोगों की जाँच-पडÞताल, सत्य निरुपण तथा मेलमिलाप आयोग की व्यवस्था के निमित्त विधेयक १२ गते, बैशाष को पारित हुआ । इस कानून के अनुसार सशस्त्र द्वन्द्वकालीन घटनाओं से सम्बधित सभी मुद्दों का निष्पादन विशेष अदालत के द्वारा होगा । इससे सम्बन्धित न्यायालय में विचाराधीन मुद्दे भी सत्य निरुपण आयोग के क्षेत्राधिकार में आने की विशेष व्यवस्था है । इस विधेयक के द्वारा द्वन्द्वकाल में लापता लोगों की खोज, गम्भीर मानवाधिकार उल्लंघन और मानवता विरुद्ध अपराध की घटना का सत्य निरुपण तथा मेलमिलाप के लिए अलग-अलग दो आयोग गठन करने का मार्ग प्रशस्त हुआ है ।
यह सच है कि आँसू की कोई कीमत नहीं होती । इसलिए उत्पीडÞन का अन्त होना चाहिए और अपराध की सजा भी मिलनी ही चाहिए । लेकिन सशस्त्र द्वन्द्व के सम्बन्ध में नेपाल की परिस्थितियाँ अलग हैं । आज अनेक ऐसे लोग राजनीति में प्रमुखता प्राप्त कर रहें जो प्रत्यक्ष रूप से द्वन्द्व के दौरान या तो सताए गए हैं या उनके निकटस्थ प्रभावित हुए हैं, ऐसे लोगों के कन्धे पर भी आज कठिन बोझ है क्योंंकि एक ओर उन्हें समय की म्ाँाग को देखते हुए सहिष्णुता अपनाने की अवस्था है दूसरी ओर अपना और अपने के उत्पीडÞन का दर्द भी उनके साथ है । फिर अन्तर्रर्ाा्रीय शक्तियाँ मानवाधिकार के नाम पर क्षमा और मेलमिलाप का विरोध कर रही है । कहीं न कहीं इस मुद्दे को जीवित रखकर नेपाल की राजनीति को कठघरे में रखना उनका उद्देश्य है । इसलिए सरकार और प्रस्तावित आयोग-दोनों के सामने यह चुनौती है कि इस समस्या का सम्यक् समाधान कर राष्ट्र में शांति स्थापित होने की दिशा में अपना योगदान दे ।