लोकतंत्र का उपहार:अभिव्यक्ति स्वतंत्रता पर प्रहार
डा. श्वेता दीप्ति :लोकतंत्र का सबसे बडÞा उपहार जनता के लिए यह होता है कि, इस तंत्र में जनता अपनी बात, अपनी भावना, अपने विचार व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र होती है । नेपाल के समाचार पत्र और मीडिया में इस महीने दो समाचार प्रमुखता के साथ छाए रहे । सामाजिक संजाल -फेसबुक) पर एक आम नागरिक द्वारा दिया गया कमेन्ट और सरकार के द्वारा व्यवस्थापिका संसद में पेश किया गया ‘अदालत अवहेलना सम्बन्धी विधेयक’ । पहली चर्चा कमेन्ट पर ही करें । आज का युग संचार और सामाजिक संजाल का है । आज की पीढÞी अपनी छोटी-सी-छोटी भावनाएँ फेसबुक पर शेयर करती है और यह एक ऐसा माध्यम है कि तत्काल एक बडÞी संख्या में लोग उससे जुडÞ जाते हैं । सप्तरी पोर्ताहा १ के अब्दुल रहमान ने एक ऐसी ही गलती -पुलिस की निगाह में) कर दी । उसने कमेन्ट दिया कि, ‘क्या सुधरना, अपनी ही चोरी की बाइक लेने के लिए पैसा देना पडÞा वह भी पचास हजार’ अब इस एक वाक्य पर ध्यान दें, तो इसमें न तो किसी व्यक्ति विशेष का उल्लेख है और न ही किसी पर प्रत्यक्ष आरोप । हाँ अगर इसमें कुछ है तो एक आम आदमी की पीडÞा । ये एक अब्दुल रहमान की पीडÞा नहीं है यह हमारे समाज की पीडÞा है । आप किसी भी क्षेत्र में चले जाइए आपका काम तब आसान हो जाता है जब आप कुछ र्’खर्च’ करते हैं । भले ही वह काम आपके अधिकार क्षेत्र का क्यों न हो, पर उसे आप आसानी से नहीं करवा सकते । सभी जानते हैं कि अपराध के मूल में कहीं-ना-कहीं पुलिस की भी मिलीभगत रहती है । खैर, इस विषय को अगर खंगाला गया तो बात बहुत लम्बी खींच जाएगी । अब्दुल रहमान को अपने एक कमेंन्ट के लिए बीस दिन तक कारागार में रहना पडÞा । सप्तरी के एसपी दिनेश अमात्य के निर्देशन में उसे नियंत्रण में लिया गया और पन्द्रह दिन के बाद उसे सप्तरी जिला अदालत में विद्युतीय कारोबार ऐन के अर्न्तर्गत मुद्दा चलाने के लिए हाजिर किया गया और अब यहाँ गौर करें तो पता चलेगा कि कानून और नियम के विषय में प्रहरी या सम्बद्ध अधिकारी को कितनी जानकारी है । अब्दुल रहमान को जब जिला अदालत में सोलह दिन पश्चात् हाजिर किया गया तो, पता चला कि विद्युतीय कारोबार ऐन अर्न्तर्गत मुद्दा चलाने का अधिकार जिला अदालत को है ही नहीं, यह अधिकार सिर्फकाठमांडू जिला अदालत को है । तत्पश्चात् उसे काठमांडू लाया गया जहाँ एक दिन के बाद उसे पाँच हजार की जमानत राशि पर रिहा कर दिया गया । अब सवाल यह उठता है कि जिस अपराध के लिए उसे पन्द्रह दिनों तक कैद में रखा गया और उसपर १ लाख रुपए का जर्ुमाना और पाँच वर्षसजा की मांग की गई थी उसे एक दिन में ही रिहाई कैसे मिल गई – कारण स्पष्ट है कि यह मामला संगीन नहीं था ।
दूसरी बात सामने आती है कि, क्या पुलिस व्यवस्था गरीब, पिछडÞी जाति या क्षेत्र के लिए नहीं है – आरोप प्रत्यारोप तो बडÞे-बडÞे लोग लगाते रहते हैं और वह खुले रूप में सामने आते भी हंै किन्तु उन पर कोई कानूनी कारवाई नहीं होती तो, एक सामान्य व्यक्ति के सामान्य से कमेन्ट पर उसे सजा क्यों – बीस दिन की मानसिक यातना जो उसने सही या उसके परिवार ने सही, उसकी भरपाई कौन करेगा – इस सर्न्दर्भ में जून २४ में कांतिपुर में प्रकाशित उज्ज्वल प्रर्साई के आलेख ‘पुलिस स्टेट’ की चर्चा मैं करना चाहूँगी । उक्त आलेख में प्रर्साई जी ने काफी संजीदगी के साथ कई संवेदनशील मुद्दों को उठाया है । पुलिस जो ज्यादती सामान्य जनता पर कर रही है आखिर उसके पीछे उनकी क्या मानसिकता है – सप्तरी का केस हो या अत्यन्त पिछडÞे क्षेत्र डोल्पा के निहत्थे नागरिक पर हुए प्रहार का हो । इस झडÞप में जो जानें गईं, कई घायल भी हुए आखिर उनकी क्या गलती थी – प्रर्साई जी ने सही लिखा है कि ये गैरन्यायिक हत्या और दमन का चरित्र विभेदकारी मानसिकता को जाहिर करता है ।
इसी सर्न्दर्भ में तुलानारायण जी के विचार भी पढÞने को मिले थे । आपने भी माना है कि, इन कार्यवाहियों के पीछे कहीं-ना-कहीं विभेदकारी मानसिकता और औपनिवेशिक प्रवृत्ति ही है । सप्तरी के रहमान और सिरहा के राजू की गिरफ्तारी के मूल में सिर्फसामाजिक संजाल पर लिखा गया कमेन्ट नहीं है, बल्कि राज्य संयत्र में मधेशियों का नगण्य वर्चस्व भी इसका कारण है । यह पहाडÞी और मधेशी के साथ-साथ नागरिक और राज्य के बीच का विषय है । इस सर्न्दर्भ में पर्ूव रक्षामंत्री शरत सिंह भण्डारी का वक्तव्य जो आप बार-बार कहते आए हैं कि, “पुलिस की बोली भी जगह के अनुसार परिवर्तित होती रहती है । यही पुलिस जब सिन्धुली के किसी थाने में कार्यरत होती है और वहाँ के किसी भारवाहक या फटेहाल मजदूर से बात करती है तो आदरपर्ूवक ‘दाई के काम थियो -‘ कहती है, पर वही जब मेरे जिला महोत्तरी में काला चेहरा और धोती कर्ुत्ता लगाए किसी फटेहाल मजदूर को देखती है तो, ‘कहाँ आइस – के छ तेरो -‘ जैसे अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करती है ।” का उल्लेख समय सापेक्ष होगा । इसलिए यह शासक और शासित के बीच के मनोविज्ञान की समस्या है ।
नेपाली समाज और राज्य के बीच निरन्तर द्वन्द्व बढÞता जा रहा है । राज्य पर से सामान्य नागरिक का भरोसा घटता जा रहा है । विश्लेषक सी. के लाल के शब्दों में, “लोकतान्त्रिक व्यवस्था में नागरिक और राज्य बीच के सम्बन्ध कुछ लिखित और उससे अधिक प्रचलित अनुबन्ध में आधारित होते हैं । राज्य और नागरिक के अनुबन्ध का आधार नागरिकता एवं मताधिकार है । इसका प्रयोग कर के नागरिक सरकार को मान्यता देती है एवं सम्बन्ध नवीकरण होता रहता है । राज्य नागरिक को कहता है, तुम मेरा कानून मानो, मुझे हथियार का एकाधिकार दो । इसके बदले राज्य तुम्हें तीन तरह की सुविधा देगा । सुरक्षा, सेवा और सम्मान ।” किन्तु इन तीनों बातों को अगर मधेश के परिवेश में देखा जाय तो दिन प्रतिदिन की हत्या, अपहरण और ज्यादती की घटना स्वयं जाहिर कर देती है कि कितनी गहर्राई से और कहाँ लागू हो रही हैं ।
ऐसा नहीं है कि पुलिस ज्यादती सिर्फमधेश में ही होती हैं, पर यह तो जानी हर्ुइ बात है कि असक्षम पर इनकी ज्यादती ज्यादा होती है । उनकी फरियाद या समस्या को सुनने का समय इनके पास नहीं होता और नहीं उनके समाधान हेतु ही ये तत्पर होते हैं ।
दूसरा मुद्दा जो इस महीना चर्चा में रहा और जो अब तक चर्चा का विषय बना हुआ है वह है ‘अदालत अवहेलना विधेयक’ । इसका र्सवव्यापक विरोध खुलकर सामने आ रहा है । अदालत के कथित अवहेलना रोकने के नाम पर कानून तथा न्यायमंत्री नरहरि आचार्य ने जो विधेयक व्यवस्थापिका संसद में पंजीकृत कराया है वह संविधान प्रदत्त प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध है । उक्त विधेयक में अदालत की अवहेलना के सम्बन्ध में न्यायाधीश अगर स्वयं जानकारी लेता है या उसका ध्यानाकर्षा कराया जाता है तो, सम्बन्धित व्यक्ति को एक वर्षकैद या दस हजार रुपए या फिर ये दोनों ही सजा हो सकती है । इस प्रावधान में न्यायाधीश स्वयं भी पर्ुजा देकर सम्बन्धित व्यक्ति के ऊपर केस कर सकता है और सजा सुना सकता है । ऐसी व्यवस्था जंगी कानून में पाई जाती थी । विरोधियों को समाप्त करने के लिए पर्चा खडÞा करने का प्रचलन था । राणाकाल और पंचायत काल में प्रचलित ‘पर्चा प्रथा’ जो आज के इस अवहेलना सम्बन्धी विधेयक की प्रकृति का ही था, उसे बहुदलीय व्यवस्था पुनः स्थापित होने पर हटा दिया गया था । स्वयं आरोप लगाना और स्वयं फैसला करना ज्ञानेन्द्रकालीन शाही आयोग शैली की पुनरावृत्ति और लोकतान्त्रिक अधिकार हनन का कहीं पर्ूव संकेत तो नहीं है –
नेपाल पत्रकार महासंघ के अध्यक्ष ने चेतावनी दी है कि अगर यह विधेयक वापस नहीं लिया गया तो आन्दोलन किया जाएगा । इसी तरह अन्तर्रर्ाा्रीय पत्रकार महासंघ ने भी इसका विरोध किया है । आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्सस्थित अपने प्रशान्त क्षेत्रीय कार्यालय द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि, “प्रेस स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता लोकतन्त्र के अखण्डनीय तत्व हैं । आज जब नेपाल में आम संचार और लोकतन्त्र परिपक्व होने की अवस्था में है, तो उस समय एक ऐसा कानून जो मौलिक अधिकार का हनन करता हो, लाने का क्या औचित्य है – प्रस्तावित विधेयक मानव अधिकार के अन्तर्रर्ाा्रीय अधिकार के माप दण्ड के अनुसार नहीं है इसलिए या तो इसे खारिज करना होगा या फिर संशोधन करना होगा ।”
नेपाल बार एसोसिएसन के उपाध्यक्ष टीकाराम भट्टर्राई ने भी संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार को सरकार द्वारा हनन करने पर आपत्ति जताई है । उन्होंने कहा कि “संविधान से बाहर जाने का अधिकार किसी को नहीं है । विधेयक में नागरिक के मौलिक अधिकार को कुंठित करता है इसलिए जब तक इसमें संशोधन नहीं होता इसे पास नही किया जाना चाहिए ।”
कानून विद् हरिफुयाल ने भी विरोध जताते हुए माना कि, “विचार और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता के विपरीत इस विधेयक को किसी भी हालत में पारित नहीं किया जा सकता ।”
ऐसा लगता है कि न्यायालय के भीतर जो विकृति और अस्वाभाविक प्रक्रिया हो रही है और उसके विरुद्ध जनसाधारण की जो आवाजें उठ रही हंै, यह विधेयक उस आवाज पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए लाया जा रहा है । एक ओर जहाँ न्यायालय जैसी पवित्र जगह पर अनियमितता और अधिकार दुरुपयोग पर नियंत्रण करने की माँग हो रही है वहीं दूसरी ओर इन्हीं प्रवृत्तियों को बढÞावा देने और गलत निर्ण्र्ााके पुष्टि हेेतु ऐसे विधेयक को लाया जा रहा है । अभी हाल में अदालत द्वारा दिए गए निर्ण्र्ााने जनमानस को विचलित किया है मसलन सोने के तस्कर के आरोपी को रिहा करना, दो अरब घोटाला करने वाले को रिहा करना और इस पर कैफियत पूछने वालों पर अवहेलना कानून के तहत कारवाही करना आदि । प्रश्न ये उठता है कि क्या ऐसे निर्ण्र्ााें पर मीडिया, समाचार पत्र या सामाजिक संजाल पर विचार व्यक्त किए जाते हैं तो, उन पर पाबन्दी लगनी चाहिए – लोकतान्त्रिक देश में अदालती निर्ण्र्ााऔर आदेश के प्रति जिज्ञासा करने का और जानकारी लेने का अधिकार जनता और संचार माध्यम दोनों को है । अगर यह अधिकार नहीं हो तो जनता निरंकुश नहीं होती है, एक पूरा तंत्र निरंकुश होता है । क्योंकि सैन्य शासित या अधिनायकवादी देश में ही सवाल पूछने का हक नहीं होता है, वहाँ न्यायालय शासक के हाथों में होता है । किन्तु लोकतंत्र में तो यह जनता का मौलिक अधिकार है, यहाँ जनता पूछती भी है और शासन और शासक को जवाब भी देना पडÞता है ।
न्यायालय का सम्मान और उस पर आस्था रखना प्रत्येक नागरिक की जिम्म्ेदारी है पर इसके लिए अदालत और न्यायकर्मी को भी तो सचेत और्रर् इमानदार होना पडÞता है । सरकार की भी यह जिम्मेदारी होती है कि वो कैसे न्यायपालिका की छवि और स्थिति को सुधार कर सकती है । पिछले दिनों सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश नियुक्ति प्रकरण में जितने नाटक हुए वो सरकार की नीयत पर भी सवाल खडÞा करते हैं । अदालत की अवहेलना संचार माध्यम, पत्रकार या आम जनता नहीं कर रही है इसकी जडÞ कहीं ना कहीं सरकार और अदालत के भीतर ही है । किसी भी विधेयक को लाने के लिए एक गहन गृहकार्य की आवश्यकता होती है । कानून मंत्रालय ने विज्ञप्ति जारी कर के स्पष्टीकरण दिया है कि अवहेलना सम्बन्धी विधेयक इसके पहले के संविधान में ही तैयार हुआ था । २०६७ पूस १९ गते उक्त विधेयक संसद में पंजीकृत हुआ था जिसे वर्त्तमान सरकार ने ज्यों का त्यों पेश किया है । उक्त विधेयक चार साल के बाद पेश करने के पीछे आखिर क्या मंशा है – क्या इसे पेश करने से पहले इस पर फिर से दृष्टि डालने और इसके औचित्य को देखने की आवश्यकता नहीं थी – अदालत की अवहेलना और न्यायाधीश की सुरक्षा कवच के रूप में आया यह विधेयक क्या निरंकुशता को बढÞावा नहीं दे सकता – इन सारे सवालों पर विचार और पुनर्विचार की आवश्यकता है । इसके बिना ऐसे विधेयक को पारित करना अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की हत्या है ।
लेकिन ऐसे भी हैं न्यायाधीश
यह पूरा महीना अदालत, न्याय और न्यायाधीश के र्इदगिर्द घूमता रहा । औचित्य, अनौचित्य की बातें उठती रहीं । ऐसे में एक सुखद और देश को गौरवान्वित करने वाली इस खबर ने मन को शांति दी । ललितपुर जिला न्यायाधीश टेकनारायण कुँवर न्यायसम्पादन के लिए अमेरिकी सरकार द्वारा सम्मानित हुए हैं । अमेरिकी विदेश मंत्री जान केरी ने उन्हें मानव व्यापार रोकथाम के लिए न्यायालय में रहकर ही उत्कृष्ट काम करने के लिए २०१४ हीरो एक्टिंग टू इन्ड मोर्डन सेलिभरी अवार्ड दिया है । अमेरिकी विदेश मंत्रालय विश्वभर के विविध क्षेत्र में उत्कृष्ट काम करने वालों को यह सम्मान देता आया है । न्यायिक क्षेत्र से यह सम्मान प्राप्त करने वालों की संख्या कम ही है । टेक नारायण कुँवर पहले नेपाली नागरिक हैं जिन्हें यह सम्मान मिला है ।