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धर्म का धर्म एवं जीवन धर्म vs धर्म युद्ध और जीवन युद्ध : कैलाश महतो

कैलाश महतो, परासी । नेपोलियन हिल कहते हैं, “ईसाई धर्म आज दुनिया में सबसे क्षमतावान शक्ति है, क्योंकि इसके संस्थापक एक गहन स्वप्नदर्शी रहे, जिनके पास वास्तविकताओं को भौतिक रुप में बदलने से पहले उन्हें उनके मानसिक और आध्यात्मिक रुपों में देखने की दृ्ष्टि और कल्पना शक्ति दी थी ।”
वैसे हम‌ किसी धर्म के पक्षपोषक या विरोधी नहीं हो सकते । मगर नेपाल लगायत के कुछ हिन्दु बाहुल्य देशों में जो धार्मिक उन्माद और उहापोह की स्थिति है, उससे कालान्तर में समाज को दुर्घटनाओं से सामना करने की स्थिति पक्की है ।
कृष्ण जन्माष्टमी और हिन्दु धर्म को‌ लेकर नेपाली एक इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने हिन्दु एक सन्त मठाधिश का अन्तरवार्ता लिया है । अन्तरवार्ता में हिन्दु सन्त ने भगवान कृष्ण और गीता उपदेश का वृहत चर्चा के साथ हिन्दु धर्म रक्षा पर जोड देने की बात कही है । समझने बाली बात रोचक यह है कि पत्रकार और सन्त साहब दोनों ने इस सत्य ‌के ठीक उल्टा कि धर्म में राजनीति लगाने का षड्यन्त्र किया है, न कि राजनीति में धर्म‌ होने पर जोड दिया है ।
ऐतिहासिकता को ही मानें तो हिन्दु कोई धर्म ही नहीं है ।‌ यह केवल एक सौम्य सभ्यता और सभ्य सत्ता है ।‌ जानकारों के अनुसार “हिन्द” या “हिन्दु” शब्द भी हमारा नहीं है ।‌ यह पूर्णत: यूनानियों का शब्दोच्चारण है, जिसे उन्होंने उच्चारण नहीं कर पाकर “सिन्ध” और “सिन्धु” को “हिन्द” और “हिन्दु” कह गये । समय क्रम में यूनानी आक्रान्ताओं का सिन्ध में राजनीतिक वर्चस्व कायम हुआ और “सिन्ध” “हिन्द” हो गया । उसी उच्चारण से “हिन्दु” और “हिन्दी” होने का इतिहास विराजमान है ।
स्वाभाविक है कि जब किसी जगह पर किसी बाह्य का सत्ता कायम होता है, तो वह अपने अनुसार के राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक सत्ता भी कायम करता है । हुआ यही है “सिन्ध” घाटी सभ्यता के साथ । दर असल जो वास्तविक “सिन्ध” सभ्याता और सत्ता रही थी, विदेशी आक्रान्ताओं ने उसे दबोचकर दफना दिया और नया अपना दबदाबा कायम‌ किया, जो आज पर्यन्त कायम‌ है । उसमें हो सकता है कि हमारे पूर्खे भी सामेल रहे हों ।
अन्तरवार्ता में सन्त ने जो भी कहा है, वह सब गीता, वेद और पूराणों के सन्दर्भों से कहा है । स्मरण हो कि गीता, वेद, पूराण, रामायण, हनुमान चालिसा, लक्ष्मी, दुर्गा और सरस्वती चालिसा, महाभारत, सुखसागर, आदि सब तकरीबन सात आठ सौ वर्षों के अन्दर लिखे गये हैं । उससे पहले समाज में लोग कथा, कहानी, किवदन्तियां, जनश्रुतियां, ब्यालेड्स, कुछ पौराणिक सिलालेखों, आदि के अनुमानित आधार पर जीवन यापन, व्याख्या और विश्लेषण करते थे । इतिहास तो यही कहता है कि कागज का निर्माण भी आज से तकरीबन‌ तीन हजार साल पहले हुआ था । इसमें खास ध्यान देने बाली बात यह है कि कागज और कलम जिनके हाथ में पडा, उसने अपने ढंग से संसार का चित्रण कर दी । पुरुषों ने जो कुछ भी लिखा, उसमें उसने अपने व्यक्तित्व, परिवार, समाज और लिङ्ग को महत्ता दिया । उस समयतक राजनीतिक तिकडमबाजी चरमपना को छू लिया था । लिखाई में भी राजनीति न होना अस्वाभाविक माना जायेगा । वही कागज और कलम अगर स्त्रियों के हाथ में पडते, तो वो स्त्री/महिला राजनीति को स्थापित कर अपने वर्ग को प्रधान बना लेती । कोई दलित लिखने को पाता, तो दलित का अर्थ सबसे उच्च जात लिख लेता । किसी आदिवासी द्वारा कोई ग्रन्थ लिखा जाता, तो वह अपने सर्व श्रेष्ठ कह लेता ।
धर्म का आजतक का जो परिभाषा है, अपने आप में पूर्वाग्रही और दुष्टता से परिपूर्ण है । धर्म को अगर विग्यान माना जाय तो विग्यान किसी के लिए कभी भी दोधर्मी काम नहीं करता, जितना हामारा धर्म करता है । धर्म के नाम पर ठेकेदारी करने बाले लोग अपने को पालता है और दूसरे को जीने के लिए भी मुसीबत पैदा करता है । हर मठ, मस्जिद, चर्च और मन्दिर के पुरोहित, पण्डा, पुजारी, मौलवी और पादरियों को देखें तो जनता को लूटकर/चुसकर दश लोगों से भी उठा नहीं सकने बाला पालतु वदन बनाया होता है, वहीं दुनिया के लिए मेहनत करने बाले किसान, मजदूर, दलित, जनजाति, गरीब, आदि मांसरहित शरीर के रोगी, नंगे, फटेहाल और बदनसीब दिखते हैं । क्या धर्म यही सिखाता है कि दुनिया को लूटकर अपने और अपने परिवार, समाज को पालो और दूराग्रही रक्षकों का दलाली करो ?
धर्म के नाम पर एक महा विवाद खडा यह किया जा रहा है कि नेपाल में क्रिष्चियन धर्म का प्रचार प्रसार और अवलम्बन धडल्ले से हो रहा है । लोग क्रिष्चियन धर्म अपनाकर अपने सनातन धर्म को छोड रहे हैं । यह चिन्ता की बात है । यहां इस बात पर भी धर्म ठेकेदारों से ज्यादा समान्यजनों को विचार करने की बात है कि क्रिष्चियन धर्म कोई नये भर्जन का मोबाईल, रेडियो, गाडी या लिवास तो नहीं है कि लोग उसके तरफ अनाहक आकर्षित हो रहे हैं ? प्रश्न है कि आखिर लोग आज क्यों किसी विदेशी धर्मों के प्रति जागरुक, आकर्षित और झुकाव रख रहे है ? सौ साल पहले क्यों नहीं हुआ ऐसा ? कारण है उसका ।
कारण यह है कि हिन्दु, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, कबीर, यहुदी या बौद्ध धर्मों से पहले जीवन धर्म आता है । आध्यात्म भी बाद में आता है । पहले जीवन आता है, जीवन का अस्तित्व आता है । अस्तित्व और जीवन नहीं, तो धर्म और आध्यात्म का कोई जड नहीं हो सकता । दुनिया के जितने भी धर्म हैं, वे कोई धर्म नहीं – जीवन दर्शन है । दर्शन (Phylosophy) के लिए भी जीवन अनिवार्य शर्त है । क्योंकि उन दर्शनों और धर्मों को भी किसी स्वस्थ दिमाग ने रचा है । जीवित और संरक्षित लोगों ने बनाया है, कंगाल और असुरक्षित लोगों ने नहीं । इसिलिए मार्कस् कहते हैं, “गरीब का कोई धर्म नहीं होता । उसका धर्म केवल पेट और आवश्यकता पूर्ति होता है ।” मार्क्स तो यहांतक कहते है कि गरीब का अपना कोई देश भी नहीं होता है । उसका तो देश भी वही है, जहां उसे काम मिल जाये और पेट चल जाये ।
धर्म का डंका बजाने बालों को कमसे कम इतना तो स्वीकार करना ही चाहिए कि जिस धर्म का वो चर्चा करते हैं, उसी धर्म ने यह भी कहा है कि “भूखे पेट न होई राम गोपाला ।” फिर तो जिस धर्म से लोगों का पेट चलेगा, जीवन बचेगा और उन्नति का मार्ग मिलेगा, वो तो उसी धर्म को मानेंगे और अपनायेंगे । उसके लिए वही धर्म काम क्यों नहीं करता जो अपने अस्तित्व को बचाने के लिए मेसोपोटामिया, बेबिलोन, इरान, इराक, यूनान, आदि स्थानों से हिन्दुस्तान होते हुए नेपालतक आ गये ? पहाडों को छोड मधेश को हडप खा गये !
जिस धर्म ने आदमी को इंसानतक होने पर रोक लगाता रहा, उसका विकास, शिक्षा-दीक्षा पर रोक लगाता रहा, छुवाछुत करता रहा, नीच ऊंच मानता रहा, मन्दिरों में प्रवेश पर रोक लगाता रहा, कुत्ते से भी बद्तर किसी समाज विशेष को मानता रहा, जीवन के हर उस मोड से उसे रोका जाता रहा जहां से वह आगे बढ सकता था – वह और वो समाज उस धर्म को क्यों मानेगा ? उस धर्म को स्वीकारने में‌ क्या बुराई है जहां एकता, समानता, समृद्धि, रोटी और आत्म सम्मान मिले ?
मुसलमान भी अपने मस्जिदों में प्रवेश पर अन्य धर्मावलम्बियोंं को उतने शख्ती से नहीं रोकते, जितना हिन्दु धर्मान्धों ने अत्याचार किया है । जात जात में समाज को बांटना, अपने को भगवान का प्रतिक या पुत्र मानना एक तरफ रहा तो वहीं दूसरी तरफ यह भ्रम बोया जाता रहा कि हम‌ ईश्वर के सन्तान हैं । हम‌ सब समान हैं । यह छल कबतक कोई सहेगा ? हिन्दुत्व से बाबा साहब जैसे प्रबुद्ध ने क्यों विदाई ले ली ? इस पर चिन्तन क्यों नहीं होता ?
हिन्दु धर्म के कुछ लठैत लोग अब लाठी, भाला और हथियार लेकर धर्म रक्षा के लिए निकल पडे हैं । वो अपने धर्म रक्षा के लिए हिंसा कर सकते हैं, मगर उस धर्म से प्रताडित लोग अपने जीवन धर्म को बचाने का उपाय नहीं करेंगे ? कोई किसी धर्म के रक्षा के लिए नहीं, अपने निहित स्वार्थ और परिवारिक पेट रोजगार के रक्षा के लिए कर रहे उपायों से ज्यादा और कुछ नहीं है । कोई किसी का मोहरा बनकर अपना पेट, राजनीति और दांव खेल रहा है, तो कोई अपने आय की विरासतों को कायम रखने के लिए ।
बात यहांतक आ गयी है कि बहुसंख्यक पूराने विरासतों को कायम रखने के मनसुवे बाले और कुछ दिमाग से अपाहिज उन समाजों के लोग भी उनके चक्कर में पडे दिख रहे हैं, जिनके बाप दादों से लेकर आजतक वे विरासती लोग सोलकन, शुद्र, दलित, अछुत, गोवार, अहीर, बहीर, नीच और पतित कहता रहा । कहा यह जाता है कि हिन्दु धर्म खतरे में है । इसे बचाना होगा । सवाल पूछा जाना चाहिए कि ईश्वर के पुत्र और सर्व श्रेष्ठ आत्मिक हाथों और नेतृत्वों में रहे हजारों हजार साल के धर्म को तो दुनिया में छा जाना चाहिए था, सुरक्षित और विकसित हो जाना चाहिए था तो उलटे खतरे में आ जाना तो दुविधा पैदा करता है । अब फिर उसी दलित, अहीर, गोवार, अछुत और नीच लोगों से यह कहा जाना कि तुम हिन्दु हो और इसे बचाना तुम्हारा दायित्व बनता है – बहुत बडा शंका और षड्यन्त्र मालूम होता है ।
आजकल गाय को माता और गोरु (बैल) को अन्नदाता का सहकर्ता भी कहा जाने लगा है । गायों की रक्षा हर हाल में होनी चाहिए । मगर उसके ऐवज में हम बकरी, भेंड, मूर्गा/मुर्गी, भैंस/भैंसी, हरिण, आदि को अपना खाना का साधन कैसे मान सकते हैं ? राजा रवन्तीदेव के राज्य काल में हिन्दु धर्मान्धों ने ही तो अश्वमेघ यग्य के दौरान लाखों गायों की हत्या करते थे, उन गायों का मांस खाया जाता था ।‌ उसका विरोध तो महात्मा बुद्ध ने किया था ।‌ अभियानी आन्दोलन चलाया, लोगों में चेतना फैलाया और फिर इस पर रोक लगाया । उसी बुद्ध को इन्होंने नापसन्द की । क्योंकि इनकी रोजीरोटी संकट में आ गई थी । फिर बुद्ध के लाखों अनुयायियों को भारत खण्ड से हथियार के दम पर खदेडकर भगाया । भारत उसी गोबर पूजा, जानवर पूजा, सांप और छुछुन्दर पूजा में रह गया और वो देश समृ्द्धि के गगन को चुमने लगे, जहां बुद्ध के भक्त पहुंचे । भारत फकीर, गुलाम, असहाय, दीनहीन और मजदूरों का देश कायम रहा और बुद्ध और जिसस को मानने बालों ने न्यूटन,  मारकोनी, थोमस अल्बा एडीसन, ग्यायलिलियो, कोपरनिकस, आइन्सटाइन, बिल गेट्स, मार्क जुगर, एलन मस्क, नेपोलियन हिल, चर्चिल, देङ्ग, चे ग्वेभारा, फिडेल क्याष्ट्रो, माओत्से, मण्डेला, शेक्सपिअर, जोन मिल्टन जैसे बुद्ध और प्रबुद्ध व्यक्ति पैदा कर दिए और नेपाल में लूटेरा, अपराधी, विभेदी पृथ्वी नारायण शाह, जंङ्ग बहादुर, महेन्द्र, मातृका, बीपी, जीपी, ओली, प्रचण्ड और देउवा जन्मा दिए, जो अपने देश के नागरिक, भूमि, वन, जंगल, पानी और जवानी बेच दिए ।
अन्तरवार्ता में सन्त जी ने कृष्ण का भगवत्ता का उदाहरण देते हुए कहा कि उन्होंने सोलह हजार स्त्रियों के साथ रास लीला की तो क्या हुआ, उन्होंने तो मानव कल्याण के लिए क्रुद्ध अग्नि को भी पी गया था न ! हम कृष्ण के महिमा या अन्य बातों पर टिप्पणी करने से बचना चाहेंगे । मगर यह तय है कि कृष्ण एक कला है, जो जीवन को सौम्य और सुन्दर बनाता है । कृष्ण का अर्थ ही उल्लास और तरंङ्गित होता है । राम का अर्थ है – जो सबमें रम सके और सबको अपने में रमा सके । वे भगवान थे । महामानव थे । मगर ईश्वरव नहीं थे । उन सबको नमन और प्रणाम् ।
किसी विशेष समूह के बहकावे में पडने बाले समान्यजनों को यह समझना जरुरी है कि धर्म के महामहिमों से यह पूछ लें कि मानव कल्याण के लिए भगवान शंकर ने समुन्द्र मन्थन से निकले विष को सेवन कर गये, राम ने अपने राज्य सत्ता को छोड जंगल चल दिए, परसूराम ने अपने माता की गर्दन काट ली, कृष्ण ने क्रुद्ध अग्नि को पी लिए और बुद्ध ने तपस्या स्वीकार लिए । उन्हीं ब्रम्हा, विष्णु, महेश, परशुराम, राम और कृष्ण को मानने बाले, अपने को भगवान के अंश कहने बाले धर्म के पहरेदारों ने समाज का भाग बण्डा क्यों कर दिए ? उनका शोषण, दमन और दोहन क्यों किए ?
सवाल समान्य बनता है कि न्यायी भगवान के सपूतों ने अपने को धर्म, संस्कृति, भाषा, शिक्षा, समाज, राजनीति और अर्थ नीतियों एकल सत्ताभोगी और अन्य समुदायों को नीच और सेवक क्यों बना लिए ?
भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोपषद् के मार्फत पवित्र घरती आगमन दिवस पर दत्तचित्त नमन और सौहार्दपूर्ण प्रार्थना ।
धर्म के ठेकेदारों ने हमारे यहां जो अन्याय और अत्याचार फैला रखे हैं, उसके अन्त खातिर श्रीकृष्ण से अपने “यदा यदा ही धर्मस्य……युगे युगे” को चरितार्थ करें, पून: प्रयोग करें ।



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