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जनता के लिए नहीं, नेताओं के लिए संघीयता ! : लिलानाथ गौतम

लीलानाथ गौतम, हिमालिनी अंक अप्रैल, 2024 । संसद् में किसी भी पार्टी का एकल बहुमत नहीं है । इसीलिए दो या दो से भी अधिक राजनीतिक पार्टियों की सरकार हमारी बाध्यता है । परिणामतः एक साल में यहां तीन बार सरकार परिवर्तन हो चुका है । आश्चर्य की बात तो यह है कि जब संघीय सरकार में सत्ता गठबन्धन परिवर्तन होता है, प्रदेशिक सरकार में भी भूचाल आ जाता है । संघीय सरकार में जिन पार्टियों का गठबन्धन बनता है, प्रदेशों में भी उनका ही गठबन्धन बनाने का प्रयास होता है । इसके लिए केन्द्र से जबरदस्त हस्तक्षेप किया जाता है, जो संघीय राज्य के मर्म के विपरीत है । हां, संघीय सरकार के अनुसार जबरदस्त प्रदेश सरकार भी बनाना है तो संघीयता का मतलब ही क्या है ? प्रदेश सरकार निर्माण के लिए केन्द्र से हस्तक्षेप करना केन्द्रीकृत मानसिकता है, जो संघीयता को ही बदनाम और विकृत बना रही है ।



वैसे तो संघ में होनेवाला संसदीय अभ्यास ही विकृत बन चुका है । उदाहरण के लिए वर्तमान संसद्, सरकार और राजनीतिक अभ्यास को ही देख सकते हैं । संसद् में ३२ सीट (११.६४ प्रतिशत) प्राप्त कर तीसरे स्थान पर नेकपा माओवादी केन्द्र है, उसके नेतृत्व में ही सरकार है । ८९ सीटों (३२.३६ प्रतिशत) के साथ प्रथम स्थान में रहनेवाली नेपाली कांग्रेस प्रमुख प्रतिपक्षी दल के रूप में है । ७८ सीटों (२८.३६ प्रतिशत) के साथ दूसरे स्थान पर नेकपा एमाले है, जो आज सरकार को समर्थन कर रही है । एक महीने पहले तक एमाले प्रमुख प्रतिपक्षी दल के रूप में था । विगत एक साल से माओवादी केन्द्र के अध्यक्ष पुष्पकमल दाहाल ‘प्रचण्ड’ प्रधानमन्त्री हैं । लेकिन इस अवधि में उन्होंने तीन बार सत्ता गठबंधन में परिवर्तन किया है । पहली बार प्रचण्ड नेकपा एमाले की सहयोग में प्रधानमन्त्री बने थे । प्रधानमन्त्री बनते ही (दो महीने की अवधि में) उन्होंने सत्ता गठबंधन परिवर्तन किया, एमाले को सत्ता से बाहर निकाल कर उन्होंने नेपाली कांग्रेस के सहयोग से सरकार को पुनर्गठन किया । नेपाली कांग्रेस के साथ शुरु सहकार्य एक साल भी नहीं टिक पाया । परिणामतः एक महीने पहले कांग्रेस को सरकार से हटाकर प्रचण्ड पुनः नेकपा एमाले के साथ सहकार्य कर रहे हैं । संसदीय व्यवस्था के लिए यह एक विकृति के सिवा कुछ नहीं है । इस कार्य को प्रधानमन्त्री प्रचण्ड ने ‘उथलपुथल’ का नाम दिया है । बार–बार सत्ता गठबंधन परिवर्तन करना और सत्ता में बने रहना उनके अनुसार ‘उथलपुथल’ है ।

यही चरित्र प्रदेशों में भी दिखाई दे रहा है । संघीय सरकार के जोड़बल में प्रदेशों में भी सरकार परिवर्तन हो रहा है । लगता है कि संघीय शासन प्रणाली जनता के लिए नहीं, नेताओं के लिए है । मुख्यतः नेपाली कांग्रेस, नेकपा एमाले और माओवादी केन्द्र के स्वार्थ अनुसार प्रदेशस्तरीय राजनीतिक दल भी प्रयोग में आ रहे हैं । इन तीन पार्टियों की गोटी बन रहे हैं प्रदेशस्तरीय पार्टी और नेता ! यहां तक कि सत्ता के लिए परिवारिक विखण्डन तक देखने को मिल रहा है । हां, सदूरपश्चिम प्रदेश में नागरिक उन्मुक्ति पार्टी के भीतर यही हालत है । पार्टी अध्यक्ष रंजीत श्रेष्ठ और पार्टी संरक्षक रेशम चौधरी का आपसी मतभेद इसतरह सामने आया है, जो शर्मनाक है । रंजीत और रेशम परिवारिक रूप में पति–पत्नी हैं । लेकिन सुदुरपश्चिम की प्रदेशिक सरकार में इन दोनों के विवाद का असर पड़ रहा है । एक परिवार के परिवारिक विवाद से सरकार प्रभावित है ।
संघीय सरकार से नेपाली कांग्रेस को बाहर करते ही प्रदेश सरकार में भी परिवर्तन किया जा रहा है । परिणामतः पार्टी विभाजन से लेकर पारिवारिक विखण्डन तक का मामला सामने आया है ! विशेषतः सुदूरपश्चिम प्रदेश और कोशी प्रदेश में संघीयता को बदनाम करने की हरकत हो रही है । कोशी प्रदेश के मुख्यमन्त्री केदार कार्की को मुख्यमन्त्री पद से हटाने के लिए यहां संवैधानिक मर्म और राजनीतिक नैतिकता को अनदेखा किया जा रहा है । हां, यहां ऐसी हरकत हो रही है, जिससे स्पष्ट होता होता है कि हमारी राजनीतिक पार्टी और नेता सत्ता के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हैं । हां, कोशी प्रदेश में आज के दिन केदार कार्की मुख्यमन्त्री हैं । कांर्की नेपाली कांग्रेस के नेता हैं । संघीय सरकार में कांग्रेस प्रमुख प्रतिपक्षी होने के नाते एमाले–माओवादी गठबन्धन सरकार को कार्की स्वीकार्य नहीं है । केन्द्र सरकार चाहती है कि कार्की को मुख्यमन्त्री पद से हटाकर यहां एमाले नेतृत्व में नयी सरकार निर्माण बनाया जाए । इसके लिए एमाले–माओवादी गठबन्धन संवैधानिक मर्म और राजनीतिक नैतिकता त्यागने के लिए तैयार हैं । राजनीतिक पार्टियों की ऐसी ही घिनौनी हरकत के कारण यहां एक साल की अवधि में पांच बार मुख्यमन्त्री परिवर्तन हो चुके हैं ।

पांचवीं मुख्यमन्त्री केदार कार्की संविधान की धारा १६८ की उपाधारा ५ के अनुसार मुख्यमन्त्री बने हैं । यह ऐसी धारा है, जो सरकार गठन के लिए अन्तिम विकल्प है । केदार कार्की मुख्यमन्त्री नहीं रहते हैं तो संवैधानिक और राजनीतिक मर्म के अनुसार कोशी प्रदेश में अब नयी चुनाव होना चाहिए । लेकिन संविधान की धारा १६८ (५) को गलत व्याख्या कर एमाले–माओवादी कोशी प्रदेश में छठी सरकार बनाने की तैयार में हैं । जो राजनीतिक बेइमानी है । कोशी प्रदेश में एमाले–माओवादी की हरकत हो या सदूरपश्चिम प्रदेश में नागरिक उन्मुक्ति पार्टी और चौधरी दम्पत्ति में उत्पन्न संकट, संघीयता को ही बदनाम कर रही है । ऐसी परिघटनाओं से लगता है कि संघीयता जनता के लिए नहीं नेताओं के लिए है ।

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स्मरणीय है, अगर संघ में सरकार परिवर्तन हो जाता है तो प्रदेशों में भी सरकार परिवर्तन करना कोई बाध्यता नहीं है । संघीयता का मर्म भी यही है । केन्द्र में हो या प्रदेशों में, किसी एक पार्टी की बहुमत नहीं है । सरकार सञ्चालन के लिए संसद् में बहुमत आवश्यक है, इसके लिए गठबन्धन अनिवार्य है । लेकिन केन्द्र में जो गठबन्धन बनता है, वही गठबन्धन प्रदेशों में होना कानूनतः अनिवार्य नहीं है । सत्ता सञ्चालन और परिस्थिति सहज बनाने के लिए केन्द्र अनुसार प्रदेशों में भी गठबन्धन का प्रयास होना राजनीतिक दृष्टिकोण से गलत नहीं माना जाता, लेकिन संघीयता को ही बदनाम कर संवैधानिक मर्म को अनदेखा करना राजनीतिक नैतिकता नहीं है । यह तो सिर्फ राजनीतिक अराजकता है । हां, राजनीति और सत्ता को स्थायी रोजगार माननेवाले नेताओं की नजर में यह सही हो सकता है, लेकिन जनता की नजर में यह घृणित कार्य है । इसतरह राज्य संचालन के लिए जो रवैया प्रस्तुत किया जा रहा है, इससे राजनीतिक स्थिरता सम्भव नहीं है ।

संघीयता नागरिकों को राज्यप्रदत अधिकार दिलाने के लिए है । राज्य और जनता के आपसी सम्बन्ध को और भी नजदीक बनाने के लिए संघीय शासन प्रणाली को अपनाया जाता है । लोकतन्त्र को और भी मजबूत बनाने के लिए ही संघीयता और गणतन्त्र लाया गया है । लेकिन संघीयता और गणतन्त्र के लिए योगदान देनेवाले नेता ही आज नयी व्यवस्था को बदनाम कर राजनीतिक अराजकता की सृजना कर रहे हैं । नयी सरकार गठन के नाम में जिसतरह संवैधानिक मर्म के ऊपर प्रहार किया जा रहा है, इससे गणतन्त्र और संघीयता में ही संकट उत्पन्न हो सकती है ।

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यहां वि.सं. २०५८ साल की राजनीतिक परिस्थिति को स्मरण कर सकते हैं । उस समय तत्कालीन राजा ज्ञानेन्द्र शाह ने २०४७ साल में निर्मित संवैधानिक मर्म के ऊपर प्रहार कर राजनीतिक शक्ति का गलत उपभोग किया । परिणामतः संविधान ही असफल साबित हो गया । इससे राजनीतिक दलों को सीख लेना चाहिए, न कि घमण्ड ! क्योंकि कांग्रेस, एमाले, माओवादी, जसपा जैसे मूलधार के राजनीतिक शक्तियों के प्रति आज के दिन आम जनता आक्रोशित हैं, इनके प्रति जनविश्वास समाप्त होता जा रहा है । विकल्प के रूप में जो राजनीतिक शक्ति आगे आ रही है, वे भी शंकास्पद दिखाई दे रही हैं । ऐसी परिस्थिति में किसी भी वक्त विस्फोट हो सकता है, जो वि.सं. २०६२–०६३ में हुआ ।
अगर संविधान को सुरक्षित रखना है तो संघीय शासन प्रणाली को बदनाम होने से रोकना होगा । नहीं तो किसी भी वक्त परिस्थिति बदल सकती है । हां, वर्तमान राजनीतिक पार्टी और नेताओं की हरकत के कारण आम जनता में संघीयता के प्रति वितृष्णा बढ़ने लगी है । ऐसी परिस्थिति में संघीयता को बचाना है तो राजनीतिक स्थिरता के साथ प्रदेश सरकार के प्रति भी जनविश्वास को बचा कर रखना होगा ।

लिलानाथ गौतम



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