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अगर राउत विखण्डनवादी हैंं तो क्या जो खून बहा वह भी विखण्डनवादी था ?

deathकुमार सच्चिदानन्द ,वीरगन्ज,१३ अक्टूबर । सिम्रौनगढ़ में विकास के मुद्दे पर आन्दोलन का दमन करते हुए आमलोग की जो शहादत हुई और जिसका खून बहा उसके प्रति जो हाय तौबा सामाजिक संजाल में मचा है, उसे अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता । लेकिन राजनैतिक रूप में जिस तीव्र प्रतिक्रिया की अपेक्षा थी, वह भी नहीं देखी जा रही दूसरी ओर सी. के. राउत की गिरफ्तारी को लेकर भी जिस तरह की प्रतिक्रिया की अपेक्षा थी, वह भी राजनैतिक वृत्त में नहीं देखी गई । इनके प्रति विरोध के स्वर तो जनस्तर पर फूट रहे हैं, लेकिन यह गुबार का रूप धारण नहीं किया । ये घटनाएँ तक इस बात को संकेतित करती है कि तराई आन्दोलन की तपिश घटने लगी है और अपमान का दौर तो अभी प्रारम्भ ही हुआ है । आज मधेश का नेतृत्व का दावा करनेवाले नेताओं और सत्तारूढ़ दलों के मधेशी नेताओं ने इन घटनाओं के प्रति जो ठंडी प्रतिक्रिया जाहिर की है, इस आधार पर उनसे पूछा जाना चाहिए कि श्री राउत तो विखण्डनवादी हैं मगर जो शहादत हुई और जो खून बहा, क्या वह भी विखण्डनवादी था ? अगर श्री राउत विखण्डनवादी हैंं तो समस्त मधेश आधारित दलों का नेतृत्व जो अतीति में समय–समय पर इस तरह की अलगाववादी प्रतिक्रियाएँ दिए हैं, क्या उन्हें अखण्डतावादी माना जाना चाहिए । दरअसल सत्ता का समीकरण साधती और अवसर न मिलने पर आदर्श चिन्तन की लहरों में स्नान कर मधुर वचन बोलनेवाली मधेशी राजनीति और राउत में अन्तर यह है कि एक ने समय–समय पर अलगाव के नारे को ‘बनरघुड़की’ के रूप में उपयोग किया जबकि राउत ने इसी बिन्दु से अपनी राजनीति की शुरुआत की । एक के सामने सत्ता के खोए हुए गलियारे हैं जबकि दूसरे के सामने लम्बी साधना का पूरा राजमार्ग । एक बात तो निश्चित है कि जिस मुद्दे को लेकर श्री राउत ने आवाज उठाना आरम्भ किया उसके प्रति तराई में किंकत्र्तव्यविमूढ़ता की स्थिति थी, लेकिन सरकार ने अपनी अदूरदर्शी नीतियों के कारण उन्हें गिरफ्तार कर समर्थकों की एक फौज तो खड़ा कर ही दी है । आगामी मधेशी राजनीति की दिशा क्या होगी, यह कहना फिलहाल कठिन है लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि तराई–मधेश के सन्दर्भ में जो राजनैतिक रणनीति राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों का है, वह लम्बे समय तक कारगर नहीं हो सकती । तराई आन्दोलन की पृष्ठभूमि तराई की जनता के साथ है और उनका सोया स्वाभिमान भी क्रमशः जग रहा है । इसलिए यथास्थितिवाद पर भरोसा कर राजनीति को नई दिशा देनी ही चाहिए । आज कुछ बुद्धिजीवी और पत्रकार राउत और उनके विचारों तथा कदमों का अवमूल्यन करने में लगे हुए हैं, न जाने उनका निहितार्थ क्या है, लेकिन आमलोग ऐसे विचारों का भी मूल्यांकन कर रहे हैं । उन्हें इस बात के प्रति सचेत रहना चाहिए कि कहीं उनके विपरीत विचारों को लोग प्रलाप न समझ लें । दलगत राजनीति के चश्मे को पहनकर मुद्दों का ऑपरेशन नही किया जा सकता । यह कबूल करना ही चाहिए कि जिसके पास समर्पण और प्रतिबद्धता है, वे लम्बी दूरी तक जा सकते हैं । राजनीति के ओछेपन और छिछलेपन से किसी का कल्याण नहीं होने वाला है । आज मधेशी राजनीति एक तरह से खामोशी की अवस्था में है । आखिर इस खामोशी का राज क्या है ? नैतिकताविहीन राजनैतिक परिदृश्य में मधुर संगीत के आलाप का अर्थ क्या है ? एक बात तो तय है कि अगर मधेश और मधेशी के आत्मसम्मान की रक्षा उन्हें करनी है तो यह संदेश देना ही होगा कि मधेश सिर्फ अन्यायों को झेलने के लिये नहीं बना, उन्हें प्रतिकार करने भी आता है, अन्यथा उन्हें राजनीति से संन्यास लेकर एक शून्य पैदा करना चाहिए ताकि नया गतिशील नेतृत्व उभर सके जो मधेश की कसौटी पर खड़ा उतर सके । क्या श्री राउत इसी परम्परा की अगली कड़ी हैं ?

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