संविधान संशोधन की चर्चा: वास्तविकता और अन्तर्य : वृषेश चन्द्र लाल
वृषेश चन्द्र लाल, जनकपुरधाम । कहावत है कि बिना आग के धुआँ नहीं उठता। दूसरे शब्दों में, अफ़वाहों में भी सच्चाई का एक अंश हो सकता है। पिछले कुछ दिनों से, लोगों के बीच एक बड़े राजनीतिक बदलाव की चर्चा हो रही थी। ये सिर्फ़ चाय और कॉफ़ी पर होने वाली बेकार की बातें नहीं थीं; शायद ये बातें “अंधेरे में तीर“, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, एक बहुत ही विशिष्ट और सार्वजनिक अंतर्ज्ञान से आ रहे थे। नई सरकार के लिए नेपाली कांग्रेस और नेकपा एमालेके बीच हाल ही में हुआ गठबंधन इन संदेहों की पुष्टि करता प्रतीत होता है। अनौपचारिक बातचीत में, लोगों ने बड़े बदलावों की संभावना पर खुलकर चर्चा की : संघवाद को खत्म करना, द्विदलीय प्रणाली की स्थापना करना और समावेशी समानुपातिक प्रतिनिधित्व पर भी अंकुश लगाना। जैसा कि बताया गया है, नेपाली कांग्रेस और नेकपा एमाले के बीच हाल ही में हुआ समझौता ठीक इसी के लिए आधार तैयार करता प्रतीत होता है।
नेपाल में अब लगातार सत्ता संघर्ष, राजनीतिक खींचतान और सरकार तथा प्रमुख पदों के लिए गठबंधनों का गठन रोमांचक नहीं लगता। दुर्भाग्य से, यह नेपाली राजनीति का एक पुराना चलन बन गया है। सत्ता की चाहत निश्चित रूप से नेपाल में गठबंधनों के लिए एक प्रेरक तत्व है, लेकिन उनके बनने और टूटने के पीछे कुछ सूक्ष्म कारण भी हैं। और ये कारण, हालांकि अक्सर चर्चा में रहते हैं, सतह पर कम दिखाई देते हैं। जनता गठबंधनों के उत्थान और पतन को देख सकती है, लेकिन इन बदलावों के पीछे की असली मंशा अक्सर रहस्य में छिपी रहती है। बंद दरवाजों के पीछे होने वाली बातचीत और गणनाएँ इन छिपी हुई गतिशीलता को समझने की कुंजी हैं। चाय–कॉफी केंद्रों में अफ़वाहें उड़ रही हैं कि विभिन्न घोटालों से जुड़े कुछ आंतरिक कारण नए गठबंधन को आगे बढ़ा रहे हैं। कथित तौर पर इन घोटालों में शीर्ष नेता और उनके रिश्तेदार शामिल हैं। उन्हें बचाने के लिए, कुछ लोगों का मानना है कि सत्ता को अपने लोगों के हाथों में रखना ज़रूरी है। कुछ लोगों का कहना है कि शायद यही कारण है कि शीर्ष नेता राजनीति से संन्यास लेने से कतराते हैं।
संविधान में संशोधन की अचानक चर्चा नेपाली कांग्रेस और नेकपा एमालेके बीच हुए समझौते में एक आश्चर्यजनक तत्व है। इस लेखन के समय, समझौते की सामग्री सार्वजनिक नहीं की गई है; हालाँकि, रिपोर्ट किए गए विवरण बताते हैं कि प्रतिनिधि सभा से समानुपातिक प्रतिनिधित्व को हटा दिया जाएगा, जिससे सीटों की संख्या कम हो जाएगी। दूसरे शब्दों में, मिश्रित चुनाव प्रणाली को समाप्त कर दिया जाएगा, जिससे एफपीटीपी अर्थात् प्रत्यक्ष प्रणाली निचले और अधिक शक्तिशाली सदन के सदस्यों को चुनने का एकमात्र तरीका बन जाएगी।
निर्वाचन क्षेत्रों का आकार बड़ा हो जाएगा। प्रतिनिधि सभा के चुनाव से जुड़े इन बदलावों से प्रतिनिधि सभा में समावेशी और समानुपातिक प्रतिनिधित्व की संभावना कम हो जाएगी। यह भी प्रस्तावित किया गया है कि नेशनल असेंबली, जो वर्तमान में राज्यों और स्थानीय तहों का प्रतिनिधित्व करती है, समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के माध्यम से चुनी जाएगी। यह बदलाव नेशनल असेंबली की भूमिका को मौलिक रूप से बदल देगा, इसे राज्य और स्थानीय तहों का सीधे प्रतिनिधित्व करने वाले निकाय से अलग रूप में बदल देगा। अगर ऐसा होता है, तो यह संघीय संसद की मूल अवधारणा में एक भयावह बदलाव होगा। यह संघीय ढांचे के संभावित कमजोर होने के बारे में सवाल उठाता है और इसे राज्य के संघीय ढांचे पर हमला कहा जा सकता है।
ऐसी भी खबर है कि नेकपा एमाले थ्रेसहोल्ड सीमा को 3% से अधिक तक बढ़ाना चाहती है। यह स्पष्ट रूप से दो प्रमुख दलों द्वारा देश पर दो- दलीय प्रणाली थोपने के प्रयास को दर्शाता है। स्पष्ट है कि उनका लक्ष्य सदन में अलग से मधेशीयों या थारु अथवा आदिवासीयों का प्रतिनिधित्व समाप्त करना है। बातें स्थायित्व की हो रही है पर निशाना कहीं और पर टिका है। उनके कार्यों का उद्देश्य छोटे और नए दलों के अस्तित्व या उदय को रोकना है, उनका मानना है कि इससे स्थिर शासन सुनिश्चित होगा और सत्ता पर उनकी पकड़ बनी रहेगी। हालाँकि, एक अधिक यथार्थवादी संभावना यह है कि यह बढ़ते असंतोष, क्रोध और संघर्ष के कारण देश को अराजकता की स्थिति में धकेल सकता है।
संविधान की घोषणा के तुरंत बाद ही उसमें संशोधन की मांग शुरू हो गई थी। मधेशी, थारू, मुस्लिम, आदिवासी–जनजाति और दलित समुदाय पहचान के आधार पर राज्य की सीमाओं में बदलाव, सरकारी व्यवस्थाओं में समावेशी प्रतिनिधित्व, संसद में जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व और भाषा और संस्कृति से जुड़े मुद्दों की मांग कर रहे थे। मधेशी और थारूहट में इसके लिए कड़ा संघर्ष हुआ। कई लोगों की जान चली गई और सैकड़ों घायल हो गए। अभी भी सरकार आंदोलनकारियों के खिलाफ आपराधिक मामले चला रही है। लेकिन नेपाली कांग्रेस और नेकपा एमाले के नेतृत्व ने इस पर सहमति नहीं जताई। माओवादी भी सिर्फ बहला–फुसलाकर ही रह गए। इन नेताओं ने इसे अहंकार का प्रश्न बना लिया। आज जिन संशोधनों की बात हो रही है, वे मधेसी, थारू, मुस्लिम, आदिवासी–जनजाति, दलित आदि हाशिए पर पड़े लोगों की मांगों के बिल्कुल विपरीत हैं। इसका उद्देश्य उनकी मांगों को संबोधित करना नहीं है, बल्कि वर्तमान सत्ता समूहों की शासन पर पकड़ को जारी रखने से जुड़ा है। इसका सुशासन और समृद्धि से कोई लेना–देना नहीं है, क्योंकि सभी जानते हैं कि जब तक मानसिकता में बदलाव और कानून के शासन के प्रति प्रतिबद्धता नहीं होगी, तब तक सुशासन हासिल नहीं किया जा सकता।
आश्चर्य कि बात है कि संघीय संसद में प्रतिनिधित्व कर रहे सभी मधेश और थरुहट केन्द्रित दल के नेता नेपाली काँग्रेस और नेकपा एमाले के इस समझौते के पीछे आँख मूंद कर खड़े हो गये हैं । ऐसा लगता है जैसे वो मधेश और थरुहट से प्रतिनिधित्व करने का हक खो बैठे हैं । ऐसे में देश भर के संघीयतावादी शक्ति किं कर्तव्य विमूढता की स्थिति में हैं । संघीयता के बारे में तीनों बड़े दलों का रुख कमोवेश एक जैसा रहा है । भाषा में भलेहिं भिन्नता रहा हो ।
यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि संविधान में नेपाली कांग्रेस और नेकपा एमाले की सोच के अनुसार संशोधन किया जाएगा। यह सत्ता हासिल करने के उनके उद्देश्य को सही ठहराने का एक तरीका हो सकता है। फिर भी, यह समझौता उसी उग्र राष्ट्रवाद का एक नया संस्करण पेश करता है जो अतीत में मधेश और थारुहट आंदोलनों के दौरान फैला था। इस समझौते के आधार पर संविधान में संशोधन करने से देश के स्थायी संघर्ष में फंसने की संभावना बढ़ सकती है, जो सभी के लिए अप्रिय होगा। तब नेपाल के लोगों को बहुत ही कठिन परिस्थिति का सामना करना पड़ेगा, और इसके परिणाम देश को और पीछे धकेल सकता है। सामने जो सोच रखी गई है, वास्तव में बहुत ही खतरनाक है । बहुत सारे अनचाहे विचारों से भरा पेटारा एक बार फिर खुल जाएगा । अब संघीयता समाप्त करने, देश में हर जगह फैली भ्रष्टाचार के लिए इसे ही जिम्मेदार ठहराने और सिमान्तिकरण में रहे मधेशी, थारु, दलित, मुस्लिम, आदिवासी–जनजाति पर जो समानता के लिए लड़ रहें हैं, नकेल कसने की बातें होंगी । कुछ लोग राजतन्त्र की वापसी की भी बात करेंगे ।
यह भी हो सकता है कि काँग्रेस-एमाले का यह दाव उलटा पड़ जाए क्योंकि समझौते का अन्तर्य कुछ और है और आवरण कुछ और दिया जा रहा है । वे भी जानते होंगे कि समय इस तरह का प्रतिगमन का नहीं है । भलेहिं सुसप्त हो, परन्तु समानता, समावेशिता और सहभागिता पाने के लिए लड़नेबालों की संख्या अधिक है जिसे दबाया नहीं जा सकता । फिर भी, संविधान संशोधन का प्रस्ताव अगर आवरण भर भी है तो भी हमें सावधान रहना ही होगा क्योंकि जो भी उपलब्धि है उसे उलटाने का सोच अभी भी बरकरार है ।