Wed. Dec 4th, 2024

आइये जानतें हैं सुगौली संधि और उसका क्षेत्रीय प्रभाव : मुरली मनोहर तिवारी (सीपू)

मुरली मनोहर तिवारी (सीपू), हिमालिनी अंक सितम्बर, 024 पहले सुगौली संधि को समझते हैं
सुगौली संधि, ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के राजा के बीच हुई एक संधि है, जिसे १८१४–१६ के दौरान हुये ब्रिटिश–नेपाली युद्ध के बाद अस्तित्व में लाया गया था । इस संधि पर २ दिसम्बर १८१५ को हस्ताक्षर किये गये और ४ मार्च १८१६ को इसका अनुमोदन किया गया ।

सुगौली संधि के क्षेत्रीय प्रभाव ः– संधि के तहत, नेपाल ने अपने नियंत्रण वाले भूभाग का लगभग एक तिहाई हिस्सा गंवा दिया, जिसमे नेपाल के राजा द्वारा पिछले २५ साल में जीते गये क्षेत्र जैसे कि पूर्व में सिक्किम, पश्चिम में कुमाऊं और गढ़वाल राजशाही और दक्षिण में तराई का अधिकतर क्षेत्र शामिल था । तराई भूमि का कुछ हिस्सा १८१६ में ही नेपाल को लौटा दिया गया । १८६० में तराई की भूमि का एक बड़ा हिस्सा नेपाल को १८५७ के भारतीय विद्रोह को दबाने में ब्रिटिशों की सहायता करने की एवज में पुनः लौटाया गया ।
दिसम्बर १९२३ में सुगौली संधि को अधिक्रमित कर “सतत शांति और मैत्री की संधि“, में प्रोन्नत किया गया और ब्रिटिश निवासी के दर्जे को प्रतिनिधि से बढ़ाकर दूत का कर दिया गया ।
सुगौली संधि और मधेश ः– सन् १८०५ का नक्शा नेपाल के उस विस्तार दर्शाता है, जो भारतीय रियासतों को परास्त कर प्राप्त हुआ था । इसके परिणामस्वरूप नेपाल की पश्चिमी सीमा कांगड़ा के निकट सतलुज नदी तक पहुंच गयी थी । सुगौली संधि के कारण यह भाग भारत को वापस मिले । दो साल लंबे चले ब्रिटिश–नेपाली युद्ध को खत्म करने के लिए १८१६ में, ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल की गोरखा राजशाही ने इस संधि पर हस्ताक्षर किए थे । इस संधि के तहत, मधेश क्षेत्र का एक हिस्सा भारत से अलग होकर नेपाल के अधिकार क्षेत्र में चला गया । इस भाग को नेपाल में, पूर्वी तराई या मिथिला कहा जाता है ।
सुगौली संधि से पहले तक ः– सुगौली संधि के अस्तित्व में आने तक, पूर्व में दार्जिलिंग और तिस्ता, दक्षिण–पश्चिम में नैनीताल और पश्चिम में कुमाऊं राजशाही, गढ़वाल राजशाही और बाशहर जैसे क्षेत्र नेपाल के अधीन आते थे । इन क्षेत्रों पर नेपाल ने पिछले लगभग २५वर्षों के दौरान विजय प्राप्त की थी, जिन्हें संधि के बाद भारत को वापस लौटाया गया ।
सुगौली संधि की शर्तें ः– ब्रिटिश–नेपाली युद्ध के बाद, नेपाल सरकार और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच शांति और मैत्री की एक संधि पर हस्ताक्षर किये गये । २ दिसम्बर १८१५ को इस संधि पर नेपाल सरकार की ओर से राज गुरु गजराज मिश्रा जिनके सहायक चंद्र शेखर उपाध्याय थे और कंपनी की ओर से लेफ्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रेडशॉ द्वारा हस्ताक्षर किये गये । ४ मार्च १८१६ को चंद्र शेखर उपाध्याय और जनरल डेविड ऑक्टरलोनी द्वारा मकवानपुर में संधि की हस्ताक्षरित प्रतियों का आदान प्रदान किया गया ।
संधि की शर्तें निम्नलिखित थींः –

यह भी पढें   दैलेख के महाबु गाँवपालिका अध्यक्ष में एमाले के जंगबहादुर शाही विजयी

१. ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के राजा के बीच सदैव शांति और मित्रता रहेगी ।
२. नेपाल के राजा उन सभी भूमि दावों का परित्याग कर देंगे जो युद्ध से पहले दोनों राष्ट्रों के मध्य विवाद का विषय थे और उन भूमियों की संप्रभुता पर कंपनी के अधिकार को स्वीकार करेंगे ।
३. नेपाल के राजा शाश्वत रूप से निम्न उल्लिखित सभी प्रदेशों को ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप देंगे
(क) काली और राप्ती नदियों के बीच का सम्पूर्ण तराई क्षेत्र ।
(ख) बुटवाल को छोडकर राप्ती और गंडकी के बीच का सम्पूर्ण तराई क्षेत्र ।
(ग) गंडकी और कोशी के बीच का सम्पूर्ण तराई क्षेत्र जिस पर ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अधिकार स्थापित किया गया है ।
(घ) मेची और तीस्ता नदियों के बीच का सम्पूर्ण तराई क्षेत्र ।
(च) मेची नदी के पूर्व के भीतर प्रदेशों का सम्पूर्ण पहाड़ी क्षेत्र । साथ ही पूर्वोक्त क्षेत्र गोरखा सैनिकों द्वारा इस तिथि से चालीस दिन के भीतर खाली किया जाएगा ।
४. नेपाल के उन भरदारों और प्रमुखों, जिनके हित पूर्वगामी अनुच्छेद (क्रमांक ३) के अनुसार उक्त भूमि हस्तांतरण द्वारा प्रभावित होते हैं, की क्षतिपूर्ति के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी, २ लाख रुपये की कुल राशि पेंशन प्रतिवर्ष के रूप में देने को तैयार है जिसका निर्णय नेपाल के राजा द्वारा लिया जा सकता है ।
५. नेपाल के राजा, उनके वारिस और उत्तराधिकारी काली नदी के पश्चिम में स्थित सभी देशों पर अपने दावों का परित्याग करेंगे और उन देशों या उनके निवासियों से संबंधित किसी मामले में स्वयं को सम्मिलित नहीं करेंगे ।
६. नेपाल के राजा, सिक्किम के राजा को उनके द्वारा शासित प्रदेशों के कब्जे के संबंध में कभी परेशान करने या सताने की किसी भी गतिविधि में संलग्न नहीं होंगे । यदि नेपाल और सिक्किम के बीच कोई विवाद होता है तो उसे ईस्ट इंडिया कंपनी की मध्यस्थता के लिए भेजा जाएगा ।
७. एतद्द्वारा नेपाल के राजा, ब्रिटिश सरकार की सहमति के बिना किसी भी ब्रिटिश, अमेरिकी या यूरोपीय नागरिक को अपनी किसी भी सेवा में ना तो नियुक्त करेंगे ना ही उसकी सेवाओं को बनाये रखेंगे ।
८. एतद्द्वारा नेपाल और ब्रिटेन (ईस्ट इंडिया कंपनी) के बीच स्थापित शांति और सौहार्द के संबंधों की सुरक्षा और उनमें सुधार के उद्देश्य से, यह सहमति बनती है कि एक का मान्यता प्राप्त मंत्री, दूसरे की अदालत में रहेगा ।
९. इस संधि का अनुमोदन नेपाल के राजा द्वारा इस तारीख से १५ दिनों के भीतर किया जाएगा और उसे लेफ्टिनेंट कर्नल ब्रेडशॉ को सौंपा जाएगा, जो उसे अगले २० दिनों में या उससे पहले (यदि साध्य हो), गवर्नर जनरल से अनुमोदित करा कर राजा को सुपुर्द करेंगे ।

इसके बाद दिसम्बर १८१६ में एक उत्तरगामी समझौते पर सहमति बनी जिसके अनुसार नेपाल को मेची नदी के पूर्व और महाकाली नदी के पश्चिम के बीच का तराई क्षेत्र वापस लौटा दिया गया । इस समझौते के फलस्वरूप दो लाख रुपए प्रतिवर्ष की क्षतिपूर्ति राशि के प्रावधान को समाप्त कर दिया गया । एक भूमि सर्वेक्षण के द्वारा दोनों राष्ट्रों के बीच की सीमा को तय करने का प्रस्ताव भी स्वीकार किया गया था ।
१९५० में भारत (अब स्वतंत्र) और नेपाल ने एक नयी संधि पर दो स्वतंत्र देशों के रूप में हस्ताक्षर किए गए जिसका उद्देश्य दोनों देशों के बीच संबंधों को एक नए सिरे से स्थापित करना था । भारत–नेपाल शान्ति तथा मैत्री सन्धि (Indo-Nepal Treaty of Peace and Friendship)भारत और नेपाल के बीच में ३१ जुलाई १९५० में काठमांडु में हस्ताक्षरित की गई एक अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि है जिस के अन्तर्गत दोनों देशों के सम्बन्ध निर्धारित किए गए हैं । इसके अनुसार दोनों देशों की सीमा एक–दूसरे के नागरिकों के लिए खुली रहेगी और उन्हें एक–दूसरे के देशों में बिना रोकटोक रहने और काम करने की अनुमति होगी । यह सन्धि दोनों देशों के बीच एक गहरा मित्रता का सम्बन्ध स्थापित करती है ।

यह भी पढें   धनुषाधाम नगरपालिका वडा नं १ के अध्यक्ष में नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी केन्द्र)के सुनील कापर केवट निर्वाचित

ईपीजी (एमिनेंट पर्सन्स ग्रूप) क्या है ?
केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार के दौरान प्रतिष्ठित व्यक्तियों का एक समूह बनाया गया था, जिसमें नेपाल के ४ प्रतिष्ठित व्यक्ति और भारत के ४ प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल थे । समूह ने नेपाल और भारत में कई बैठकें की हैं और दोनों देशों के बीच समस्याओं और समाधानों के साथ एक रिपोर्ट तैयार की है । लेकिन इस बात पर सहमति बनी कि रिपोर्ट को पहले भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उसके बाद ही नेपाल के प्रधानमंत्री को समझना चाहिए । इसे अब तक सार्वजनिक नहीं किया गया है क्योंकि भारत के प्रधानमंत्री ने अभी तक रिपोर्ट को समझने का समय नहीं दिया है ।
ईपीजी रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाना चाहिए
@highlightEPG की रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि यह नेपाल–भारत सीमा निवासियों की समस्याओं का समाधान नहीं करती है । साथ ही इसके कारण सुगौली संधि और भारत–नेपाल शान्ति तथा मैत्री सन्धि १९५० को बाधित करती है ।

अब इपीजी रिपोर्ट की समीक्षा

अब इपीजी रिपोर्ट की समीक्षा की जानी चाहिए क्योंकि इसमे नेपाल और भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों के लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं है । यह मधेसी समुदाय की जरूरतों को संबोधित नहीं करता है । हालांकि ईपीजी रिपोर्ट नेपाल–भारत संबंधों की समीक्षा करने का दावा करती है, लेकिन यह मधेसी समुदाय की विशिष्ट जरूरतों और समस्याओं का समाधान नहीं करती है । भारत के साथ मधेसी समुदाय के ऐतिहासिक सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक संबंध को यह रिपोर्ट नजरअंदाज करती है ।
रिपोर्ट में मधेश के अनुपातिक प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी के मांग को हतोत्साहित किया गया है । चूंकि ईपीजी में मधेसी समुदाय का उचित प्रतिनिधित्व नहीं था, इसलिए इसमें मधेसियों के वास्तविक हितों को शामिल नहीं किया गया । सीमा प्रबंधन और मधेश आंदोलन के मर्म को अनदेखा किया गया है ।

यह भी पढें   आज का पंचांग: आज दिनांक 1 दिसंबर 2024 रविवार शुभसंवत् 2081

नेपाल–भारत की खुली सीमा मधेसी समुदाय के लिए जीवन का आधार है । रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि इसे सख्ती से प्रबंधित और नियंत्रित किया जाना चाहिए, जिसका मधेसियों के दैनिक जीवन पर बड़ा प्रभाव पड़ सकता है । रिपोर्ट में सीमा क्षेत्र में प्रवासन, रोजगार और आर्थिक गतिविधि को सुविधाजनक बनाने के लिए कोई ठोस योजना प्रस्तुत नहीं की गई है । रिपोर्ट से नेपाल और भारत, खासकर मधेश के बीच पारिवारिक, धार्मिक और सांस्कृतिक रिश्ते कमजोर हो सकते हैं । मधेशियों का भारत की सांस्कृतिक संपदा और धार्मिक केंद्रों से गहरा संबंध है । यदि रिपोर्ट की माँग के अनुसार सीमा व्यवस्था कड़ी कर दी गईं तो ये रिश्ते टूट जाएंगे । भारत के साथ ऐतिहासिक रिश्ते और बेटी–रोटी का संबंध कमजोर हो जाएगा ।

मधेसियों का भारत के साथ गहरा ऐतिहासिक संबंध है और रिपोर्ट इस संबंध को नजरअंदाज करती है और इससे कूटनीतिक रूप से असहज स्थिति पैदा हो सकती है । मधेसियों के लिए भारत से रिश्ता सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि भावनात्मक और सांस्कृतिक भी है । इसे कमजोर करना मधेसी समुदाय की पहचान और अधिकारों का हनन है ।
रिपोर्ट में जल संसाधन प्रबंधन के मामले में काठमांडू से कोसों दूर रहने वाले मधेसियों के अधिकारों की अनदेखी की गई है । जल संसाधनों पर मधेश का अधिकार कमजोर होने का खतरा है । जब भारत के साथ जल संसाधन बंटवारे में मधेसियों की आवाज नहीं सुनी जाएगी, तो यह विकास परियोजनाओं में उनकी पहुंच और लाभ को सीमित कर सकता है ।

ईपीजी रिपोर्ट सुरक्षा सिफारिशें करेगी, जिससे मधेश में सैन्य उपस्थिति और सीमा सुरक्षा बढ़ने की संभावना है । इससे मधेसियों की स्वतंत्रता और जीवनशैली में हस्तक्षेप हो सकता है । सामरिक दृष्टि से मधेसियों की सुरक्षा में चुनौतियाँ आएंगी । रिपोर्ट मधेश के भौगोलिक महत्व को ध्यान में रखे बिना दोनों देशों के बीच संबंधों को फिर से परिभाषित कर सकती है, जो मधेश के रणनीतिक और आर्थिक सशक्तिकरण में बाधा बनेगी । नेपाल–भारत संबंधों में मधेश के विशेष महत्व को ध्यान में नहीं रखा गया और इसका मधेश समुदाय के भविष्य पर गहरा प्रभाव पड़ेगा । स्थानीय समस्याओं के समाधान के लिए भारत के साथ सहयोग जरूरी है । मधेसियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास के लिए भारत का समर्थन अपरिहार्य है, और ईपीजी रिपोर्ट भारत के साथ सहयोग को कमजोर कर सकती है ।
ईपीजी रिपोर्ट मधेसी समुदाय की वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं करती है, इसलिए मधेसी समुदाय को एकजुट होकर इसे रद्द करने की मांग उठानी चाहिए । मधेश के कल्याण और सशक्तिकरण के लिए नेपाल की संघीय व्यवस्था और भारत के साथ विशेष संबंधों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए ।

मुरली मनोहर तिवारी (सीपू)

About Author

आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

WP2Social Auto Publish Powered By : XYZScripts.com
%d bloggers like this: