मैथिली भाषा-साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले महेंद्र मलंगिया,जितने भारत के उतने ही नेपाल के

इस बार मैथिली भाषा का साहित्य अकादेमी पुरस्कार जिस नाटककार महेंद्र मलंगिया को मिला है, उनकी ख्याति बिहार के मिथिला से अधिक नेपाल के मिथिला इलाके में है. नेपाल उन्हें कला और संस्कृति के क्षेत्र में दिये जाने वाले सर्वोच्च पुरस्कार जैसे विद्यापति पुरस्कार और संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार पहले दे चुका है. मलंगिया जी को नेपाल में इस क्षेत्र के तमाम प्रतिष्ठित पुरस्कार पहले ही मिल चुके हैं. जबकि वे भारत के नागरिक हैं, नेपाल के नहीं. यहां उनकी काफी प्रतिष्ठा है.
हालांकि भारत और नेपाल दोनों देशों में प्रतिष्ठित नाटककार महेंद्र मलंगिया को मैथिली भाषा का साहित्य अकादेमी पुरस्कार उनकी किसी नाट्य रचना के लिए नहीं बल्कि शोध निबंधों की पुस्तक ‘प्रबंध संग्रह’ के लिए मिला है, जिसमें मिथिला की लोक रचनाओं पर शोधपरक निबंध शामिल हैं. हालांकि उनके चाहने वाले मानते हैं कि उन्हें उनके किसी नाटक के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिलना चाहिए था क्योंकि उनकी मूल पहचान एक नाटककार के तौर पर है.
महेंद्र मलंगिया ने 1970 से ही मैथिली नाट्य लेखन की शुरुआत कर दी थी. उनका पहला नाटक ‘लक्ष्मण रेखा खंडित’ 1970 में छपा था. ‘औकरा अंगना के बारहमासा’ 1980 में, ‘काठक लोक’ 1981 में छपा, ‘ओरिजनल काम’ 2000 ईस्वी में. उनके द्वारा रचित आखिरी नाटक ‘छुतहा घैल’ 2010 में छपा. उन्होंने 2015 से शोध ग्रंथों के लेखन का काम शुरू कर दिया था. जिस प्रबंध संग्रह को साहित्य अकादमी अवॉर्ड मिला वह 2019 में छपा है.
उन्हें उनके नाटकों के लिए अवॉर्ड क्यों नहीं मिला, निबंध संग्रह के लिए क्यों मिला? पहले क्यों नहीं मिला, अब क्यों मिला? इस सवालों को मलंगिया हंसते हुए टाल जाते हैं और कहते हैं, “आपलोग सब समझते ही हैं. वैसे मेरे लिए जितना प्रिय नाटक लेखन था, उतना ही प्रिय शोध निबंध लेखन भी है. इसलिए इस किताब के लिए अवार्ड मिलना भी मुझे आनंदित और उर्जावान कर रहा है.”
बिहार के मधुबनी जिले के मलंगिया गांव में 20 जनवरी, 1946 को जन्मे इस लेखक का नाम पहले महेंद्र झा था, मगर अपने गांव के नाम से स्नेह की वजह से उन्होंने अपने नाम के पीछे टाइटल मलंगिया रख लिया. उन्होंने भूगोल विषय की पढ़ाई की और शिक्षक की नौकरी पाने के लिए पड़ोसी देश नेपाल चले गये. वहां जनकपुर के बभनगामा गांव में कंटीर झा माध्यमिक विद्यालय में उन्हें शिक्षक की नौकरी मिली और फिर रिटायर होने तक वे वहीं रहे.
नेपाल से उनके जुड़ाव की यही वजह रही. वहीं उन्होंने नाटक लेखक और रंगकर्म की शुरुआत की. मैथिली नाट्यकला परिषद नामक एक रंग समूह की स्थापना की, जिसके अब 50 साल पूरे होने वाले हैं. इस संस्था में उन्होंने नाट्य लेखन, मंचन, अभिनय, निर्देशन सब किया. नाटक की हर विधा में हाथ आजमाया. आज इस संस्था से जुड़कर नाटक करने वाले कई लोग नेपाल के सांस्कृतिक जीवन की धुरी बने हुए हैं.
मलंगिया के नाट्यलेखन की एक बड़ी खासियत यह रही कि वे नाटकों को लिखते वक्त रंगकर्म की खूबियों और खामियों को समझते हुए लेखन करते थे. नाटकों के जरिये उन्होंने मैथिली साहित्य को जो सबसे अनमोल चीज दी, वह थी भाषाई विविधता. मैथिली भाषा की हमेशा से इस बात को लेकर आलोचना रही है कि वह दो जाति ब्राह्मण और कायस्थ और दो जिले दरभंगा और मधुबनी की भाषा है. इसकी वजह यह थी कि इस भाषा पर सवर्ण जातियों के दबदबे के कारण भाषा में पांडित्य का अधिक बोलबाला था और मिथिला के आम लोग जो अलग-अलग जातियों से जुड़े थे, उनकी भाषा को यह समाज खारिज करता था और भ्रष्ट मानता था. इस वजह से मिथिला की दूसरी जातियों और जिलों की दूरी इस भाषा से बढ़ने लगी थी.
हालांकि मलंगिया खुद मधुबनी जिले से थे और ब्राह्मण जाति से संबंधित थे, मगर उन्होंने अपने नाटकों में भाषाई मानक और पांडित्य को तोड़ा. मिथिला के अलग-अलग इलाके, अलग-अलग जाति और धर्म के लोगों की बोलियों को संवाद में जगह दी. इसने मिथिला के सभी वर्गों को उनके नाटकों से जोड़ा. उनके नाटकों में मिथिला के हर वर्ग के लोगों की भीड़ उमड़ने लगी.यह सब करना मलंगिया जी के लिए इतना आसान नहीं था. मैथिली के आचार्यों ने इसका खूब विरोध किया. मगर महेंद्र मलंगिया ने इन आलोचनाओं की परवाह नहीं की, लगातार लिखते रहे. क्योंकि उन्हें दर्शकों से समर्थन मिल रहा था.
रमेश रंजन कहते हैं, “उन्होंने मैथिली में सिर्फ सर्वहारा की भाषा को जगह नहीं दी, बल्कि उनके सवालों को भी उठाया. ‘ओकरा आंगनक बारहमासा’ नाटक में एक अत्यंत दरिद्र मजदूर परिवार की दारुण कथा है, कहानी का सार यह है कि गरीबों के घर में बारहों महीने एक जैसे होते हैं, दुख से भरे. किसी महीने में सुख नहीं आता. ‘ओरिजनल काम’ नाटक में भी निम्न वर्ग के परिवार के पीढ़ियों का द्वंद्व है.”
उनके नाटकों का मंचन जितना भारत में हुआ, उतना ही नेपाल में भी. महेंद्र मलंगिया के नाटकों की आलोचना संवाद में गालियों को जगह देने की वजह से भी हुई है. खासकर ओरिजनल काम नाटक में गालियों का भरपूर प्रयोग है. नाटकों के अलावा महेंद्र मलंगिया ने एकांकी और रेडियो नाटक भी खूब लिखे. वे भी काफी चर्चित हुए. उनके नाटकों को पाठ्यक्रमों में भी जगह मिली. उनके रंगकर्म की प्रतिष्ठा दिल्ली तक भी पहुंची. रिटायरमेंट के बाद महेंद्र नेपाल से लौटे तो अपने गांव मलंगिया में रहने लगे हैं. वे अब पूरा समय शोध में लगा रहे हैं. कभी कभार अपने बेटे के यहां दिल्ली भी चले जाते हैं. उन्होंने 14वीं सदी में लिखी मैथिली की गद्य रचना वर्ण रत्नाकर को अपने शोध का विषय बनाया है और इस पर वे दो खंड में शोध पुस्तकें लिख चुके हैं. जिनका नाम है ‘शब्दक जंगल में अर्थक खोज’. फिलहाल वे इसका तीसरा खंड पूरा करने की तैयारी में हैं. इसके बाद फिर से उनका इरादा एक नया नाटक लिखने का है.