राहत का केन्द्रीयकरण : रणधीर चौधरी
कली खिलने न पाई थी, उपवन लुट गया अपना
मै सोता रहा आलस में, धन लुट गया अपना ।
मैं विज्ञान का बिद्यार्थी नही हुँ । परंतु हाँ, विशुद्ध विद्यार्थी जीवन मे जितना विज्ञान पढ़ा हूँ उसके आधार से भूकम्प आने का कारण कहा जाता है छ करोड़ बर्ष पहले अफ्रीका से उछटने के बाद भारतीय उपमहाद्वीप एसिया को अभी भी धक्का दे रहा हैं । इसी कारण प्रत्येक बर्ष पाँच से एक मीटर उत्तर की ओर बढ रहा है । इस प्रक्रिया में जमीन के भीतर के चट्टान का पत्र सब टेढ़ा होता है और फिर ऐसी स्थिति आती है कि वह अधिक टेढ़ा नहीं हो पाता है जिसके कारण टूट जाता है और पृथ्वी के सतह पर हम भूकम्प को महसूस करते हैं । भारतीय उपमहाद्वीप और तिब्बती प्लेट से बने नेपाल का हिमालय ऊपर उठने लगा है ।
भूकम्प नेपाल को और खास कर काठमान्डू को तबाह कर रख देगा, यह बात सभी सचेत नागरिक को लगभग पता ही था । खास कर काठमांडू में, भूकम्प पर आधारित कन्फरेन्स और वर्कसप हरेक दिन किया जाता था । परंतु इससे बचने के लिए क्षति को कम करने के लिए सरकारी स्तर से ना कोई ठोस योजना दिखी, नहीं तो जनचेतना से जुटे कार्यक्रम ।
पिछ्ले हप्ते हुए भूकम्प ने नेपाल को तबाह कर के रख दिया है । सुन्दर नेपाल को कुरूप बना दिया । २५ अप्रील २०१५ को १२ बजे ७.९ रेक्टर के भूकम्प ने देश को सदमे में रख दिया । हजारो लोग भगवान को प्यारे हो गये वहीं घायलाें की संख्या भी रुकने का नाम नही ले रही । भूकम्प आने के कुछ ही देर बाद देश के सूचना तथा संचार मंत्री मिनेन्द्र रिजाल रेडियो नेपाल में खुद आकर देशवासियों को भूकम्प का अपडेट करवाने लगे, जो कि बहुत अच्छी बात थी । साथ ही उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से सहयोग की अपील भी जारी की । उन्हाेंने कहा, भूकम्प से प्रभावित लोगाें के उद्धार के लिए नेपाल सक्षम नहीं है । क्या सरकार को पता नहीं था कि नेपाल भूकम्प के खतरे के हिसाब से विश्व में ११ वें स्थान पर है ? सरकार कैसे अनदेखी कर सकती है भूकम्प प्रविधि राष्ट्रीय समाज (एनसेट) के प्रतिवेदन को, जिसमें कहा गया था १–० जैसा भूकम्प आया तो सिर्फ काठमांडू में पहले झटके में ही २०००० से ४३००० शिक्षक और विद्यार्थी की मौत हो सकती है । हमें शुक्रगुजार होना चाहिए ऊपरवाले का कि भूकम्प शनिवार को आया और सारे विद्यालय बन्द थे ।
काठमांडू से बाहर
भूकम्प होने के कुछ ही घंटो में भारत और बहुत सारे राष्ट्राें ने अपनी मानवीयता दिखाते हुए अपना हेलपिंग ह्यान्ड्स नेपाल की ओर बढ़ा दिया । आर्थिक सहयोग से ले कर मानवीय सहयोग तक कोई कमी नहीं होने दी अन्तराष्ट्रीय समुदाय ने । मलबे मे दबी लाश और जीवित लोगों का उद्धार बहुत जोर–शोर से शुरु किया गया । परंतु यहाँ भी मुझे अजीब लगा कि राहत टोली काठमांडू से बाहर क्यों नहीं जाना चाहती है । अगर नेपाली पत्र पत्रिकाओं का आधार माना जाय तो राहत सामग्री और उद्धार टोलियों को कैसे काम पर लगाया जाय इसमें नेपाल सरकार नाकामयाब है । काठमांडू के दर्द को महसूस करते हुए, लम्जुंग, गोर्खा, धादिंग, सिन्धुपालचोक, दोलखा लगायत अन्य भूकम्प प्रभावित जिलाें में राहत और रेस्क्यू की व्यवस्था में कमी दिखी थी । और इसका कारण और कुछ नही देश की एकीकृत शासन व्यवस्था है । हाँ, अगर देश में अभी संघीयता होती तो हरेक संघ अपनी शक्ति का प्रयोग करता, अपने अपने टेरिटोरी की अच्छी जानकारी होती, प्रान्त सरकार के पास, घर घर में प्रान्त सरकार की पहुँच होती । अगर देश में एक दो और अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डा होता तो विदेशी सहयोग को गावँ–गावँ तक पहुंचाने मे उतना दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ता ।
हाइटी और नेपाल
कुदरत के कहर ने सिर्फ नेपाल को ही नहीं बल्कि विश्व को समय समय पर सताता रहा है । बात है जनवरी २०१० की हाइटी में हुए भूकम्प ने उस देश को तबाह कर रख दिया । दो लाख बीस हजार की मौत हुई थी । घायलों की संख्या तीन लाख थी । अभी हमे एक बात सुनने को मिलती है कि काठमांडू लगायत भूकम्प प्रभावित अन्य जिलों में अब महामारी फैलेगी । लोग बीमारी से मरेंगे । जरुरी नही कि ऐसा होगा ही । परंतु सम्भावना इसकी प्रबल है जिसको नकारा नहीं जा सकता । स्वच्छ पानी की कमी के कारण कुछ भी हो सकता है । भूकम्प जैसी तबाही के बाद हैजा फैलने की सम्भावना कुछ ज्यादा ही होती है । सन २०१० के भूकम्प के बाद हैजा के कारण नौ हजार लोगाें की मौत हुई थी हाइटी में भूकम्प के बाद । संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार हाइटी को हैजा नियन्त्रण करने में अभी भी १० बर्ष और २ अर्ब २० करोड़ डालर लग सकते हैं । नेपाल को भी ऐसी परिस्थिति का सामना न करना पड़े । परंतु, हमे सचेत अवश्य रहना होगा । भूकम्प आने के तुरन्त बाद से विदेश से नगद सहयोग की मात्रा भी बढ़ती दिखाई दे रही है । करोड़ों डालर नेपाल को दिया जा चुका है । अब देखना होगा कितना उपयोग किया जाता है उन रुपयों का । वैसे हाइटी मे भी भूकम्प के बाद १३ अर्ब ५० करोड़ अमेरिकी डालर मदद के लिए दिया गया था और जिसके दुरुपयोग के कारण जनता वहाँ के सरकार के राजीनामा को प्रमुख एजेन्डा बना कर आन्दोलित है । क्या होगा नेपाल में ? काठमान्डू में तो अभी से प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री का विरोध शुरु हो चुका है, कोष दुरुपयोग के कारण नही, स्लो एक्सन के कारण ।
इस भूकम्प ने नेपाली नेपाली के बीच बढ़ रही तिक्तता को जरुर कम किया है । सरकार से ज्यादा हरेक जनता इस परिस्थिति से लड़ने के लिए स्वःस्फुर्त आगे बढ़ी है ।
क्या करना चाहिये अब ?
अब हमें और कुछ नही अपने अन्दर हौसला को चौबीसों घंटा बुलन्द कर के रखना होगा । व्यापारी वर्गाे मे दिख रही नैतिकता के पतन को रोकना होगा । जी हाँ, किसी के मौत में भी अपना नाफा ढूढने बाले व्यापारियाें द्वारा दिखाई जाने वाली सारी कृत्रिम अभावों को रोकना होगा । गुजरात मे २००१ मे आए भूकम्प के बाद तत्कालीन मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने जो कर दिखाया था वही हमारे सरकार को भी करना होगा । हाँ, मोदी गुजरात के सारी ब्यूरोक्रेट्स को भूकम्प प्रभावित जगह पर ले गये और वहीं पर रहकर जनता की तकलीफ को महसूस करबाया था । यहाँ भी हरेक नेता और ब्यूरोक्रेट्स को ग्राउन्ड पर खुद जाना चाहिए । जनता के घाव में मलहम लगाना चाहिए । तत्काल खाने और सोने के लिए स्वस्थ प्रबन्ध करवाना चाहिये । सरकार के प्रति बढ़े आक्रोश को रोकने के लिए भी पुनर्निर्माण के कार्य को तीव्रता देनी होगी ।