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एक तरफ मधेश को मजबूत करने में लगा है तो दूसरी तरफ सिर्फ छलावा

मुरलीमनोहर तिवारी,(सीपु), बीरगंज,27,फरवरी ।



 

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अब लिखने का मन नहीं कर रहा है। मन क्षुब्ध है। दिल बैराग्य- निराशा की तरफ जा रहा है। किसी लेखक ने कहा था, “मुझे मारने की जरूरत क्या है, मेरी कलम छीन लो मर जाऊंगा”। मेरी भी ऐसी ही अवस्था है। क्या लिखूं ? रात भर जागने और लिखने से क्या फायदा ? क्या परिवर्तन आया ? क्या सुधार आया ? क्या लिखूँ ? ओली- मोदी दिल से मिले या नहीं ? संबिधान का स्वागत किया या नहीं ? एअरपोर्ट पर मोदी आएं या सुषमा ? साझा वक्तव्य क्यों नहीं आया ? इन सब बातों से क्या फ़र्क पड़ता है। भारत- नेपाल दोनों, मधेश को अलादीन का चिराग़ समझ कर, जूते की तरह घिस रहे है।

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एक तरफ जो जहां है वही से मधेश को मजबूत करने में लगा है तो दूसरी तरफ मधेशी दल सिर्फ छलावा और तोप-झाप करते नज़र आ रहे है। उपेन्द्र यादव ने कहा “जेपी गुप्ता का तमरा अभियान कोई पार्टी है, उन्हें पता ही नहीं हैँ”। ये क्या है ? इसे दम्भ, अहंकार कहें या ये कहें की राष्ट्रीय नेता बन्ने के चक्कर में ये मधेश के जमीनी हक़ीक़त से कोशो दूर हो चुके है। बड़े तामझाम से तिन दल मिले, फिर भी पहाड़ में मधेश के समर्थन में कुछ भी नहीं करा पाएं। इतने मधेश के प्रति निष्ठावान है की लिखने में मधेश ही छूट जाता है। ये भूल चुके है की इनकी उत्पति ही मधेश आंदोलन की देन है। जो तमरा अभियान आपके ही साथ कंधे से कन्धा मिलाकर मधेश निर्माण में लगा हुआ है, उसका यही मूल्यांकन है आपकी नज़रों में ? धिक्कार है ! धिक्कार !!

तमरा अभियान पुरे आंदोलन में सक्रीय रहा। सैकड़ो सभाएं करके आंदोलन में मजबूती का कार्य किया। आंदोलन के हर मोड़ पर सहयोग और सुझाव दिया। बार- बार महागठबंधन का आह्वान किया। अभियान का जो भी शक्ति-सामर्थ्य था सब आंदोलन के आग में झोक दिया। आंदोलन के बाद भी शक्ति संचय और सुधार के लिए दस गलतिया भी गिनाई।

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क्या अभियान का ये कहना सही नहीं है, हर आंदोलन के बाद हमारी गलतियां क्यों बढ़ते जातेे है ? क्या उन्हें स्वीकार कर उनमें सुधार नहीं होना चाहिए ? आंदोलन के आधार होते है उसका मुद्दा, संगठन और नेतृत्व। जबकि दो महीने तक मोर्चा कभी २२ तो कभी ८ बुँदे का राग अलापता रहा। मोर्चा के सभी संगठन मिलकर दो अन्य नाका बंद नहीं करा सके। नेतृत्व की बात करे तो मोर्चा के शीर्ष नेता अलग- अलग डफली बजाते रहे। क्या नेताओ के अहम के टकराव को रोककर बड़ी शक्ति का निर्माण नहीं होना चाहिए ?

मोर्चा नेतृत्व के सामूहिक असफलता का कारण रहा, उनका संकुचित सोच, ब्यक्तिगत अहंकार और निषेध की राजनीती। इन्ही कारणों से महागठबंधन नहीं बन सका, ना ही एकल मांग प्रस्तुत किया जा सका। यहाँ तक की टीकापुर घटना के बाद थारु समुदाय में जो भी ऊर्जा का संचार हुआ था, वह भी आंदोलन में शामिल नहीं हो सका। इनके निषेध के कारण ही थारु समुदाय आंदोलन से पृथक रहा।

क्या ये समीक्षा नहीं होनी चाहिए की जिस संबिधान को नहीं मानते उसी के मुखिया के चुनाव में क्यों गए। जिसे चुनने गए उसी के आदेश से हमारे ४० भाइयों की हत्या हो चुकी थी। क्या ये सत्य नहीं की मधेश की हत्या तो मोर्चा के नेता ने  आंदोलन पूर्व १६बुँदे सहमति करके ही कर दिया था। ये आंदोलन अधिकार के लिए नहीं चेहरा बचाने के लिए हुआ था।

मोर्चा ने आंदोलन को भारत पर निर्भर करा दिया। जिससे आंदोलन हाथ से फिसल गया। ये लड़ाई मधेश की है, मधेश इसे मजबूती से लड़ ही रहा था, फिर इसका टेंडर करने की क्या जरूरत थी। कूद- कूद कर दिल्ली गए थे, और हथियार डाल आएं। अब किस मुह से चैत्र में आंदोलन को बोल रहे है ? बार- बार आंदोलन करना, शहादत, दबाव, नक्कली समझोता और धोखा, यही मधेश की नियति बन गया है। हमें कठोर बनना होगा, पहले इस चक्र को तोडना होगा तब आंदोलन सफल होगा। गलती हमारी है की हम बार-बार इनके लोभ में आ जाते है। चाणक्य ने कहा था जहाँ की जनता लोभी हो वहा ठग राज करते है। हम जब तक अपना ज्ञान चक्षु खोलकर सही को सही और गलत को गलत कहने का सामर्थ्य नहीं जुटाते, तब तक ठगाते ही रहेंगे। मुझे ठगाने की चाह नहीं है। माखनलाल चतुर्बेदी की पंक्तियों के साथ विराम लेता हूँ।
चाह नहीं, मैं सुरबाला के 
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध
प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं सम्राटों के शव पर
हे हरि डाला जाऊँ,
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक!
                      जय मधेश।।



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