मेरा जन्म क्यों
रवीन्द्र झा ‘शंकर’
मनुष्य अपनी ओर नहीं देखता कि मेरा जन्म क्यों हुआ है, मुझे क्या करना चाहिये और मैं क्या कर रहा हूँ ? जब तक वह उसपर ध्यान नहीं देता, तब तक उस मनुष्य का पद आप क्षमा करेंगे, पशु से भी नीचा है । पशु, पंक्षी, वृक्ष आदि से भी उसका जीवन नीचा है, मनुष्य होकर भी सावधान नहीं है तो क्या मनुष्य हुआ ? मनुष्य में तो वह सावधानी यह विचार होना ही चाहिये कि हमारा जन्म क्यों हुआ है और हमे क्या करना चाहिए तथा क्या नहीं करना चाहिये । स्वयं इसका समाधान न हो तो न सही, पर संतोष की वाणी से, शास्त्रों से इसका पूरा समाधान हो जायगा कि यह मनुष्य जन्म केवल अपना उद्धार करने के लिये ही मिला है । भगवान ने अपनी ओर से यह अन्तिम जन्म दे दिया है, जिससे यह मुझे प्राप्त कर ले ।
ब्रह्माजी ने मन्त्रों के सहित पूजा की उत्पति की– ‘सहयन्ताः पूजाः सृष्वा पुरोवाच जापति ।’ – गीता (३।१०) अर्थात कर्तव्य और कर्ता– ये दोनों एक साथ पैदा हुए । जो कर्तव्य है, वह सहज है । आज तो हमें कर्तव्य–कर्म करने में परिश्रम तीत होता है, उसका कारण यह है कि हम संसार से सम्बन्ध जो लेते है, नहीं तो यह स्वयं भी सहज है और इसका जो कर्तव्य है, वह भी सहज है । स्वभाविक है । अस्वभाविकता को यह स्वयं बना लेता है । इसे यह विचार नहीं होता कि अस्वभाविकता कहाँ बना ली ? कैसे बना ली ? यदि विचार करे तो यह निहाल हो जाय ।
इसमें दो मार्ग है– एक विश्वास का मार्ग और जिज्ञासा का मार्ग । विश्वास वहाँ होता है, जहाँ सन्देह नहीं होता, सन्देह पैदा ही नहीं होता, जो सन्देह युक्त विश्वास होता है, वह विश्वास रुप से कट नहीं होताः परन्तु जिज्ञासा वहाँ होती है, जहाँ सन्देह होता है । भक्तिमार्ग में विश्वास, निःसंदिग्ध मुख्य है और ज्ञानमार्ग में जिज्ञासा, सन्देह, मुख्य है । विश्वास और जिज्ञासा, इन दोनों को मिलाने से साधक का जीवन शुद्ध नहीं रहता, अशुद्ध हो जाता है ।
विश्वास किस में होता है ? जिसमें हम इन्द्रियों से, अन्तस्करण से कुछ नहीं जानते, उसमें विश्वास होता है अथवा नहीं होता । जैसे ‘भगवान है’, यह विश्वास होता है अथवा नहीं होता– यो दो ही बातें होती है । भगवान है कि नहीं यह बात वास्तव में विश्वास की नहीं जिज्ञासा की है । है कि नहीं यह सन्देह, जीवात्मा पर होता है अथवा संसार पर होता है । कारण कि ‘मैं हूँ’ इसमें तो सन्दहे नहीं है, पर ‘मैं क्या हूूँ’ इसमें सन्देह होता है । अतः सन्देह सहित जो सता है, उसमें जिज्ञासा पैदा होती है । स्वयं का और संसार का ज्ञान जिज्ञासा से होता है । परात्मा को मानना अथवा न मानना इसमें आप बिलकुल स्वतन्त्र है । कारण कि परमात्मा के विषय में हम कुछ नहीं जानते और जिस विषय में कुछ नहीं जानते, उसमें केवल विश्वास चलता है । जिसमें विश्वास होता है, उसमें सन्देह नहीं रहता । इतनी विचित्र बात है यह । जैसे स्त्री, पुत्र आदि को अपना मान लेने से फिर उसमें सन्देह नहीं रहता कि यह स्त्री मेरी है कि नहीं ? यह बेटा मेरा है कि नहीं ? यह लौकिक मान्यता टिकती नहींं क्योंकि यह मान्यता जिसकी है, वह नाशवान है, परन्तु, परमात्मा अविनाशी है, अतः उसकी मान्यता टिक जाती है, दृढ़ हो जाती है । तो उसकी प्राप्ति हो जाती है । हमने शास्त्र पुरान में पढ़ा है जो भगवान को मान लेता है, उसे अपना स्वरुप जना देने की जिम्मेदारी भगवान पर आ जाती है । कितनी विलक्षण बात है । भगवान कैसे है, कैसे नहीं, इसका ज्ञान उसे स्वयं नहीं करना पड़ता । यह तो केवल मान लेता है, भगवान है, वे कैसे है, कैसे नहीं, यह सन्देह उसे होता ही नहीं । क्योंकि हमें इस बात का ज्ञान है कि वस्तु व्यक्ति आदि पहले नहीं थे, पीछे नहीं रहेंगे और अब भी निरन्तर नाश की ओर जा रहे है, परन्तु भगवा के विषय में ऐसा नहीं होताः क्योंकि शास्त्रों से संतो से, आस्तिकों से हम सुनते है कि भगवा पहले भी थे, पीछे भी रहेंगे और अब भी है ।
जैसे, बालक दुःख पाता है तो उसके मन में मां से मिलने की इच्छा होती है कि माँ मुझे गोदी में क्यों नहीं लेती ? उसके मन में यह बात पैदा ही नहीं होती कि मै योग्य हूँ कि अयोग्य हूँ, पात्र हूँ कि अपात्र हूँ, बालक माँ पर अपना पूरा अधिकार मानता है कि माँ मेरी है, मैं माँ से चाहे जो काम करा लूंगा, उससे चाहे जो वस्तु ले लूँगा । बालक के पास बल क्या है ? रो देना ही बल है । निर्बल से निर्बल आदमी के पास रोना ही बल है । विश्वास मनुष्य कर्तव्य कि दृष्टि से कर्तव्य पालन नहीं करता । परंतु भगवान के वियोग से रोता है । रोने में ही उसका कर्तव्य पूरा हो जाता है । जैसे उदाहरण पडैल महाराजजी मंडल कुल थे, सिद्ध पुरुष थे, गुफा में जाकर भजन करते थे, भजन करते–करते रोने लगते थे–
का मांगू कछु थिर न रहाई । देखत नैन चल्यो जग जाई ।
संसार की इच्छा मिटते ही भगवान का विरह आ जाता है । संसार की इच्छा, आशा ही भगवान के विरह को रोकने वाली वस्तु है ।
मनुष्य जिसे नाशवान जानता है, फिर भी उसकी आशा रखता है तो यह बहुत बडा अपराध करता है । झूठ–कपट करके, जालसाजी, बेइमान करके अपनी असत भावना को दृढ करता है तो इससे बढकर अनर्थ क्या होगा ? धन है, बेटा–पोता है, बल है, विद्या है, योग्यता है, पद है, अधिकार है, ये कितने दिन से है ? कितने दिन रहेंगे ? इनसे कितने दिन काम चलायेगे ? इनके साथ जितने दिन संयोग है, उसका वियोग होनेवाला है, वह वियोग शीघ्र हो, देरीसे हो, कब हो, कब नहीं हो, इसका पता नहीं । पर संयोगका वियोग होना, इसमे कोई सन्देह नहीं है । जिनका वियोग हो जाएगा, उन पर विश्वास कैसे ? जो प्रतिक्षण बिछड़ रहा है, उसे कब तक निभायेगे ? वह कब तक सहारा देगा ? वह कब तक आप को काम आयेगा ? फिर भी उस पर विश्वास करना अपनी जानकारी का स्वयं निरादर करना है । अपनी ज्ञानकारी में अनादर करना बहुत बड़ा अपराध है । अपराध पापों से भी तेज होता है । जो परमात्मा है, इसे मानता नहीं और संसार है, इसे मानता है, वह महान् हत्यारा है, पापी है ।
आप जानते हैं कि संसार नहीं रहेगा, शरीर नहीं रहेगा, फिर भी चाहते है कि इतना सुख ले ले, इतना लाभ ले लें, इस वस्तु को ले लें, अर्थात् जानते हुए भी मानते नहीं । इसमें अनजानेपन का दोष नहीं है, न मानने का दोष है, जो आप को स्वयं दूर करना पड़ेगा । शास्त्र, पुरान, संत–महात्मा, सबों का यही उपदेश है । पर जाने हुए को आप नहीं मानेंगे तो इसमें दूसरा कुछ नहीं कर सकेगा । मानना तो आप को ही पडेÞगा । इतना काम आप का स्वयं है । मेरा जन्म सत्य कर्म करने के लिए है कुकर्म करने के लिए नहीं । व्