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दिनेश त्रिपाठी, काठमांडू, १२ पूस | वर्तमान में देश की राजनीति तीन मसलों में घूम रही है । वे हैं– संविधान संशोधन, कार्यान्वयन और चुनाव । एक पक्ष वे हैं  जो इन मसलों में सकारात्मक दावा करते हैं । दूसरे पक्ष वे हैं जो संविधान कार्यान्वयन और चुनाव करवाने में दावा तो करते हैं, परन्तु संशोधन प्रस्ताव को प्रतिरोध कर रहे हैं । तीसरे पक्ष वे हैं जो पंजीकृत विधेयक में परिमार्जन सहित पारित हेतु आशामुखी हैं ।
जहां तक संविधान संशोधन का मसला है । अभी की स्थिति में इसका भविष्य अनिश्चित जैसा दिख रहा है । क्योंकि संशोधन हेतु दलों के बीच एक विश्वसनीय माहौल का सृजन होना अति आवश्यक है । जबकि दलों के बीच में अविश्वास की खाई बढ़ती जा रही है । और सहमति का माहौल भी समाप्त होता जा रहा है । मुख्य प्रतिपक्षी दल संशोधन प्रक्रिया को लेकर द्विविधा की स्थिति में है और इसे दलीय स्वार्थ की चश्में से देख रहा है । इस स्थिति में अगर संविधान का यह प्रयोग असफल हुआ, तो राष्ट्र ही असफल हो जाएगा । फलतः देश द्वन्द्व के एक नये दौर में प्रवेश कर सकता है । इसलिए आज जरुरत है दलीय स्वार्थ के घेरे से उठकर बृहत्तर राष्ट्रीय हितों को आत्मसात् करने का और देश को एक नयी दिशा में लाने का ।
दूसरा मसला है संविधान कार्यान्वयन करने का । यह एक जटिल सवाल है । मेरी मान्यता है कि जब तक दलों के बीच में आम सहमति नहीं होगी, तब तक संविधान कार्यान्वयन होना असम्भव दिख रहा है । समझने वाली बात यह है कि संविधान के आधारभूत मूल्यों पर ठोस रूप में सहमति होना आवश्यक होता है । संविधान निर्माण प्रक्रिया के दौरान भी सभी राजनीतिक शक्तियों को शामिल करने का गंभीर रूप से राजनीतिक प्रयत्न नहीं किया गया । जबकि यह आपस में तय करने की प्रक्रिया  (निगोशिएटेड प्रोसेस) है । अभी भी संविधान कार्यान्वयन के लिए जिस तरह से घनीभूत रूप में संवाद होना चाहिए था, वैसा नहीं हो पाया है । फलतः देश की राजनीति मुठभेड़ की ओर बढ़ती जा रही है । ऐसी स्थिति में सत्ताधारी, प्रतिपक्षी तथा मोरचे के बीच शीघ्रातिशीध्र घनीभूत रुप में संवाद के जरिये विद्यमान समस्याओं को समाधान हेतु आगे बढ़ना श्रेयस्कर होगा ।
इसी प्रकार तीसरा मसला है चुनाव का । संविधान द्वारा  निर्धारित तिथि पर अगर चनाव नहीं हो सका, तो संविधान कार्यान्वयन की प्रक्रिया पर मरणांतक प्रहार सिद्ध होगा । क्योंकि विद्यमान संसद को एक ठोस मकसद और सीमित अवधि के लिए जीवित रखा गया है । उक्त अवधि तक दिया हुआ आदेश (मैनडेट) पूरा न कर संसद अपनी आयु खुद बढ़ाती है, तो यह मैनडेट के साथ बहुत बड़ा धोखा होगा । अपनी असफलता और अक्षमता से खुद लाभान्वित होने का अधिकार किसी को नहीं है । निश्चित कार्य–क्षेत्र के तहत बनी संसद को अपनी निर्धारित अवधि में उक्त मैनडेट को अंजाम देना ही श्रेयस्कर होगा । क्योंकि जनता द्वारा प्रदत्त आदेश को अपहरण करने का अधिकार किसी को भी नहीं है । और यह विधिशास्त्रीय दृष्टिकोण से भी अमान्य है ।
संसद संविधान की उपज है । और संविधान के प्रवधानों का उलंघन करने का अधिकार संसद को नहीं है । इसलिए निर्धारित अवधि में स्थानीय, प्रांतीय और प्रतिनिधि सभा के चुनाव करवाना अति आवश्यक है । यह राष्ट्र का दायित्व भी है । यह कार्य पूरा न होने पर देश में एक असंवैधानिक शून्यता और जटिलता की स्थिति उत्पन्न होंगी ।
(त्रिपाठी सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट, संविधानविद् और
इंस्टिच्युट ऑफ फरेन एफेयर्स के अंतर्राष्ट्रीय विज्ञ हैं ।)



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