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अगर नेपाल में न्यायालय है तो बिना भेदभाव न्याय कब मिलेगी ? कैलाश महतो

justice



कैलाश महतो, परासी, १० माघ | अदालत और न्यायालय सुनने में भले ही एक दुसरे का पर्यायवाची लगते हों, पर दोनों की संरचना और अन्तर्भावना अलग अलग है ।
अदालत एक संरचना है, एक स्थान विशेष है जहाँ से उसके अधिकारी और कर्मचारी वर्ग प्रकृति में व्याप्त न्याय प्रणाली को लागू करते हैं । न्याय भाववाचक संज्ञा है जो अपने आप मानव के चेतना और संवेदना द्वारा व्यक्त होता है । अदालत को लोग न्याय का पवित्र मन्दिर भी मानते हैं । सही में कोई घर अपने आप में मन्दिर नहीं होता जबतक कि उसमें असल चरित्र के आत्मा, व्यक्ति या परिवार बैठते न हों ।
Encyclopedia के अनुसार :

court is a tribunal, often as a government institution, with the authority to adjudicate legal disputes between parties and carry out the administration of justice in civilcriminal, and administrative matters in accordance with the rule of law.[1] In both common law and civil law legal systems, courts are the central means for dispute resolution, and it is generally understood that all persons have an ability to bring their claims before a court. Similarly, the rights of those accused of a crime include the right to present a defense before a court.
न्याय परिषद् न्याय का प्रवर्तक होता है । जिस घर या मन्दिर में वह न्याय को अपनाता है, वही न्यायालय कहलाता है ।
Wikipedia के अनुसार ः

The judiciary is the third branch of the democratic government system. The judiciary interprets the law, decides disputes and applies the Constitution in the name of the state. It must be strictly independent, impartial and non-political as the principle of the separation and balance of powers commands.
उपरोक्त विश्व प्रसिद्ध परिभाषा और मान्यताओं के अनुसार नेपाल में क्या लोकतन्त्र है ? लोकतान्त्रिक गणतन्त्र कहे जाने बाले नेपाली राज्य में वो न्यायालय और न्याय प्रणाली है जो विश्व के सर्वमान्य व्याकरण और न्यायिक परिभाषा में हैं ? क्या नेपाल के सर्वोच्च अदालत जैसे न्याय के मन्दिर कहे जाने बाले स्थान के उच्च आसन पर विराजमान व्यक्तित्व के अन्दर वो आत्मा है जो न्याय को पूजा कर सके ? नहीं तो फिर उस न्याय के सर्वोच्च संस्था का मूल्य क्या ?
हम न्याय प्रणाली की बात करें तो आज से करीब १०० वर्ष पहले के न्याय प्रकिया को जानना होगा । सन् १०६६ में न्याय प्रणाली का विकास जब बेलायत में नीतिगत रुप से शुरु हुआ तो ब्लनयि Anglo Saxons और Norman आक्रमणकारियों के लिए भी स्थानीय और शाही सरकार के न्याय प्रणाली में ही संयुक्त होता था । उस संयुक्त अदालत में Local Court को उच्च अधिकारी Lord या भारदार-Steward – सम्हालते थे तो शाही कोर्ट को राजा खुद सम्हालते थे । १२हवीं शदी -King Henary 2nd ११५४–११८९) में न्याय प्रणाली तथा परिषद् में परिवर्तन आया । राजा के प्रत्यक्ष कर कमलों में रहकर न्याय का काम करने बाले कोर्ट के न्यायाधिशों को राजा से आजादी मिलना शुरु हुआ । १३हवीं शदी से कोर्ट के लिए न्यायाधिशों की नियुक्ति किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत निगाह या आकांक्षा से नहीं, बल्कि उसके स्वतन्त्र न्यायिक काम के आधार पर शुरु हुआ । उस क्रम में Sergeant Lawrence de Brok को सन् १२६८ में स्वतन्त्र न्यायमूर्ति बनाया गया जो परम्परा सन् १३७५ तक रहा । दुर्भाग्यवश १३हवीं शदी का मध्य न्याय के लिए दुर्भाग्य रहा । न्यायालय घुस और भ्रष्टाचारों का अड्डा बन गया । न्यायालयों को लोग भ्रष्टाचार का पर्याय मानने लगे । न्यायालयों में खुल्लम खुल्ला घुस और इनाम का ताप चढा ।
सन् १३४६ में न्याय परिषद के सिफारिस में सरकार द्वारा घुस और भ्रष्टारों को रोकने के लिए न्यायाधिश तथा कोर्ट के कर्मचारियों का तलब काफी ज्यादा बढाया गया ता कि अदालत में काम करने बाले लोगों का दैनिक खर्च चलाने में कोई दिक्कत न हाें । तलब बढाने के क्रम में न्यायाधिशों की तलब २०० पाउण्ड से बढाकर १,००० पाउण्ड कर दी गयी । लेकिन उसी क्रम में सन् १३५० मेंWilliam de Thrope नामक एक मुख्य न्यायाधिश को घुस काण्ड में मृत्यदण्ड की सजा मिली । लेकिन बाद में मृत्यदण्ड की सजा को बदल कर उन्हें उनके पद से निचे किया गया ।
न्याय प्रणाली का इतिहास यही कहता है कि न्याय किसी राजा, सरकार, परिवार, जात या समुदाय का नहीं, अपितु वह ब्रम्हाण्डीय होता है, प्राकृतिक होता है । राजाओं के हाथ में रहे न्यायालयों को स्वतन्त्र किया गया । सरकार के कब्जे में रहे न्याय प्रणाली को आजाद किया गया । अपराध करने बाले न्यायमूर्तियों को भी सजा देकर न्याय प्रणाली का विकास किया गया ।
नेपाल का सर्वोच्च न्यायालय आजतक भी सिर्फ एक अदालत है । वह न्यायालय हो ही नहीं पाया है । वहाँ आजतक सिर्फ कोई नेपाली, कोई पहाडी तो कोई मधेशी ही मुखिया रहा है । न कोई न्यायमूर्ति बनने का साहस किया है, न साम्प्रदायिकता से उठने का काम किया है । राज्य द्वारा मधेशी लगायत के राज्य से दुर रखे गए लोगों के साथ हो रहे भेदभावपूर्ण रबैयों को ही जायज करार देते हुए साम्प्रदायिकता को बढावा दिया गया । मधेशी को भारतीय, पाकिस्तानी, बिहारी आदि प्रमाणित करने तथा आसामी, गढवाली, बनारसी, सिक्किमी, दार्जिलिङ्गी, भूटानी, बर्मेली, इरानी आदि को नेपाली बनाने का फैसला होता रहा है । उसी अनुसार मधेशियों के साथ न्याय में भेदभाव होता रहा है ।
वर्तमान प्रधान न्यायाधिश श्री सशिला कार्की देश की प्रमुख न्यायमूर्ति हैं । वो मधेशी महिलाओं को अनपढ और गँवार समझती हैं । वे राज्य से यह नहीं पूछती कि जो मधेशी महिलायें नेपाल सरकार और उसके अदालत समेत तक को दानापानी उपलब्ध कराती हैं, उन्हें नेपाल सरकार ने अनपढ गँवार बनाकर क्यूँ रखा है ?
न्याय परिषद् की प्रमुख रही मन और मष्तिष्क से कोमल और समवत् मानी जाने बाली महिला न्यायमूर्ति ने भी संविधान तक का अवहेलना करना आश्चर्य के साथ बिडम्बना भी है । संविधान को व्याख्या करने बाली प्रमुख न्यायमूर्ति ने भी राजनीतिक दलों के साथ बैठकर राजनीतिक भागबण्डे और सम्प्रदाय के आधार पर न्यायिक संस्थाओं का ८० न्यायमूर्ति का चयन कैसे कर सकती है ? उन ८० नियुक्तियों में क्या मधेशी का समानुपातिक भाग सिर्फ ५ आते है ? क्या पारिवारिक रिश्ते और दलीय भाग वण्डों के आधार पर नियुक्त लोग सही न्याय दे पायेंगे ?
ज्ञात हो कि कानुन तथा न्यायमन्त्री अजय नायक तक ने चयनित न्यायाधिशों का नियुक्ति दलीय आधार पर होने की बात को स्वीकार चुके हंै ।
अब आप ही बताइये प्रमख न्यायाधिश महोदया कि मधेश को स्वतन्त्र चाहने बाले मधेशी कितने बेइमान हैं और नेपाल राज्य, उसका शासन पद्धति और चरित्र कितना नेक है ? जहाँपर न्यायाधिश लोग बैठते हैं, वे सिर्फ अदालत हैं या न्यायालय भी ? अगर न्यायालय है तो लोगों को बिना भेदभाव न्याय कब और कैसे मिलेगी ? अदालत सम्मानित संस्था है और वहाँ से होने बाले न्यायों को पूजनीय बनाने में आप का भूमिका अनिवार्य है । अदालत को सिर्फ फैसला नहीं, न्याय भी उपलब्ध कराना चाहिये । यह हमारी बिनती है । क्यूँकि न्यायालय किसी जात, धर्म, सम्प्रदाय, प्रदेश या देश का नहीं, सर्व न्यायकारी और सर्व कल्याणकारी होता है ।

(आफनो छोरा, बुहारी, नाती, भतिजालगायतका नातेदारहरुलाई नियुक्त गरिएको पाइन्छ । जस्तै कानुन व्यवसायीहरूमध्येबाट न्यायाधीश नियुक्त भएकामा सुदर्शनदेव भट्ट ९रमेश लेखकका फुपुका छोरा०, सुवास पौडेल ९सर्वोच्चका न्यायाधीश जगदिश पौडेलका छोरा०, जनक पाण्डे, मुनिन्द्र अवस्थी ९पहिले शेरबहादुर देउवाका स्वकीय सचिव रहेका०, मदन पोखरेल ९पदम वैदिकको दाङस्थित फर्म पार्टनर०, ध्रुवराज नन्द ९न्यायपरिषद् सचिव कृष्ण गिरीको ससुरालीका साला०, रमेशकुमार निधि ९विमलेन्द्र निधिका भतिजा०, दीपेन्द्रबहादुर बम ९हत्या गरिएका न्यायाधीश रणबहादुर बमका छोरा० रहेका छन् ।
यसरी गरिएको न्यायाधीश नियुक्तिमा समावेशीको उल्लंघन हुनका साथै नातावाद हावी, राजनीतिक वाँडफाँड, अपारदर्शी प्रकृया र पूर्णतः सिद्धान्त विहिन, लोकतन्त्रमा न्यायालयको विश्वसनियताको क्षयीकरण भएको देखिन्छ ।
न्यायपरिषदको कार्यालयमा वा सर्वोच्च अदालतमा न्याय परिषदको बैठक नबसेर प्रधानन्यायाधीश सुशीला कार्कीको निवास वालुवाटारमा मध्यरातमा बैठक बसी रातारात छापामार शैलीमा नियुक्ती गर्नु कतिको जायज थियो रु बैठकमा दुई जना सदस्यहरु उपस्थित नभईकन रातारात मन्त्री तथा पार्टीको क्वाटर चहार्दै समर्थन लिदै, पार्टीको सिफारिसमा गरिएको नियुक्ती आफैमा शंकास्पद देखिन्छ ।
प्रधानन्यायाधीश सुशीला कार्की, कानुनमन्त्री अजय शंकर नायक र माओवादीद्वारा परिषद् सदस्य नियुक्तको लागीे नेता वर्षमान पुन नयाँ नियुक्ति गरिने न्यायाधीशहरूको नाम पढेर सुनाउथे, प्रधानन्यायाधीश कार्की ती नाम सदर गर्थिन् भन्ने समाचारहरु व्यापक फैलिएको छ ।) (शैलैन्द अम्बेडकर, कानन व्यवसायी, चिन्तक, विदान, लेखक तथा मानव अधिकारकर्मी को चिन्तनीय लेख से, १४ जनवरी–२०१७)

 



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  1. न्याय परिषद् की प्रमुख रही मन और मष्तिष्क से कोमल और समवत् मानी जाने बाली महिला न्यायमूर्ति ने भी संविधान तक का अवहेलना करना आश्चर्य के साथ बिडम्बना भी है । संविधान को व्याख्या करने बाली प्रमुख न्यायमूर्ति ने भी राजनीतिक दलों के साथ बैठकर राजनीतिक भागबण्डे और सम्प्रदाय के आधार पर न्यायिक संस्थाओं का ८० न्यायमूर्ति का चयन कैसे कर सकती है ?

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