प्रधानमंत्री ने हिन्दी में भाषण देकर बता दिया कि हिन्दी नेपाल की भाषा है : श्वेता दीप्ति
हिन्दी भाषा पर विवाद कितना उचित कितना अनुचित ? श्वेता दीप्ति
अभी ११ फरवरी को रौतहट के झिंगर्वा गाँव में एक कार्यक्रम के दौरान हमारे प्रधानमंत्री जी ने अपनी जो बातें रखीं वो उन्होंने हिन्दी में रखी । अपने १५ मिनट से अधिक समय के भाषण में सिर्फ पाँच मिनट उन्होंने नेपाली भाषा का प्रयोग किया बाकी १० मिनट तक हिन्दी का प्रयोग किया । सुखद आश्चर्य यह था कि काफी अच्छी हिन्दी का प्रयोग किया इन्होंने ।
श्वेता दीप्ति, काठमांडू ,१५ फरवरी |
भाषा का अस्तित्व सामाजिक होता है, क्योंकि यह जीवन से जुड़ा है । जहाँ भावनाओं को व्यक्त करने के लिए प्रत्येक प्राणी को इसकी आवश्यकता होती है । मानव चुँकि सामाजिक प्राणी है, इसलिए मानव द्वारा व्यक्त भाषा को सामाजिक भाषा कह सकते हैं । भाषा के प्रति एक भावनात्मक सोच जुड़ी होती है, इसलिए यह विवादित भी होती आई है । खास कर तब तब, जब इसे राजनीतिक रंग दिया गया है । क्योंकि नेताओं को जनता की कमजोरी पता होती है, इसलिए जब भी धर्म, परम्परा और भाषा की बात उठती है तो उसकी सुरक्षा और संरक्षण को राष्ट्रवाद से जोड़कर जनता की कोमल भावनाओं को उकसाने का काम किया जाता है और इसकी आड़ में राजनीतिक रोटी सेकी जाती है ।
हर राष्ट्र की अपनी एक भाषा होती है, जिसे राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक सम्मान देता है और स्वीकार करता है । हालाँकि यहाँ भी मतभेद की संभावना बनी रहती है, क्योंकि यह आवश्यक नहीं कि जिस भाषा को राष्ट्र की भाषा कह कर लागू किया जा रहा है उसे सभी स्वेच्छा से मान ही ले, फिर भी शतप्रतिशत हो न हो आंशिक तौर पर जनता इसे स्वीकार कर ही लेती है । किन्तु जब भी क्षेत्रीय भाषा का सवाल उठता है, तो हर नागरिक सोचता है कि उसके क्षेत्र की भाषा को संवैधानिक दर्जा हासिल हो और उसका कार्य क्षेत्र उस भाषा का प्रयोग करे । यह सामान्य सी बात है और इसे लागू करने में कोई संवैधानिक कठिनाई भी उत्पन्न नहीं होनी चाहिए क्योंकि, भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है और लोकतंत्र में इसकी छूट जनता को होती है । यह उसका मौलिक अधिकार होता है ।
नेपाल लोकतंत्र की राह पर अपने कदम बढ़ा चुका है और विडम्बना यह है कि नवनिर्मित संविधान अपने कई कारणों से विवादित है । जिसकी वजह से संविधान का कार्यान्वयन एक वर्ष से अधिक समय गुजरने के बाद भी अब तक सम्भव नहीं हुआ है । दलों की सहमति और असहमति की वजह से संशोधन की प्रक्रिया अटकी हुई है । इसी सन्दर्भ में भाषागत विवाद भी सामने है । नेपाली राष्ट्रभाषा है, इससे किसी को इनकार नहीं है, यहाँ बोली जाने वाली अन्य भाषाओं को संवैधानिक दर्जा देने की बात चल रही है । किन्तु जब भी अन्य भाषाओं के साथ ही हिन्दी को भी शामिल करने की बात सामने आती है तो सायास तरीके से विवाद सामने आ जाता है । इसे भारत की भाषा कह कर, विदेशी भाषा कह कर अवहेलित किया जाता है और इसके नाम पर राष्ट्रवाद की भावनाओं को उकसाने का काम किया जाता है । जबकि तथ्य तो यह है कि सूचीगत रूप में भले ही हिन्दी को गौण कर दिया गया हो, लेकिन सच्चाई यह है कि हिन्दी भाषी यहाँ हैं और हमेशा से रहे हैं । पर उसे सोची समझी नीति की तहत हाशिए पर रखा गया ।
हिन्दी का अस्त्तिव यहाँ हमेशा से रहा है और नेताओं ने भी इसका भरपूर प्रयोग किया है, खास कर तब जब उन्हें जनता से जुड़ने की जरुरत पड़ी है । मैथिली, भोजपूरी, अवधी आदि बोलना मुश्किल है, वहीं हिन्दी का प्रयोग ये आसानी से करते हैं । आज भी तराई की जनता नेपाली से अधिक हिन्दी समझती हैं और उनतक अपनी बात को पहुँचाने का सहज माध्यम हिन्दी ही है । इस सच को स्वीकार करना ही होगा । मैथिली भाषी, भोजपूरी भाषी, अवधी भाषी और नेपाली भाषी इन सबको एक दूसरे से जोड़ने का काम हिन्दी करती आई है, खासकर सीमावर्ती क्षेत्रों में ।
अभी ११ फरवरी को रौतहट के झिंगर्वा गाँव में एक कार्यक्रम के दौरान हमारे प्रधानमंत्री जी ने अपनी जो बातें रखीं वो उन्होंने हिन्दी में रखी । अपने १५ मिनट से अधिक समय के भाषण में सिर्फ पाँच मिनट उन्होंने नेपाली भाषा का प्रयोग किया बाकी १० मिनट तक हिन्दी का प्रयोग किया । सुखद आश्चर्य यह था कि काफी अच्छी हिन्दी का प्रयोग किया इन्होंने । चूँकि वह इलाका मुस्लिम बहुल इलाका है । उनकी भी माँग थी कि उर्दु को दर्जा दिया जाय । कार्यक्रम मुस्लिम कमिटी द्वारा आयोजित था इसलिए वहाँ जो भाषा प्रयोग हो रही थी वो उर्दु मिश्रित भाषा थी । जो समान्यता हिन्दी के काफी करीब है । क्योंकि अगर सिर्फ अरबी शब्दों का प्रयोग किया जाएगा तो वो सभी समझ नहीं सकते । इसलिए हिन्दी खुद ब खुद शामिल हो जाती है । यही कारण था कि वहाँ की जनता तक अपनी बात पहुँचाने के लिए हमारे प्रधानमंत्री ने हिन्दी का सहारा लिया । यह उदाहरण बताता है कि हिन्दी यहाँ जीवित है, जिसे स्वार्थवश मारा जा रहा है, या मारने की कोशिश की जा रही है । सिर्फ भारत की भाषा कह कर दुत्कारने का काम वही करते हैं जो भावनाओं को उकसाकर सत्ता तक पहुँचना चाहते हैं । जबकि जमीनी तौर पर हिन्दी को नकारने की कोई खास वजह नहीं है । इस देश के प्रायः जितने भी नागरिक रोजगार के लिए देश से बाहर जाते हैं, उनकी भाषा हिन्दी ही होती है, वो इसी का प्रयोग करते हैं बावजूद इसके इसपर राजनीति करने वालों की कमी नहीं है ।
कुछ दिनों पहले की घटना है, जब भारत में नोटबन्दी थी और पुराने नोटों की जगह नए नोट आ रहे थे । उस समय मेरी मुलाकात काठमान्डू में एक मित्र से हुई बातचीत के दरमियान उन्होंने कहा कि “ कस्तो छ भारतको नयाँ नोट ?” संयोगवश मेरे पास एक दो हजार का नोट था । मैंने कहा कि “म संग छ नयाँ नोट हेर्नु हुन्छ ?” उन्होंने कहा “हेरौं ।” मैंने नोट उनके आगे किया । नोट देखते के ही साथ उस वक्त सबसे पहला वाक्य जो उनकी जुबान से निकला वो ये था कि, “ओहो भारतको रुपिया म त नेपालीमा लेखेको छ ।” एक विशेष संतुष्टि और गर्व उनके चेहरे पर था । हालाँकि भारतीय नोट पर पहले भी अन्य भाषाओं की तरह नेपाली का भी प्रयोग होता आया है, पर शायद उन्होंने पहली बार गौर किया था । यहाँ इस घटना की चर्चा मैंने इसलिए की कि बहुत अच्छा लगता है जब आपकी भाषा, आपकी संस्कृति और परम्परा को अन्य जगहों पर भी उचित सम्मान मिले । जबकि हिन्दी तो यहाँ शुरुआती दौर से प्रयोग किए जाते रहे हैं । यहाँ की शैक्षिक प्रगति में उसका योगदान रहा है फिर उससे परहेज क्यों ? क्यों अन्य भाषाभाषी को यह डर सताने लगता है कि हिन्दी के आने से उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा । कम से कम अपनी भाषा पर इतना विश्वास तो करें कि जब तक किसी भी भाषा से प्यार करने वाले समाज में हैं और उस भाषा का व्याकरण और साहित्य है तो उस भाषा को कोई भी अन्य भाषा प्रभावित नहीं कर सकती । प्रत्येक भाषा की अपनी गरिमा है, खूबसूरती है और उससे हम सबको प्यार होना चाहिए । कहा जाता है कि आप जितनी भाषाओं के ज्ञाता होंगे आपकी विद्वता उतनी अधिक होगी । सामाजिक तौर पर हिन्दी को यहाँ प्यार मिलता रहा है, बस इसे एक स्थान देने की जरुरत है । अपनी राष्ट्रभाषा का सम्मान करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है और जिसका निर्वहन हमें अवश्य करना चाहिए किन्तु इसके लिए किसी भाषा विशेष को नकार कर अपनी राष्ट्रवादिता सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि राष्ट्रवाद कोई वाद नहीं है जिसे सत्ताप्राप्ति का साधन बनाया जाय यह एक स्वच्छ भावना है जो हमें जोड़ने का काम करती है, वहीं उग्र राष्ट्रीयता तोड़ने का । इसलिए अपनी सोच को खुला आकाश दें और हिन्दी भाषियों को भी उनकी भाषा को संविधान में उचित स्थान देकर संतुष्ट होने का अवसर दें ।
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