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मधेशी मुद्दों के पीछे विद्रोह की ताकत और शहादत की कहानी है : कुमार सच्चिदानन्द

madheshi mudda



आज देश के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है कि एक विखण्डनवादी प्रवृत्ति भी धीरे–धीरे देश के दक्षिणी भाग में पांव पसार रही है और ऐसी सभाओं में जनसहभागिता बढ़ती जा रही है । ऐसा तो किसी भी रूप में नहीं माना जा सकता है कि ऐसी सभाओं में भाग लेने वाले लोग विखण्डनवादी हैं


क्या हो हमारी राजनैतिक प्राथमिकताएं : कुमार सच्चिदानन्द, २४ फरवरी |
राष्ट्र भौगोलिक सीमा मात्र नहीं, यह एक ऐसी अवधारणा भी है जो समस्त देश के नागरिकों को एक सूत्र में बांधती है । एकता का यही भाव–बोध हमारी राष्ट्रीयता है जिसके तहत हम सभी मिलकर राष्ट्र के कल्याण की न केवल कामना करते हैं वरन् उसके उत्थान के लिए अपनी ओर से सम्यक् प्रयास भी करते हैं । लेकिन आज लोगों के बीच अनिश्चितता बोध की ऐसी व्यथा है जिससे पीडि़त होकर हम वर्तमान को समझ नहीं पाते और दूर तक की बात सोच नहीं पाते । इसी व्यथा से हमारी राजनीति भी पीडि़त है । यह सच है कि किसी भी देश के समक्ष उसकी अनेकमुखी समस्याएं होतीं हैं और इनके समाधान के लिए राजनैतिक दलों का अपना–अपना एजेण्डा भी होता है । कालान्तर में समस्याओं का समाधान भी होता रहता है । लेकिन आज नेपाल जिस तरह की अनेकमुखी समस्याओं से ग्रस्त है, उनके समाधान के लिए जिस तरह का स्वप्नद्रष्टा नेतृत्व अपरिहार्य है उसका यहां किंचित अभाव है । लेकिन नेतृत्व कैसा भी हो, हमें इस बात के प्रति संवेदनशील तो होना ही चाहिए कि हमारी प्राथमिकताएं क्या–क्या हैं ?
राजनैतिक दृष्टि से आज देश विषम परिस्थिति में है । व्यवस्था परिवर्तन हुए लगभग एक दशक हो चुका है और आज भी राजनैतिक अनिश्चतता की अवस्था देश में देखी जा रही है । नव संविधान का कार्यान्वयन आज देश के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरी है । इसके लिए स्थानीय निकायों का चुनाव आवश्यक माना जा रहा है । इस मुद्दे पर हमारी समग्र राजनीति चाहे विभाजित नहीं दिखलाई दे रही हो मगर देश लगभग विभाजित सा है । मौजूदा संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर मधेश की राजनीति करने वाले दल किसी भी हालत में चुनाव में जाना नहीं चाह रहे हैं और सरकार तथा विपक्षी चुनाव के लिए संकल्पित दिखलाई दे रहे है । कारण साफ है कि सरकार अगर चुनाव नहीं करा पाती तो यह उसकी असफलता मानी जाएगी और राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी किरकिरी होगी । विपक्षी इसलिए संकल्पित दिखलाई पड़ रहा है कि वर्जना और अस्वीकार्यता की जिस राजनीति को उसने हवा दी है उससे अपेक्षाकृत अधिक जनसंग्रह की अपेक्षा उसे है और इसी के माध्यम से वह स्थानीय चुनावों की तेज हवा में अपने नाव को किनारे तक पहुंचाना चाहता है । कुल मिलाकर जो स्थिति बन रही है वह टकराव की ओर देश को ले जा रही है और अगर ऐसा होता है, तो इसे किसी भी रूप में देश के लिए उपयुक्त नहीं माना जा सकता है ।

एक बात हमारे राजनैतिक दलों को समझना ही चाहिए कि संघीयता मधेश की प्रमुख मांग है और इसे मधेश ने तब उठायी जब अन्य राजनैतिक दल इसकी बात सोच भी नहीं रहे थे
सच है कि सत्ता राजनीति का महत् लक्ष्य होती है । लेकिन सामाजिक सद्भाव में खलल डालकर जो सत्ता हाथ में आए वह न तो स्थायी होती है और न ही शांतिपूर्ण । इसके द्वारा विकास का दीर्घ लक्ष्य भी पूरा नहीं किया जा सकता । दुर्भाग्य से आज हमारे देश के राजनेता इस गहन तथ्य को नहीं समझ पा रहे हैं और इसे अंगीकार करने की तो बात ही दूर है । वर्जना और घृणा की ऐसी राजनीति का दौर चल रहा है कि देश की लगभग आधी जनसंख्या की हर बात आज आलोचना का विषय बन जाता है और असंसदीय शब्दावलियां राजनैतिक दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं के आभूषण बन जाते है । इस तथ्य को कबूल किया ही जाना चाहिए कि राजनैतिक दलों की दूरदृष्टि के अभाव में एक ऐसा वर्ग तो बन ही गया है जो देश की विविधता को सम्मान नहीं करता । वह उनकी पहचान का मखौल उड़ाना अपना धर्म समझता हैं । इसलिए देश की राजनीति करने वाले दल चाहे जो भी हो मगर उसकी यह प्राथमिकता तो होनी ही चाहिए कि वह ऐसा प्रयास करे कि राष्ट्र के नागरिकों में एक–दूसरे के प्रति सम्मान का भाव बढ़े । यही भावना हमारी मजबूत राष्ट्रीयता का आधार बन सकती है ।
आज संविधान सभा के पटल पर संशोधन प्रस्ताव रखा जा चुका है जिसके पारित होने के आसार नजर नहीं आते जबकि इसे ही आगामी संवैधानिक यात्रा की चाबी मानी जा रही है । कारण साफ है कि दल विशेष के राजनैतिक दुराग्रह के कारण इसके पक्ष में संसदीय गणित नहीं है । तर्क यह दिया जाता है कि ९५ प्रतिशत सदस्यों ने जिस संविधान को अंगीकार किया और लगभग २०० सदस्य जिस संशोधन प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं उसके पक्ष में सहमति जुटाने के लिए सरकार क्यों प्रयासरत है ? महज पचास संविधान सभा सदस्यों की भावना की रक्षा के लिए सरकार दो सौ की अवहेलना क्यों करना चाहती है । इतिहास गवाह है कि नेपाल में कोई भी ऐसी व्यवस्था परिवर्तन नहीं हुई जो संसदीय गणित के आधार पर हुई है । क्रांति और विद्रोह कभी भी आंकड़ों को नहीं देखता । आज जिन मुद्दों को मधेशी दल अग्रसारित कर रहे हैं उसके पीछे अनेक विद्रोह की ताकत है और सैकड़ों शहादत की कहानी भी है । इसलिए इसे महज ५० संविधान सभा सदस्यों की अवधारणा कहकर खारिज नहीं किया जा सकता । अगर ऐसा होता है तो एक अन्य विद्रोह की जमीन तैयार ही रहेगी जो किसी भी रूप में देश के लिए विधायी नहीं हो सकती ।
आज देश के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है कि एक विखण्डनवादी प्रवृत्ति भी धीरे–धीरे देश के दक्षिणी भाग में पांव पसार रही है और ऐसी सभाओं में जनसहभागिता बढ़ती जा रही है । ऐसा तो किसी भी रूप में नहीं माना जा सकता है कि ऐसी सभाओं में भाग लेने वाले लोग विखण्डनवादी हैं । हां, इतना तो कहा ही जा सकता है इस संदर्भ में उनकी जिज्ञासा–वृत्ति बढ़ती जा रही है और किसी न किसी रूप में उनकी विद्रोही बातें उन्हें अच्छी लगने लगी है । यद्यपि सत्ता या शासन में इतनी ताकत होती है कि वह ऐसे विद्रोहों को सहज ही कुचल दे लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं हो सकता । अगर ऐसा होता तो विश्व के इतिहास में जिन शक्तिशाली राजवंशों का इतिहास है, वे शायद इसके खंडहरों में नहीं दबे होते और उनका शासन आज भी बरकरार रहता । इसे समान्य कहकर चुप बैठ जाना भी मूढ़ता होगी क्योंकि ऐसी मूढ़ता ही कभी माओवादी आन्दोलन के प्रति तत्कालीन शासन ने दिखलाई जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्र में परिवर्तन तो घटित हुआ लेकिन हजारों नागरिकों को अपनी कुर्बानी देनी पड़ी । इसलिए आज सबसे महत्वपूर्ण है कि देश में सामाजिक, राजनैतिक स्तर पर जो एक विभाजनरेखा दिखलाई दे रही है उसे यथाशीघ्र पाटा जाए ।
सच है कि किसी भी देश के लिए संविधान महत्वपूर्ण है और उससे भी महत्वपूर्ण है उसकी जनस्वीकार्यता । इसके अभाव में कोई भी संविधान चिरस्थायी नहीं हो सकता । इससे पूर्व भी कई संविधानों के बनने और अस्वीकृत होने का साक्षी यह देश स्वयं रहा है । इसलिए आज जिन बातों को अनावश्यक कहकर अवहेलित किया जा रहा है, वह इसलिए महत्वपूर्ण है कि वर्तमान समय में किसी राजनैतिक सौदेबाजी और समझौते के तहत इसे अस्वीकार कर भी दिया जाए तो यह अपने गर्भ में असन्तोष का बीज छुपाकर रखेगी और कभी भी अनुकूल समय आने पर यह अंकुर वृक्ष का रूप धारण कर सकता है । राजनीति तब तक परिपक्व नहीं मानी जा सकती जब तक लचीलापन उसकी प्रवृत्ति न बन जाए । इसके अभाव में राजनीति चाहे वह लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही क्यों न हो, तानाशाही की याद दिलाती है । ऐसी राजनीति देश के लिए कभी भी विधायी नहीं हो सकती ।
आज नेपाल के राजनैतिक वृत्त में परिवर्तनकामियों को ‘लम्पसारवादी’ कह कर मजाक उड़ाया जाता है । इसके बदले ‘सिर ऊंचा रखने’ की बात कही जाती है । सही मायने में राजनैतिक वृत्त में इन दोनों में से किसी को आदर्श नहीं माना जा सकता । दबाव के समक्ष लेट जाना समर्पण का प्रतीक है और हमेशा सिर को ऊंचा रखने की बात अहंकारी मानसिकता का विश्लेषण करता है । हमेशा सिर ऊंची रखने की आदत कभी–कभी हमें कठिनाइयों में भी धकेलती है । स्वाभाविक ही है कि अवरोधों को देखकर सिर झुकाने की आदत अगर हमारी नहीं रहे तो हम जानबूझ कर समस्याओं को आमंत्रित करते हैं और इसी का परिणाम विगत वर्ष का तराई आन्दोलन या मधेश विद्रोह को माना जा सकता है जिसके कारण देश में चरम अभाव की सृजना हुई थी और जनजीवन अत्यन्त कष्टकर हुआ था । यह सच है कि मधेश का यह विद्रोह असफल सा दिखा जिसमें तत्कालीन सरकार के अतिरिक्त आम मधेशी जनों की भूमिका भी कम नहीं रही । लेकिन इसे राजनेैतिक रूप से कोई दल अपनी जीत समझता है तो यह उचित नहीं है क्योंकि किसी न किसी रूप में इसने आमलोगों में नयी चेतना और एकसूत्रता स्थापित करने की कोशिश की है ।
यह सच है कि लोकतंत्र विश्व की सबसे लोकप्रिय शासन प्रणाली है । नेपाल में तो लोकतंत्र का आगमन वि.सं २०४६ साल के जनान्दोलन के परिणामस्वरूप माना जाता है । यह अलग बात है कि यहां संवैधानिक राजतंत्र और बहुदलीय प्रजातंत्र के दो पहियों पर लोकतंत्र की गाड़ी चल रही थी । लेकिन आगामी १६ वर्षों में यहां के राजनैतिक दलों का जो चरित्र उभर कर सामने आया उसमें जनता की नजरों में एक तरह से उनकी लोकप्रियता लगभग शून्य की स्थिति में थी । यही कारण था कि महाराज वीरेन्द्र की सपरिवार हत्या के बाद देश में जो अप्रत्याशित राजनैतिक घटनाक्रम घटित हुआ जिसके परिणामस्वरूप तत्कालीन नरेश ने सत्ता अपने हाथों में ली तो उन्हें तत्काल किसी जनअसंतोष या विद्रोह का सामना नहीं करना पड़ा । महीनों तक राजनैतिक दलों के नेताओं द्वारा सार्वजनिक रूप से राजा के इस कदम के प्रति विरोध नहीं हो सका क्योंकि उनकी सभाओं में जनसहभागिता नगण्य होती थी । वि.सं २०६३ में अन्तरिम संविधान को स्वीकार करने के बाद आज तक की जो राजनैतिक यात्रा है उसके मद्देनजर आज भी हालात लगभग वैसे ही हैं । अन्तर यह है कि सत्ता के शिखर पर कोई अतिवादी मनोविज्ञान काबिज नहीं है । अन्यथा देश को इन दलों ने मिलकर हालात तो ऐसा पैदा कर ही दिया है कि कोई भी अतिवादी शक्ति अगर सत्ता हस्तगत करती है तो जनता फिर उसे आजमाने के मनोविज्ञान में चली जाएगी और सारे दल तथा उनके वे नेता जो अपने को तीसमार खां समझ रहे हैं, हथेलियों को मलते रह जाएंगे ।
एक बात हमारे राजनैतिक दलों को समझना ही चाहिए कि संघीयता मधेश की प्रमुख मांग है और इसे मधेश ने तब उठायी जब अन्य राजनैतिक दल इसकी बात सोच भी नहीं रहे थे । मौजूदा संविधान संघीयता को न केवल अंगीकार किया है वरन इसके अनुसार देश कई कदम आगे भी बढ़ चुका है । आज स्थिति यह है कि राजनैतिक दलों का कोई भी कदम जो संघीयता के मार्ग को कमजोर करता है उसे देश के लिए सकारात्मक नहीं माना जा सकता । आज भी कुछ दल और इनके नेता ऐसे हैं जो यह तर्क देते आ रहे हैं कि संघीयता देश के लिए प्रत्युदपाक है तो ऐसी बातों को समय के सन्दर्भ में बेसुरा राग कहा जा सकता है । आज संघीय स्वरूप में देश की प्रादेशिक संरचना और स्थानीय निकायों का भावी स्वरूप विवाद का विषय है । निश्चित ही इसका कारण एक कमजोर प्रदेश का निर्माण करने की सोच मात्र है । गौरतलब है कि जब मधेश ने संघीयता की मांग की थी, तो उसका उद्देश्य एक कमजोर और लुंज–पुंज प्रदेश नहीं, एक ऐसे प्रदेश की संरचना थी जिसमें देश के अन्तर्गत रहते हुए उसे आत्मनिर्णय का अधिकार हो । इससे कम मधेश को नहीं चाहिए और अगर इससे कम पर मधेशी दल समझौता करते हैं तो यह उनके लिए आत्मघाती कदम तो, होगा ही, ऐसे प्रदेश की अवधारणा को साकार कर मधेश को लम्बे समय तक शांत और सन्तुष्ट रखा भी नहीं जा सकता ।
आज हमारे समक्ष कई मुद्दे और चुनौतियां हैं । नदियों का पानी निरन्तर बह रहा है और जलशक्ति होते हुए भी बिजली के लिए दूसरे देशों पर हमारी निर्भरता बढ़ रही है । समय के साथ–साथ आम लोगों की जनाकांक्षाएं बढ़ रही है और तीव्र विकास उनका सपना बन गया है । अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारी कूटनैतिक अविश्वसनीयता बढ़ी है । संवैधानिक अनिश्चितता और स्थिर सरकार तो देश का सपना सा बन गया है । कहा जा सकता है कि अनेक मुद्दे हैं जो समाधान की राह देख रहे हैं और हमारा देश राजनैतिक द्वन्द्व में उलझा हुआ है और टकराव की दिशा में बढ़ रहा है । इसलिए हमें चाहिए कि अतिवाद को छोड़ समय की नब्ज को समभेंm और देश को एक बेहतर संभावनायुक्त दिशा दें ।



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