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Ghoda-yatra



काठमांडू, मार्च २८ ।  काठमांडू, ललितपु व भक्तपुर के नेवार समुदायों ने आज धूमधाम से चतुर्दशी के रूप में घोडेÞ यात्रा मनाया । यह यात्रा तीन दिनों तक धूमधाम से मनाया जाता है । किंबदन्ती के अनुसार घोडेÞ यात्रा की सांस्कृतिक महत्ता विशाल है । इस पर्व का जन्म तत्कालीन नेपाल नरेश गुणकामदेव के समय में हुआ । और उनके कार्यकाल में ही यह यात्रा आधुनिक रूप में निखरा भी । तब से लेकर आज तक हर वर्ष चैत महीने के चतुर्दसी की रात्रि में नेवार जाति छुपे हुए महादेव (लुकु माःद्य) को निकाल कर पांहा चद्दे अर्थात्ः पिशाच चतुर्दशी मनाते हैं । बताया जाता है कि महादेव के पिशाच रूप धारण करने की वजह से यह पिशाच चतुर्दशी कहलायी । महादेव को जिस स्थान से निकाला जाता है उसे लुकु माःद्य का प्रतीक मानकर उस पवित्र भूमि की भी पूजा की जाती है । इसलिए संस्कृतिविदों ने इसे पृथ्वी पूजा के रूप में भी लिया है । इस पूजा में महादेव को लहसून, मूली, मांस, मंदिरा आदि चढ़ाते हैं । माना जाता है कि इस पर्व में लहसून और मूली के प्रयोग का अर्थ विभिन्न रोगों से लड़ने की क्षमता में वृद्धि करता है ।
चैत्त कृष्ण चतुर्दशी के दिन काठमांडू में उग्रतारा, नरसिंह, श्वेत काली, कंकेश्वरी, टंकेश्वरी और भद्रकाली की पूजा की जाती है । इसी रात्रि को टुंडिखेल में और दोपहर में असन नामक स्थान पर देवियों की डोली को आपस में टकराने के बाद भव्य शोभा यात्रा के साथ नगर परिक्रमा करने की परंपरा रही है । इसी प्रकार चतुर्दशी की रात्रि में काठमांडू के नरदेवी मंदिर के प्रांगण में नरदेवी के परंपरागत नाच का प्रदर्शन किया जाता है । इसी दिन भक्तपुर के किसान पुआल का घोड़ा बनाकर वाद्ययंत्रों को बजाते हुए उसे शहर में घुमा कर इस यात्रा को मनाते हैं । अगले दिन काठमांडू के टुंडिखेल और ललितपुर के बालकुमारी में घोडेÞ यात्रा शुरु होती है । सैनिक मंच टुंडिखेल में राष्ट्रप्रमुख की उपस्थिति में सैनिकों द्वारा अश्व कलाओं का प्रदर्शन किया जाता है । मौके पर उन्हें ३१ तोपों की सलामी दी जाती है । ललितपुर के ऐतिहासिक पाटन दरबार के आगे घोड़े दौड़ाकर प्रत्येक वर्ष यह यात्रा शुरु होती है और ललितपुर के ही बालकुमारी पहुँच कर समाप्त होती है । तत्पश्चात बालकुमारी को पालकी में रखकार पाटन में घुमाया जाता है ।
प्राचीन समय में कांतिपुर में महामारी फैलने पर सभी के कल्याण हेतु मलःजा नकेगु कह कर काठमांडू के हर मुहल्ले में काया पूजा करने की परंपरा रही है । समग्रतः कहा जा सकता है कि एक ओर जहां इस जात्रा से सांस्कृतिक मनोरंजन होता है, वहीं दूसरी ओर आपसी मिलन और एकता पर्व के रूप में भी इसका विशेष महत्व है ।

 



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