Thu. Mar 28th, 2024
Buddhiman Tamang
बुद्धिमान तामाङ, उपाध्यक्ष राष्ट्रीय प्रजातन्त्र पार्टी (राप्रपा)

राष्ट्रीय प्रजातन्त्र पार्टी (राप्रपा) के चिर–परिचित नेता हैं– बुद्धिमान तामाङ । पञ्चायतकाल से ही राजनीति में सक्रिय तामाङ विभिन्न कालखण्ड में बहुत बार मन्त्री भी हो चुके हैं । गत महीना सम्पन्न एकता (राप्रपा और राप्रपा नेपाल के बीच) महाधिवेशन में तामाङ ने सर्वाधिक मत हासिल किया है । महाधिवेशन के बाद चयनित पदाधिकारियों में तामाङ ने पार्टी उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी भी प्राप्त की है । नेता तथा राप्रपा उपाध्यक्ष बुद्धिमान तामाङ के साथ हिमालिनी संवाददाता लिलानाथ गौतम ने पार्टी महाधिवेशन एवं समसामयिक राजनीतिक विषयों में बातचीत किया है । प्रस्तुत है– बातचीत का सम्पादित अंश–
० विभिन्न समूह में विभाजित राष्ट्रीय प्रजातन्त्र पार्टी को आप लोगों ने एक बनाकर एकता–महाधिवेशन भी संपन्न किया है, अब आगे की यात्रा कैसी रहेगी ?
– हाँ, एक समय तीन समूहों में विभाजित पार्टी, आज एक हो गई है । प्रजातान्त्रिक मूल्य–मान्यता में विश्वास रखनेवाले आम जनता के लिए यह सुखद अनुभूति है, जिसने हम लोगों को उत्साहित किया है । विगत में विभिन्न समूह में विभाजित रहते वक्त हमारी शक्ति कमजोर दिखाई देती थी, अब वैसी अवस्था नहीं है । संघीयता, गणतन्त्र तथा धर्मनिरपेक्षता के नाम में देश में जो अराजकता सिर्जित हो रही है, उसको अन्त करके देश को सही दिशा–निर्देश करने में अब यह शक्ति सक्षम हो पाएगी, यह हमारा विश्वास है ।
० महाधिवेशन के बाद चयनित पार्टी पदाधिकारियों में सिर्फ उपाध्यक्ष और महासचिव ही नहीं, पार्टी प्रवक्ता की संख्या भी एक से ज्यादा दिखाई दे रही है । लगता है कि भाग–बण्डा की राजनीति के कारण ऐसा हो रहा है ! है न ?
– भाग–बण्डा के कारण ही ऐसा हुआ है, यह तो आप गलत समझ रहे हैं । पार्टी विधान के अनुसार ही पार्टी उपाध्यक्ष, महासचिव और प्रवक्ता को चयन किया गया है ।
० लेकिन मेरे ख्याल से तो पार्टी में सिर्फ एक ही प्रवक्ता होते हैं, लेकिन आप लोगों ने तो तीन–तीन लोगों को चयनित किया गया है, क्यों ?
– सामान्यतः राजनीतिक पार्टी सञ्चालन करने का दो तरीका प्रचलित है । एक सामूहिक नेतृत्व, दूसरा अध्यक्षात्मक नेतृत्व । सामूहिक नेतृत्व में प्रायः महत्वपूर्ण पदाधिकारी निर्वाचित होकर आते हैं । लेकिन हमारी पार्टी अध्यक्षात्मक नेतृत्व में सञ्चालित पार्टी हैं । राप्रपा पार्टी विधान के अनुसार ६० प्रतिशत केन्द्रीय सदस्य निर्वाचित होते हैं और ४० प्रतिशत मनोनित किया जाता है । इसीलिए पार्टी सञ्चालन की खातिर अध्यक्ष को सहयोग करने के लिए कुछ पदाधिकारी मनोनित किया जाता है । आवश्यकता के अनुसार योग्य सदस्य को पार्टी अध्यक्ष विभिन्न जिम्मेदारी देकर मनोनित करते हैं । जिस को हम पार्टी अध्यक्ष की क्याविनेट भी कहते हैं । इसी क्रम में मुझे भी उपाध्यक्ष में मनोनित किया गया है । क्याविनेट में कौन–कौन सदस्य, किस–किस जिम्मेदारी में रहते हैं, इसमें अध्यक्ष स्वतन्त्र हैं । जहां तक आपने पार्टी प्रवक्ता ज्यादा होने की बात कही है, यह तो हमारी पार्टी विधान के अनुसार ही हुआ है । मैं विधान समिति का संयोजक भी हूँ । अनावश्यक और अवैधानिक रूप में कोई भी प्रवक्ता चयन नहीं किया गया है । संशोधित विधान में हम लोगों ने तीन प्रवक्ता और सहायक प्रवक्ता रहने की व्यवस्था की है । हाँ सामान्यतः एक पार्टी के भीतर एक ही प्रवक्ता होने का प्रचलन है । लेकिन सिर्फ एक ही होना चाहिए, ऐसा नहीं हो सकता । पार्टी के विभिन्न विभाग होते हैं, विभाग के अनुसार प्रवक्ता चयन किया जाता है । सिर्फ हमारे यहां ही नहीं, पड़ोसी मुल्क भारत में भी भारतीय जनता पार्टी के अन्दर ५–७ प्रवक्ता हैं ।
० बहुत लोग राप्रपा को परम्परावादी शक्ति के रूप में मानते हैं, कुछ लोग तो परिवर्तन विरोधी भी कहते हैं । विशेषतः राजसंस्था और हिन्दू धर्म सम्बन्धी विषयों को लेकर ऐसा कहा जाता है । राजसंस्था सम्बन्धी विषयों को लेकर ही पार्टी एकता में विलम्ब हो गया था । बहुत लोगों का कहना था कि एकता के बाद राप्रपा राजसंस्था छोड़ देगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ । व्यवहारिक राजनीति में गणतन्त्र, संघीयता और धर्मनिरपेक्षता जैसी व्यवस्था है । संविधान ने भी इसी व्यवस्था को स्वीकार किया है । आप लोगों में ऐसा विरोधाभाष क्यों ?
– पहली बात, हम लोग परिवर्तन विरोधी नहीं हैं । जनता क्या चाहती है और देश की आवश्यकता क्या है, उसके अनुसार राज्य व्यवस्था होनी चाहिए, यह हमारी भी मान्यता है । लेकिन जनता की चाहत और मांगों को सम्बोधन करते वक्त समग्र देश और जनता को कोई नुकसान तो नहीं पहुँचता ? इस की ओर ध्यान देना चाहिए । कल जो राप्रपा था, उसने राजसंस्था पुनस्र्थापना की बात नहीं की थी, सिर्फ धर्मनिरपेक्षता का

माओवादी ने जो दस वर्षीय सशस्त्र युद्ध किया, उस को अंत करने के लिए हम लोगों ने किस का सहयोग लिया ? २२ सूत्रीय समझौता कहां किया गया ? दिल्ली में ही हुआ था, है न ! क्यों तत्कालीन सात दल और माओवादी दिल्ली जा कर वह संमझौता किया ? इसीलिए भारत को दोषी करार देने से पहले अपना मुँह कैसा है, यह भी देखना चाहिए ।
विरोध किया था । जब राप्रपा और राप्रपा नेपाल के बीच पार्टी एकीकरण किया गया, उसके बाद हिन्दू धर्म सापेक्ष राष्ट्र और सांस्कृतिक राजा की बात हम लोगों ने किया है । हाँ, मैं जानता हूँ कि हमारा कुछ मुद्दा संविधान के अनुसार नहीं है । लेकिन वर्तमान संविधान तथा राज्य व्यवस्था को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ने का फैसला हम लोगों ने किया है । साथ में अपने मत और विचार को जनता में ले जाने का निर्णय भी किया है । एक बात याद रखिए, सांस्कृतिक राजा सम्बन्धी परिकल्पना हचुवा में नहीं आया है । नेपाल में जिस तरह की भौगोलिक तथा सामाजिक संरचना है, उसकी एकता के लिए भी सांस्कृतिक राजा एवं राजसंस्था की आवश्यकता पड़ती है, यह हमारा मूल्यांकन है । हमारे देश में १३० से ज्यादा जातजाति हैं, १२५ से ज्यादा भाषा–भाषी हैं । व्यक्तिगत, समूहगत और राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित हो कर इन जात–जाति, भाषा–भाषी और धर्म–सम्प्रदाय बीच में वैमनस्यता सिर्जना करनेवाले भी सक्रिय हो रहे हैं । हम चाहते हैं, ऐसा न हो । इस विविधता को सम्बोधन कर इकठ्ठा रखने के लिए भी सांस्कृतिक एकता के प्रतीक स्वरूप राजसंस्था आवश्यक हो जाती है । जहा तक धर्म निरपेक्षता की बात है, उस में भी राजनीति हो रही है । हम लोग बहुसंख्यक जाति, भाषा और समुदाय के लिए पहचान की बात करते हैं, लेकिन जिस देश में बहुसंख्यक हिन्दू धर्मावलम्बी रहते हैं, क्या उस की पहचान आवश्यक नहीं है ? इसीलिए पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता सहित हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना राप्रपा ने किया है ।
० क्या आप को लगता है कि आज की नयी पीढ़ी राजसंस्था को पुनस्र्थापित करने में सहमत हो जाएगे ?
– राजनीति में आज जिस तरह की असमंजसता है और राजनीतिक सहमति और भाग–बण्डा के नाम में जो सिण्डिकेट चल रहा है, अगर ऐसी ही हांलत कायम रहेगी तो जनता खुद राजसंस्था की ओर आकर्षित होने लगेगी । इसीलिए यह नहीं हो सकता, ऐसा कहना नहीं चाहिए । विश्व के कई देशों में भी ऐसा हुआ है, जहां राजसंस्था को हटाने के कई साल बाद पुनस्र्थापित किया गया है । इसीलिए वक्त लग सकता है, लेकिन राजसंस्था की वापसी नामुमकिन नहीं है । अभी राजनीति में जो विकृति और अराजकता दिखाई दे रही है, जब राजसंस्था थी तो, क्या इस तरह का तांडव होता था ? नहीं । इसीलिए संवैधानिक और संसद् के मातहत रहनेवाला राजसंस्था तथा सांस्कृतिक राजा की बात हम लोगों ने कहीं है ।
० समसामयिक बात करें, सरकार ने वैशाख ३१ गते के लिए स्थानीय चुनाव की घोषणा की है । राप्रपा का कहना है कि मधेशी मोर्चा को सहमति में लाकर ही चुनाव करना चाहिए । उसी काम के लिए सरकार ने संसद् में संविधान संशोधन प्रस्ताव पंजीकृत किया है, लेकिन राप्रपा उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर रहा है । ऐसा विरोधाभास चरित्र क्यों ? संविधान–संशोधन के प्रति आप लोगों का दृष्टिकोण क्या है ?
– पहली बात, कांग्रेस–माओवादी के वर्तमान गठबन्धन ने संविधान संशोधन विधेयक के सम्बन्ध में हमारे साथ कोई भी बातचीत नहीं की गई है । इस में हमारी घोर आपत्ति है । हां, संविधान गतिशील दस्तावेज है, आवश्यकता अनुसार संशोधन किया जा सकता है । अभी जो हांलात है, ऐसी अवस्था में मधेशी मोर्चा की सहभागिता के बिना चुनाव में जाना नहीं चाहिए, यह राप्रपा का स्पष्ट दृष्टिकोण भी है । निर्वाचन में जाने के लिए संविधान में कुछ संशोधन तत्काल किया जा सकता है । लेकिन कुछ ऐसा मुद्दा भी है, जिस में तत्काल संशोधन नहीं किया जा सकता । मोर्चा द्वारा प्रस्तुत भाषा, नागरिकता, राष्ट्रीयसभा–सदस्य चयन तथा प्रतिनिधित्व, स्थानीय तह सम्बन्धी विषयों में सहमति कर चुनाव कराया जा सकता है । लेकिन इसमें भी दोनों पक्ष स्पष्ट होना चाहिए । एक–दूसरे को निषेध करते हैं तो, सहमति सम्भव नहीं है । जहाँ तक प्रादेशिक राज्य की सीमांकन सम्बन्धी मुद्दा है, उस को तत्काल स्थागित करना ठीक रहेगा ।
० आपने कहा है कि नागरिकता और भाषा विवाद को समाधान कर सकते हैं । क्या अंगीकृत नागरिक को संवैधानिक पद देने के लिए आप लोग तैयार हैं ?
– राजनीति में अंगीकृत नागरिकों को राज्य की प्रमुख संवैधानिक पद देने का प्रचलन सामान्यतः नहीं है । लेकिन इस में हम लोग बहस कर सकते हैं । दो पक्षों में से कौन कितना लचीला हो सकता है, यह बात तो विचार विमर्श के बाद ही तय हो सकती है । भाषा सम्बन्धी मुद्दा में भी यही बात लागू होती है । संविधान में भी ऐसी व्यवस्था है कि नेपाल में जितनी भी भाषा बोली जाती है, उसको संवैधानिक मान्यता मिल जाएगी ।
० हमारे यहां तो हिन्दी भाषा को लेकर विवाद करने वाले बहुत हैं । आज जो दो नम्बर का प्रदेश हैं, क्या उस प्रदेश में कल हिन्दी भाषा को सरकारी कामकाजों की भाषा बनायी जाएगी तो, स्वीकार्य हो सकता है ?
– यह तो उस प्रदेश के अधिकार की बात है । उसमें मैं कुछ कहूँ तो, ठीक नहीं है । अगर वहां बहुसंख्यक जनता हिन्दी बोलते हैं, लिखते हैं और समझते हैं तो हिन्दी भाषा को क्यों प्रयोग में नहीं लाया जा सकता ? अपने प्रदेश में किस भाषा को सरकारी कामकाजी भाषा बनाने से बेहतर होगा, यह तो प्रदेश संसद् की बहुमत से निर्धारित कर सकता है ।
० मुख्य विवाद सीमांकन में हैं, उसको कैसे समाधान किया जा सकता है ?
– विश्व जगत के लिए ही नेपाल एक ऐसा नमुनायोग्य देश है, जहां हिमाल, पहाड़ और तराई का भू–बनावट है । और हवा–पानी भी अलग–अलग है । विविधता से परिपूर्ण देश हमारा परिचय है । इन तीनों क्षेत्रों में रहनेवाली जनता के बीच आपसी सद्भाव खलल नहीं होना चाहिए । पहाड़ को सन्तुष्ट करते हैं तो मधेश असंतुष्ट नहीं होना चाहिए, मधेश को संतुष्ट करते हैं तो पहाड़ असंतुष्ट नहीं होना चाहिए । अभी वही असंतुष्टि व्यक्त हो रहा है । इसीलिए वृहत विचार–विमर्श और सहमति के बाद ही इस मुद्दा में अंतिम निर्णय ले सकते हैं ।
० आप के व्यक्तिगत विचार में सीमांकन संबंधी मुद्दा को कैसे हल किया जा सकता है ?
– पहली बात, मैं भूगोलविद् तथा सीमाविद् नहीं हूँ । इसीलिए इसके संबंध में मुझे ज्यादा नहीं बोलना चाहिए । लेकिन समस्या का समाधान तो करना ही है । कैसे किया जाएगा ? इसकी जिम्मेदारी विज्ञ का समूह बनाकर उस को देना बेहतर होगा, जो समग्र पक्ष का अध्ययन कर सीमा निर्धारण कर सके । मेरे खयाल से हिमाल–पहाड़–तराई को जोड़ कर संघीय राज्य निर्माण करते हैं तो विकास का पूर्वाधार और समृद्धि का आधार सभी राज्य को समान मिल सकता है । अगर ऐसा नहीं किया जा सकता है तो नीयत साफ होनी चाहिए । उसके बाद मधेशी मोर्चा की मांग के अनुसार भी सीमांकन किया जा सकता है, हिमाल–पहाड़–तराई को जोड़ कर भी संघीय राज्य बना सकते हैं । लेकिन यहां तो एक समूह कहता है– ‘मधेश में पहाड़ को नहीं मिलाना चाहिए ।’ दूसरा कहता है– ‘मधेश तो हम नहीं छोड़ सकते हैं ।’ यह दोनों अतिवादी सोच है । व्यक्तिगत और राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित होकर सीमांकन संबंधी मुद्दा में बहस किया जा रहा है । यह ठीक नहीं है । ऐसी अवस्था में संशोधन के सम्बन्ध में संसद् में जो प्रस्ताव पंजीकृत किया गया है, अगर उसको पास किया जाता है, तब भी असंतुष्टि रहती है, पास नहीं किया जाता, तो भी असंतुष्टि कायम रहती है । दूसरी बात, सीमांकन सम्बन्धी विषयों को बहुमत और अल्पमत की मुद्दा बनाना नहीं चाहिए । यहां तो सिर्फ पार्टी–पार्टी के बीच ही विवाद नहीं है, एक ही पार्टी के अंदर भी विवाद है । एक ही पार्टी में रहनेवाले कुछ नेता सीमांकन परिवर्तन के पक्ष में दिखाई देते हैं कुछ विपक्ष में । स्वयम् मधेश से प्रतिनिधित्व करनेवाले नेताओं के बीच में भी ऐसा ही विरोधाभास है । इस तरह सीमांकन सम्बन्धी मुद्दा में आवश्यकता से ज्यादा बहस किया जा रहा है । विवाद हल करने का अंतिम अस्त्र सहमति ही है, जहां राजनीतिक स्वार्थ हावी नहीं होनी चाहिए । अगर विषय विशेषज्ञ को यह जिम्मेदारी सौंप देते हैं तो समस्या का समाधान हो सकता है । उसके लिए कुछ वक्त लगेगा । इसीलिए तत्काल के लिए इस मुद्दा को स्थगित करना चाहिए और घोषित चुनाव सम्पन्न कराना चाहिए । चुनाव के बाद विशेषज्ञों की राय अनुसार सीमांकन पुनारावलोकन कर सकते हैं, इस में सभी पक्षों को आना ही होगा ।
० बहस होने लगी है कि प्रचण्ड नेतृत्व की वर्तमान सरकार असफल हो चुकी है, मधेशी मोर्चा को सहमति में लाकर संविधान संशोधन नहीं हो पाया है, इसलिए अब वर्तमान सरकार का विकल्प सोचना चाहिए । इस में राप्रपा की भूमिका कैसी रहेगी ?
– प्रतिनिधित्व की सवाल में राप्रपा के कुछ मित्र भी सरकार में शामिल हैं । लेकिन कल जो राप्रपा थी, उससे कई ज्यादा शक्तिशाली आज की राप्रापा है । कल १२ सांसद् होते वक्त दो मन्त्री पद दिया गया था । आज ३७ सीट सहित हम लोग संसद् में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं । इस का सही मूल्यांकन भी होना चाहिए, इस तरह का विचार भी आ रहा है । लेकिन पार्टी के अन्दर सरकार के विकल्प में कोई भी बहस नहीं हुई है । जहां तक प्रचण्ड नेतृत्व की वर्तमान सरकार की सफलता और असफलता की बात है, सिर्फ प्रचण्ड ही नहीं प्रमुख तीन पार्टियां भी असफल सिद्ध हो चुकी है । ०६२–०६३ साल के बाद ये तीन पार्टी ही सत्ता का नेतृत्व कर रही है । इनकी असफलता के कारण ही आज देश ऐसी अवस्था में है, जहां मधेश और पहाड़ दोंनो क्षेत्र आन्दोलित हैं । यह तीन दल के जरिए राजनीति में जो सिण्डिकेट खड़ा किया जा रहा है, उस को खत्म किए बगैर समस्या का समाधान नहीं हो सकता ।
० घोषित वैशाख ३१ का चुनाव सम्भव है या नहीं ?
– घोषित चुनाव को राप्रपा ने स्वागत किया है । इस चुनाव को नीयतबस रोकना नहीं चाहिए । इतना होते हुए भी हमारी मान्यता है कि मधेश से प्रतिनिधित्व करनेवाले प्रमुख दल को बाहर रख कर चुनाव कराना ठीक नहीं है । अगर मधेशी मोर्चा को अनदेखा करके चुनाव करते हैं तो बाद में समस्या हो सकती है । सिर्फ मधेशी ही नहीं, विभिन्न जनजाति समूह भी अपना असन्तुष्टि जता रहे हैं, उनकी मांगों का भी सम्बोधन होना चाहिए । हां, प्राविधिक रूप में तो चुनाव को सफल ढंग से संपन्न किया जा सकता है । क्योंकि मधेश में सिर्फ मधेशवादी पार्टी ही नहीं, कांग्रेस, एमाले, माओवादी, राप्रपा जैसे बहुत सारी पार्टियां है, जिसके पास मधेशी मोर्चा से ज्यादा ही जन प्रतिनिधि है । वह सभी चुनाव में सहभागी हो जाते है । जनता भी मतदान में सहभागी हो जाएंगी । लेकिन इस तरह चुनाव करना ठीक नहीं है । मधेशवादी कह कर हम लोग, जिस समूह को पहचानते हैं, वह भी वहां की एक राजनीतिक शक्ति है । इसीलिए मधेश में स्थापित राजनीतिक समूह को अलग रखकर चुनाव करना ठीक नहीं है । अगर मोर्चा को इन्कार किया जाता है तो वहां अतिवादी समूह हावी हो सकता है । आज तराई में विखण्डनकारी सीके राउत समर्थित कुछ लोग भी है । वे लोग भोलीभाली जनता को भड़का रहे हैं । इसीलिए इस संबंध में वक्त रहते ही संवेदनशील बनना चाहिए । नहीं तो अन्तहीन राजनीतिक द्वन्द्व और गृहयुद्ध में फंस सकते हैं । इसको रोकना चाहिए ।
० विखण्डनवादी विचार को कैसे निस्तेज किया जा सकता है ?
– तराई में रहनेवाले मधेशी हो अथवा हिमाल–पहाड़ में रहनेवाले तामाङ, राई, लिम्बु –हम सब नेपाली हैं । इस यथार्थता और विविधता को स्वीकार करना चाहिए । तराई में रहनेवाले नेपाली दक्षिणी सीमा को सुरक्षा कर सिपाही का काम कर रहा है तो पहाड़–हिमाल में रहनेवाले उत्तरी सीमा को सुरक्षा प्रदान कर रहे है । इन दोनों के समान योगदान के कारण ही आज नेपाल एक राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में है । जब ये दोनों समूह आपस में ही लड़ जाएँगे तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा । इसीलिए इन दोनों पक्षों को राज्य की तरफ से उचित सम्मान मिलना चाहिए । विखण्डनकारी को प्रोत्साहित करने का जो वातावरण बन रहा है, उसको बंद करना चाहिए ।
० ऐसे वातावरण का निर्माण करनेवाले कौन है ?
– कांग्रेस, एमाले, माओवादी और मधेशवादी जैसे प्रमुख दल ही इसके लिए मुख्य जिम्मेदार है । विशेषतः कांग्रेस, एमाले और माओवादी के राजनीतिक सिण्डिकेट के कारण ही आज देश बरवाद हो रहा है । अगर यह तीन दल निषेध की राजनीति में उतर नहीं आया होता तो आज ये नौबत न आती । सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, प्रशासनिक आदि हर क्षेत्र में प्रमुख तीन दलों का सिण्डिकेट है, हर अवसर और पद में यह तीन दल भाग–बंडा करते हैं । दूसरे को उसमें कोई अवसर नहीं देते हैं ।
० अंत में अलग प्रसंग, नेपाल की राजनीति में भारत को क्यों जोड़ कर दिखा जाता है ?
– मान लीजिए, आप मेरे पड़ोसी हैं । अगर मैं अपने घर में अपनी बीबी अथवा भाई के साथ झगड़ा करता हूं तो क्या आप चुपचाप खड़े रहेंगे ? ‘क्या हो रहा है’, कहते हुए आप नहीं आएंगे ? क्या ‘आप लोग’ मत झगडिए’ नहीं कहेगे ? विशेषतः ऐसा ही हो रहा है– भारत और नेपाल के बीच । हम लोग यहां झगड़ते, अपने पक्ष में आने के लिए कोई तीसरा पक्ष को सहयोग भी मांगते हैं । ऐसी अवस्था में भारत खड़े–खड़े देख नहीं सकता है । इसीलिए सबसे पहले, अपनी पार्टी के पक्ष में सहयोग करने के लिए जिस तरह हम भारतीय मित्र को कहते हैं, ये परिपाटी बंद होनी चाहिए । हम उससे कोई सहयोग नहीं मांगते हैं तो वह क्यों यहां हस्तक्षेप करेगा ? अगर सहयोग लेते हैं तो, सहयोग करनेवालों में भी कोई स्वार्थ हो सकता है । ऐसी अवस्था में अगर वह अपनी स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है तो यह आश्चर्य की बात नहीं है । उदाहरण के लिए एक राजनीतिक प्रसंग को ही ले सकते हैं । माओवादी ने जो दस वर्षीय सशस्त्र युद्ध किया, उस को अंत करने के लिए हम लोगों ने किस का सहयोग लिया ? २२ सूत्रीय समझौता कहां किया गया ? दिल्ली में ही हुआ था, है न ! क्यों तत्कालीन सात दल और माओवादी दिल्ली जा कर वह संमझौता किया ? इसीलिए भारत को दोषी करार देने से पहले अपना मुँह कैसा है, यह भी देखना चाहिए ।





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