राजनितिक संकट के गहराते बादल
-प्रो. नवीन मिश्रा
यू“ तो सतही तौर पर ऐसा लगता है कि झलनाथ खनाल के प्रधानमंत्री बनने से सात महीने से कायम राजनीतिक रिक्तता और शून्यता समाप्त हो जाएगी और बाँकी के काम भी जैसे संविधान निर्माण या शांति प्रक्रिया सुचारु रूप से आगे बढेÞगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं होने जा रहा है, जिस प्रकार से खनाल और दाहाल अपने ही पारटि लोगों से बगावत या धोखा कर एक षडयंत्र के तहत प्रधानमंत्री बने हैं, उससे देश में राजनीतिक संकट और भी गहराने वाला है । दूसरेे जिस प्रकार से खनाल-दाहाल के साथ एक गोप्य समझौता कर प्रधानमंत्री बने हैं, भविष्य में उनकी स्थिति एक कठपुतली प्रधानमंत्री से अधिक नहीं होगी । इसका ताजा प्रमाण है शपथ ग्रहण के ठीक पहले गृहमंत्री पद के लिए हुए दोनों दलों के बीच उत्पन्न विवाद । इस विवाद के परिणास्वरूप माओवादी दल के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने र्समर्थन वापस लेने तक की धमकी दे डाली । इसी से प्रतीत होता है कि खनाल की कुरसि कतनी स्थाई है । इन सभी घटनाओं के आकलन से यही प्रतीत होता है कि राजनीतिक संकट का समाधान मुश्किल है । देश की विकराल तथा भयानक समस्याएँ यथावत हैं । भले ही प्रधानमंत्री झलनाथ खनाल ने संविधान लेखन तथा शांति प्रक्रिया को प्राथमिकता देने की बात कही है । लेकिन यह इतना आसान नहीं है । गठबन्धन में खनाल की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली दल एकीकृत नेकपा -माओवादी) ने जिस प्रकार का आचरण दिखाया है, उससे तो यही लगता है कि प्रधानमंत्री की यात्रा सहज और सुगम नहीं होगी ।
पिछले सात महीनों में सहमतीय सरकार बनाने के सभी प्रयास विफल होने के बाद बहुमतीय पद्धति के आधार पर सरकार का गठन किया गया । सहमतीय पद्धति द्वारा मात्र सरकार का नेतृत्व करने का मैंडेट अपनी पार्टर्ीीे प्राप्त खनाल विगत में संसद के पहले चरण के निर्वाचन से स्वेच्छा से बाहर हो गए थे । इसी प्रकार माओवादी संसद की सबसे बडी पार्टर्ीीोते हुए भी अपने पक्ष में बहुमत नहीं जुटा सकी । खनाल को र्समर्थन देने की बात पर माओवादी पालिटब्यूरो तथा व्यवस्थापिका संसद सदस्य के लगभग ५४ लोगों ने ‘नोट आँफ डिसेन्ट’ लिख कर इस निर्ण्र्ााके विरुद्ध अपनी असहमति जाहिर की । इस स्थिति में खनाल ३६८ मत पाकर प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए है । अगर माओवादी पार्टर्ीीे ५४ लोगों के साथ खनाल के अपनी पार्टर्ीीे असंतुष्टों को मिला कर देखा जाए तो नैतिकता के आधार पर खनाल पहले दिन से ही अल्पमत में हैं । दूसरी विडम्बना यह है कि मतदान का बहिष्कार करने वाली पार्टर्ीीधेशी जनअधिकार फोरम सरकार में जाने के लिए जी तोडÞ प्रयास में लगी है । इस प्रकार के गठबन्धन सरकार का तो मुझे लगता है भगवान ही मालिक है ।
माओवादी तथा एमाले अध्यक्ष के बीच हुए सात सूत्रीय समझौते को खनाल के प्रधानमंत्री निर्वाचन होने तक छुपा कर रखा गया, जिस बात की चौतरफी आलोचना हो रही है, सिर्फविपक्षी दलों के द्वारा ही नहीं बल्कि उनकी अपनी पार्टर्ीीे नेताओं के द्वारा भी । सहमति पत्र में बारी बारी से सरकार चलाने की बात को आपत्तिजनक माना जा रहा है । विभिन्न दलों के बीच अनेकों सवाल उठ रहे हैं कि सरकार का स्वरूप कैसा होगा – कौन सा मंत्रालय किसे दिया जाएगा – या फिर कौन-कौन लोग मंत्री बनेंगे आदि । इतनी सारी उहापोह के बीच में कहीं गठबन्धन ही न खर्टाई में पडÞ जाए । जिस सरकार के स्वामित्व में ही शंका है । वह अगले १२० दिनों में शांति प्रक्रिया तथा संविधान निर्माण के कार्यों को पूरा कर पाएगी – भले ही सरकार मंत्री पदों का बंटवारा करके कुछ दिनों तक चल भी जाए लेकिन इससे किसी ठोस परिणाम की आशा करना बेकार है । स्वाभाविक है कि प्रतिपक्ष का दबाब शान्ति प्रक्रिया तथा संविधान निर्माण पर ही केन्द्रित होने वाला है । स्पष्ट है कि वर्तमान गठबन्धन सरकार कुछ तात्विक परिवर्तन करने में असक्षम है । साथ ही गठबन्धन के चरित्र में तात्विक भिन्नता होने के कारण प्रजातंत्रवादी शक्तियों का सशंकित होना स्वाभाविक है । यह भी तय है कि इन घटनाक्रमों से दलों के बीच पारस्परिक समझदारी जो आज की आवश्यकता है, के बदले पारस्परिक शंका उत्पन्न होना तय है । इसके परिणामस्वरूप शान्ति प्रक्रिया की गति भी धीमी होगी । संविधान निर्माण के सम्बन्ध में भी विभिन्न मुद्दों पर दलों के बीच सहमति कायम होना मुश्किल होगा । आवश्यकता है सत्ता लोलुपता से ऊपर उठ कर लोकतंत्र की आधारभूत मान्यताओं को स्वीकार कर देश के लिए जितनी जल्द हो सके एक संविधान का निर्माण किया जाए । लेकिन यहाँ देश और जनता की चिन्ता किसे है – यहाँ तो बस एक ही चीज की होडÞबाजी है- प्रधानमंत्री की कर्ुर्सर्ीी जैसे भी हो नैतिक, अनैतिक साधनों का प्रयोग कर सत्ता पर कब्जा जमाने की फिराक में सभी लगे हैं । प्रधानमंत्री खनाल के द्वारा स्वीकार किया गया सात सूत्र उनके ही दल के लोगों को मंजूर नहीं है । ऐसे में उनकी कठिनाई और भी बढÞेगी । इस सरकार को राष्ट्रीय तथा अन्तर्रर्ाा्रीय सहयोग की संभावना भी बहुत कम दिखाई देती है । बहुदलीय प्रणाली में सरकार निर्माण के बाद भी उसका मूल आधार राजनीतिक दल ही होते हैं लेकिन गोप्य समझौता के कारण अधिकांश राजनीतिक दल रुष्ट और निराश है । विखण्डित मधेशवादी दल, विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच विद्यमान सैद्धान्तिक मतभिन्नता आदि से बहुदलीय प्रजातंत्र की ही नींव कमजोर होगी । और तय है कि इसका अंतिम लाभ अधिनायकवादी ताकतों को ही मिलेगा । यह स्थिति किसी के लिए भी लाभदायक नहीं होगी, यह बात तो तय है ।
वास्तव में एकीकृत माओवादी अध्यक्ष पुष्पकमल दाहाल तथा एमाले अध्यक्ष झलनाथ खनाल के बीच हुए माघ २० गते के गोप्य समझौते से नेपाली राजनीति में भूचाल सा आ गया है । पर्ूव निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार छोटे मंत्रिपरिषद की भी घोषणा नहीं हो सकी और प्रधानमंत्री खनाल को अकेले ही शपथ ग्रहण करना पडÞा । इस गोप्य समझौता का सबसे पहला शिकार स्वयं खनाल सरकार ही बन गई । खनाल की पार्टर्ीीें भी इस बात को लेकर भयंकर आक्रोश है, भले ही यह अब तक मुखर नहीं हो पाया है । भविष्य में भी प्रधानमंत्री खनाल का रिमोट कंट्रोल माओवादी अध्यक्ष दाहाल के हाथ में ही रहने वाला है । हालाँकि माओवादी अध्यक्ष दाहाल को भी इस घटना के लिए अपने ही पार्टर्ीीे भीतर बाबुराम भट्टर्राई सरीखे वरिष्ठ नेता के विरोध का सामना करना पडÞ रहा है । दोनों अध्यक्षों के बीच संपन्न यह समझौता दोनों पार्टियों तक ही अब सीमित नहीं है । इसमें राष्ट्रीय जीवन तथा देश की भावी राजनीति को प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप में प्रभावित करने वाले विषय शामिल हैं । इसी कारण यह शंका उत्पन्न हो रही है कि दोनों नेताओं ने इस गोप्य समझौते के कारण देश को र्सवसत्तावाद की ओर धकेल दिया है । माओवादी दल खनाल को प्रौक्सी माओवादी बना कर कहीं सत्ता पर कब्जा करने की रणनीति तो नहीं बना रहा है – कोई भी लोकतांत्रिक शक्ति इस प्रकार का गोप्य समझौता नहीं करेगी कि हम बारी-बारी से शासन की बागडोर संभालेंगे । हमेशा ही सहमति की वकालत करने वाले खनाल के द्वारा किया गया यह कार्य आर्श्चर्य करता है । इस प्रकरण से आम जनता के मन में भी यह भय व्याप्त हो गया है कि देश में र्सवसत्तावाद के संकट मंडराने लगे हैं । जिस तरह प्रधानमंत्री बनने के लिए गोप्य समझौता किया गया, इसी तरह सत्ता में टिके रहने के लिए भी किया जा सकता है । शान्ति प्रक्रिया तथा संविधान निर्माण के क्रम में लडÞाकु समायोजन तथा लोकतांत्रिक भावना पर इस समझौते के कुअसर से इन्कार नहीं किया जा सकता है । अतः आवश्यकता है- सजग और सचेत रहने की । इस समझौता के परिणास्वरूप देश में ध्रुवीकरण की राजनीति की भी शुरुआत हो गई है । सरकार बनाना एमाले तथा माओवादी से सम्बन्धित विषय है । लेकिन राज्य संचालन, शान्ति प्रक्रिया तथा संविधान निर्माण जैसे विषय र्सार्वजनिक विषय हैं । इन विषयों का समाधान राष्ट्रीय सहमति के बिना संभव नहीं है । संविधान सभा निर्वाचन पश्चात गठित सरकार इन्हीं कारणों से विफल रही है । वर्तमान कम्यूनिष्ट गठबंधन की सरकार चीन, वियतनाम तथा क्यूबा की तरह एकदलीय कम्यूनिष्ट शासन के पक्ष में है । लेकिन नेपाली जनता एक दलीय अधिनायकवादी सरकार को स्वीकार नहीं करेगी । माओवादी, एमाले तथा अन्य राजनीतिक दलों के बीच हुए समझौते, दूसरा जनआन्दोलन, संविधान सभा निर्वाचन तथा प्रधानमंत्री निर्वाचन के सर्न्दर्भ में भी इस प्रकार की शासन व्यवस्था के लिए जनादेश प्राप्त नहीं है । जनादेश के विपरित इस प्रकार का समझौता जनता के साथ धोखा नहीं तो और क्या है – समझौता ने दाहाल के त्याग तथा खनाल के अडÞान की पोल खोल कर रख दी है ।
गैर कम्यूनिष्टों को किनारा करने की वजह से इस समझौते ने नेपाली कांग्रेस तथा अन्य दलों को राजनीतिक रूप में ध्रुवीकरण होने के लिए बाध्य कर दिया है । लेकिन कम्यूनिष्ट गठबन्धन की तरह लोकतांत्रिक शक्तियों का दूसरा गठबन्धन अभी देश के लिए हितकर नहीं होगा । इससे संविधान निर्माण की प्रक्रिया और भी जटिल हो जाएगी तथा देश में संक्रमणकाल की अवधि बढेÞगी । कम्यूनिष्ट शक्ति तथा लोकतांत्रिक शक्तियों के बीच दूरी और भी बढÞ जाएगी । यह समझौता शान्ति प्रक्रिया के साथ एक बहुत बडÞा विश्वासघात है । इस समझौते ने नेकपा -एमाले) को माओवादी दल की तुलना में बौना बना दिया है । लोकतंत्रवादी शक्तियों के द्वारा अगर इसका विरोध नहीं किया गया तो देश की शासन सत्ता उग्रवाम के हाथ में जाना तय है जिससे लोकतांत्रिक शक्ति कमजोर पडÞ जाएगी और अन्ततः दक्षिणपंथी अतिवादों का देश में बोल बाला हो जाएगा ।
जैसे-जैसे समय बीता जा रहा है, प्रधानमंत्री खनाल की मुश्किलें बढÞती ही जा रही है । इस लेख के लिखे जाने तक वे अपना पर्ूण्ा मंत्रिमण्डल गठन करने में सफल नहीं हो पाए हैं । बढÞते विरोध को देखते हुए कहीं ऐसा न हो कि पर्ूण्ा मन्त्रिमण्डल गठन करने के पर्ूव ही इन्हें अपनी प्रधानमंत्री की कर्ुर्सर्ीीोडÞनी पडेÞ क्योंकि सत्तारुढÞ एमाले के दो दर्जन केन्द्रीय सदस्यों ने एकीकृत नेकपा माओवादी के साथ किए गए सात सूत्रीय समझौता को सुधारने तथा सुरक्षा और गृह मन्त्रालय माओवादियों को नहीं देने के पार्टर्ीीनर्ण्र्ााको कार्यान्वित करने के लिए कहा है । ऐसा नहीं होने पर उन्हें पार्टर्ीीध्यक्ष तथा प्रधानमंत्री दोनों ही पदों से हटना होगा, ऐसी चेतावनी भी दे डÞाली है । एमाले के वरिष्ठ नेता तथा भूतपर्ूव प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल तथा के.पी. शर्मा ओली के पक्षधर नेताओं ने प्रधानमंत्री निवास बालुवाटार में खनाल से मिल कर उन्हें चेताया कि अगर वे पार्टर्ीीनयम के विपरीत जाते हैं तो उन्हें इसका गम्भीर परिणाम भुगतना होगा । पार्टर्ीीथायी समिति के निर्ण्र्ााविपरीत माओवादियों को गृह मन्त्रालय देने की कोशिश के बाद नेपाल-ओली पक्षधर नेताओं ने प्रधानमंत्री खनाल से भेंट की थी । भेंट में उन्होंने यह भी धमकी दी कि पार्टर्ीीनर्ण्र्ााको कार्यान्वित करने में विफल व्यक्ति को पार्टर्ीीध्यक्ष बने रहने का कोई औचित्य नहीं है । सात सूत्रीय समझौता र्सार्वजनिक होने के बाद हुए एमाले स्थायी समिति बैठक ने यह तय किया था कि खनाल और माओवादी अध्यक्ष दाहाल के बीच हुआ यह समझौता पार्टर्ीीीति के विपरीत है जिसे सुधारना आवश्यक है । इस बैठक में यह भी निर्ण्र्ाालिया गया कि सुरक्षा सम्बन्धित गृह तथा रक्षा मंत्रालय किसी भी हालत में माओवादियों को नहीं दिया जा सकता । इस बैठक ने अपनी पार्टर्ीीे तीन नेताओं को सरकार में भेजने का निर्ण्र्ाालिया था- उपप्रधानमंत्री तथा अर्थ मन्त्री भरत मोहन अधिकारी, गृह मंत्री विष्णु पौडेल तथा शिक्षा मंत्रालय तुलाधर । इनमें से सिर्फभरत मोहन अधिकारी ही अपना कार्यभार ग्रहण करने में सफल हुए हैं । शेष दो विवाद के कारण अभी भी अधर में ही लटके हुए हैं । इतने दबाव के बाद भी एमाले नेता सशंकित हैं कि खनाल अपनी प्रधानमंत्री की कर्ुर्सर्ीीचाने के लिए गृह मन्त्रालय कहीं माओवादी को दे न दें । इसी बीच कांग्रेस के वरिष्ठ नेता तथा पर्ूव अर्थमंत्री डा. रामशरण महत ने भी चेतावनी दी है कि अगर माओवादी को गृह मन्त्रालय दिया गया तो देश की स्थिति भयावह हो जाएगी ।
नेपाल का राजनीतिक संकट गहराता जा रहा है । १९९० के दशक में शुरु हुए जन जागरण तथा परिवर्तन सम्बन्धी आन्दोलन अब लोकतांत्रिक गणतन्त्र को पर्ूण्ाता प्रदान करने के लिए आतुर है । वर्तमान संक्रमण काल की जटिल समस्याओं का निराकरण तथा नए संविधान के निर्माण के साथ देश का आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक भविष्य जुडÞा हुआ है । जनता की राजनीतिक आकांक्षाओं की परिपर्ूर्ति के बाद ही आर्थिक तथा सामाजिक रूपान्तरण प्रारम्भ होता है । सांस्कृतिक परिवर्तन की गति धीमी होती है । लोकतंत्र की जननी माने जाने वाले इग्लैन्ड में लगभग २०० वर्षों तक संसद तथा राजतंत्र के बीच संर्घष्ा चलने के बाद अन्ततः संसद की जीत हर्ुइ । पडÞोसी देश भारत लगभग २०० वर्षों तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद का शिकार रहा । १९४९ में मुक्त हुआ चीन आज विश्व की दूसरी आर्थिक शक्ति बनने में सफल हुआ है । इसी प्रकार देश के अन्य राष्ट्र सिंगापुर, मलेशिया, कोरिया, इन्डोनेशिया, थाइलैन्ड, कुवैत, इरान, इराक, नर्वे, फिनलैन्ड, कनाडा आदि अनेक राष्ट्र उत्तरोत्तर आर्थिक प्रगति के पथ पर अग्रसर हैं । लेकिन प्राकृतिक स्रोत साधनों से परिपर्ूण्ा नेपाल अभी भी गरीबी का रोना रो रहा है । इसका सबसे प्रमुख कारण देश की राजनीतिक अस्थिरता है ।