यह तो ‘अ’ न्याय है !
-बृषेश चन्द्र लाल
नेपाली राजनीतिज्ञ या न्यायकर्ता चाहे कितना भी रट लगायें यहाँ की न्यायपालिका शासकों के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाई हैं । खस शासक समूह न्यायपालिका से अपने अनुकूल या ज्यादा से ज्यादा आपसी विवादों में ही निष्पक्ष न्याय की कल्पना करते रहे हैं । अपने द्वारा दबाए गए समुदायों के मामले में नहीं । मधेशीयों के मामले में तो कदापि नहीं । खास कर मधेशीयों से सम्बन्धित अधिकार से जुडे मामले में यहाँ खुल्लमखुल्ला अनुदार रही है । स्थानीय निकायों द्वारा अपने क्षेत्र में अपनी क्षेत्रीय भाषा प्रयोग का मामला हो या फिर अपनी मातृभाषा में आस्था दुहराने की बात न्यायपालिका जी-जान से खसों का र्समर्थन किया है जैसे नेपाल सिर्फखसों का हो ।
मतदाता नामावली संकलन सम्बन्धी मामले में -सरोजनाथ प्याकुरेल सहित विरुद्ध निर्वाचन आयोग) सर्वोच्च अदालत के माननीय न्यायाधीश बलराम केसी, भरतराज उप्रेती एवं भरत बहादुर कार्की द्वारा किया गया फैसला एक ताजा उदाहरण है । इस फैसला में जिस तरह से संविधान ,कानून तथा अन्तर्रर्रीय संधियों का धज्जियाँ उडायी गयी है उससे लगता है कि यहाँ के न्यायकर्त्ााओं का एक वर्ग न्याय के मर्म का गला घोंटने वाली पंचायती शैली के हैंगओवर से न तो उबरे हैं न उबरने की कोशिश ही करते हैं । वे संविधान, कानून और अन्तर्रर्ाा्रीय कानून तथा मान्यता को या तो सूक्ष्मता से समझते ही नहीं हैं या फिर समझकर भी पर्वाग्रही, रकमी अथवा निर्देशित चश्मे से ही देखते हैं । ऐसी प्रवृति स्वतन्त्र न्यायपालिका के प्रतिष्ठापन में सबसे बडा अवरोध है ।
नेपाल की संविधान के भाग ३ की धारा ८ में नागरिकता सम्बन्धी व्यवस्था है । मधेश ही नहीं नेपाल के हिमाली, पहाडी सभी क्षेत्रों में बहुत सारे लोगों के पास नागरिकता का प्रमाणपत्र नहीं है । लोग जब जरुरी समझते हैं नागरिकता प्रमाणपत्र बनाते है । संविधान खुद भी स्वीकार करती है कि नेपाल के सभी नागरिक के पास नागरिकता का प्रमाणपत्र नहीं है और इसीलिए इसके धारा ११ में नागरिकता के लिए योग्यता प्राप्त नागरिकों को नागरिकता प्रमाणपत्र वितरण हेतु नागरिकता वितरण टोली की व्यवस्था की गई है । मतदाता नामावली सम्बन्धी ऐन, २०६३ के दफा ५ में नेपाल में मतदाता होने के लिए नेपाल का नागरिक होना जरुरी माना गया है जो सही और निर्विवादित तथ्य है । इससे कोई असहमत नहीं हो सकता । मगर हमें यह समझना चाहिए कि ‘नागरिक’, ‘नागरिकता’ और ‘नागरिकता का प्रमाणपत्र’ अलग-अलग चीजें है । नागरिक शब्द किसी देश/राज्य या राजनैतिक समुदाय का सदस्य होना बोध कराता है । वहीं नागरिकता का अर्थ किसी नागरिक का किसी देश/राज्य या राजनैतिक समुदाय में प्राप्त अधिकार एवं कर्तव्य सहित का स्थिति स्पष्ट करता है । नागरिकता का प्रमाणपत्र महज एक प्रमाणपत्र भर है जो सम्बन्धित व्यक्ति को जिस देश का नागरिक है प्रमाणित करता है । नागरिकता के लिए योग्य सभी व्यक्ति सम्बन्धित देश के नागरिक होते हैं चाहे उनके पास नागरिकता का प्रमाणपत्र हो या न हो । नागरिकता का प्रमाणपत्र न होने के कारण ही किसी व्यक्ति का नागरिक अधिकार छिना नहीं जा सकता न तो इसमें किसी तरह का कटौती किया जा सकता है । विधायिका ने समझा और इसिलिए मतदाता नामावली सम्बन्धी ऐन, २०६३ के दफा ११ में स्पष्टतः कहा कि अगर किसी के पास नागरिकता का प्रमाणपत्र नहीं है तो इसी कारण से उसे मतदाता होने से वंचित नहीं किया जा सकता और इस स्थिति में अगर वह अपना जमीन की मिल्कियत का प्रमाणपत्र या सरकारी कार्यालय अथवा शैक्षिक संस्थान से प्राप्त कोई डकुमेन्ट प्रस्तुत करता है जिससे उसका परिचय स्पष्ट हो तो उसे मतदाता के रूप में स्वीकार किया जाएगा । मतदाता नामावली सम्बन्धी ऐन, २०६३ इस तरह पर्ूण्ातः न्याय संगत एवं संवैधानिक प्रावधानों के अनुकूल है । मगर निर्वाचन आयोग ने फोटो सहित मतदाता नामावली संकलन सम्बन्धी अपने कार्यक्रम में गैर कानूनी रूप से मतदाता होने के लिए नागरिकता प्रमाणपत्र को मतदाता होने के लिए अनिवार्य बना दिया । मधेशवादी दलों ने इसका विरोध किया । उनका कहना है यह कानून का घोर उल्लंघन है । निर्वाचन आयोग को कानूनी प्रावधान को बदलने वा व्याख्या करने का अधिकार नहीं है । यह खसवादी मानसिकता से प्रेरित होकर किया गया है । अगर नागरिकता प्रमाणपत्र को ही आधार माना जाता है तो फोटो सहित मतदाता परिचयपत्र का कोई अर्थ नहीं है । नागरिकता प्रमाणपत्र से ही काम चल जाएगा उसमें फोटो रहता ही है । करोडों रूपैया खर्च करने का क्या लाभ – निर्वाचन आयोग को चाहिए कि वह स्वतन्त्र और निष्पक्ष मतदान की व्यवस्था करे और कोई भी नागरिक मतदान के अधिकार से वंचित न हो इसका पुख्ता इन्तजाम करे । मधेशवादी दलों का आरोप है कि निर्वाचन आयोग मतदाता नामावली में मधेशियों की संख्या घटाने का षडयन्त्र कर रही है । फलःस्वरूप तर्राई-मधेश के विभिन्न जिलों में फोटो सहित मतदाता नामावली संकलन में अवरोध हुआ और अन्ततः २०६७ आश्विन २३ गते निर्वाचन आयोग मधेशी दलों के बीच सहमति हर्ुइ और २०६७ कार्तिक १६ गते कानूनी प्रावधानों के तहत फोटो सहित मतदाता नामावली संकलित करने का निर्देश निर्वाचन आयोग ने जारी किया ।
इसके बाद खसवादियों में खलबली मच गयी और ताबडÞतोर सर्वोच्च अदालत में मुकदमें दर्ज किये गये । मधेशवादियों का आरोप है कि ये सभी मुकदमें मिलीभगत से दर्ज की गई । सर्वोच्च अदालत के मा. न्यायाधीश प्रकाश वस्ती ने निर्वाचन आयोग का २०६७ कार्तिक १६ गते के निर्ण्र्ााें पर रोक लगा दिया जिसका बौद्धिक, न्याय क्षेत्र से जुडे समाज और नागरिक समाज में अच्छी खासी आलोचना भी हर्ुइ । अभी आकर उसी को निरन्तरता देते हुए २०६७ माघ २४ गते माननीय न्यायाधीश बलराम केसी, भरतराज उप्रेती और भरत बहादुर कार्की के विशेष इजलास से फैसला हुआ है । फैसला स्पष्ट नहीं है । स्वयं फैसले में कहा गया है कि पर्ूण्ा पाठ लिखे जाने तक शब्दों में हेरफेर हो सकता है । फैसला देखने पर ऐसा लगता है कि न्यायाधीश त्रय निर्ण्र्ााके बारे में पहले से निर्देशित हैं और आधार खोजने में उन्हें परेशानी हो रही है । फैसला निर्वाचन आयोग के २०६७ कार्तिक १६ गते के निर्ण्र्ााें को बदर भी नहीं करती है, नागरिकता प्रमाणपत्र को ही आधार भी मानती है मगर वही कहती है कि जग्गा प्रमाणपर्ूजा व अन्य कागजात सपोर्टिंग हो सकता है । समझ में नहीं आता कि अगर नागरिकता प्रमाणपत्र है तो सपोर्टिंग कागजात क्यों चाहिए – नागरिकता प्रमाणपत्र पर शंका या छानबीन करने का अधिकार निर्वाचन आयोग को कैसे और क्यों दिया जाएगा – फिर सर्वोच्च के फैसले से ऐसा अधिकार दिया भी जा सकता है या देना उचित है – इस अस्पष्ट फैसला में मतदाता नामावली सम्बन्धी ऐन के दफा ११ को विवादित बना दिया गया है मगर उसे उसके किसी दफा को निरस्त नहीं किया गया । अगर वह संविधान के अनुकूल नहीं है तो निरस्त घोषित कर देना चाहिए । फैसले में १६ दिसम्बर १९६६, जनरल एसेम्बली का रिजोल्यूशन २२० का -क्ष्ऋऋएच्, ज्ञढटट० धारा २५ को आधार के रूप में लिया गया है । पता नहीं इस धारा को उन्होंने किस तरह समझा लेकिन इसमें सभी नागरिकों को बिना भेदभाव समान अधिकार एवं अवसर के साथ ही इससे अकारण वंचित नहीं करने की गारन्टी दी गई है । इसके क और ख में सभी नागरिक को र्सार्वजनिक मामलों में प्रत्यक्ष या निर्वाचित प्रतिनिधियों के मार्फ सहभागिता की सुनिश्चितता की गई है । वोट गिराने के लिए नागरिकता का प्रमाणपत्र ही चाहिए कहीं उल्लेखित नहीं है । अतएव ऐसे अन्तर्रर्ााट्रय मान्यता एवं कानून को अपव्याख्यित करते हुए न्याय सम्पादन या कोई निर्ण्र्ााकरना किसी भी तरह से उचित नही है ।
मतदाता संबन्धी ऐन २०६३ के दफा ११ में उललेखित व्यवस्थायें मतदाता होने के लिए नागरिकता की अनिवार्यता को अस्वीकार करने के लिए नहीं है बल्कि इतना स्पष्ट करने के लिए है कि नागरिकता का प्रमाणपत्र नहीं होने से ही कोई नागरिक अनागरिक नहीं हो जाता और उसे अपने नागरिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता । ये व्यवस्थायें उस नागरिक को जिसे नागरिकता का प्रमाणपत्र नहीं है मतदान के अधिकार को सुरक्षित करता है । मतदाता सम्बन्धी ऐन के दफा ११ की व्यवस्थायें नागरिकता प्रमाणपत्र के सत्यापन के लिए नहीं है । नेपाल में जमीन प्राप्ति के लिए नागरिकता होना जरुरी है और सरकारी कोई भी प्रमाणपत्र जो नेपाली होने के लिए आवश्यक है, पाने के लिए कम से कम पिता का नागरिकता का प्रमाणपत्र तो देना ही होता है । मतदाता समबन्धी ऐन २०६३ के दफा ११ में किसी के प्रति कोई दया नही की गई है, यह सामान्य लोकतान्त्रिक परिपाटी का परिपालन ही है । माननीय न्यायाधीशों ने इसका ऐसा अर्थ कैसे लगा लिया – समझना मुश्किल है । नागरिकता प्रमाणपत्र प्राप्ति के पश्चात् भी अकारण सत्यापन की बात अपमानजनक है । नेपाल के प्रचलित कानून मंे पर्याप्त आधार मिलने पर नागरिकता प्रमाणपत्र जांच करने का अधिकार नेपाल सरकार के प्रशासनिक अधिकारियों का है निर्वाचन आयोग का नहीं ।
अदालत को न्याय देना चाहिए । जबरदस्ती करना न्याय का गला घोटना है । फैसले स्पष्ट और सामान्य जन के सहजता से समझने वाले होने चाहिए । आजकल फैसलों में गोलमटोल और अस्पष्ट भाषा प्रयोग करने की प्रवृति बढ रही है । इससे विवादों का अन्त नहीं होता नये-नये विवाद पनपते हैं । स्वयं न्यायपालिका भी विवाद में उलझ जाती है । अगर ऐसा ही होता रहा तो न्यायपालिका के प्fmैसले लोग पचा नहीं पायेंगे । जनता अधिकार से सम्झौता तो कर नहीं सकती तो फिर जंग जनता और न्यायपालिका के बीच हो सकती है ।
समतावादी एवं लोकतान्त्रिक कल्याणकारी समाज की स्थापना के लिए विधि का शासन और स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका अपरिहार्यतः आवश्यक है । स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका का अर्थ है राज्य संयन्त्र अथवा अन्य किसी प्रभाव और पर्ूवाग्रह से मुक्त हो न्याय सम्पादन करना । न्यायपालिका की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता अतएव दो बातों पर निर्भर करती है ( १. निष्पक्षता से कानूनी सहित अन्य वातावरण तथा २.न्याय सम्पादनकर्ताओंं द्वारा राज्य संयन्त्र अथवा किसी प्रभाव और पर्ूवाग्रह से मुक्त हो न्याय सम्पादन करने का साहस । न्याय का गला घोंट जबरदस्ती से न्यायपालिका स्वतन्त्र नहीं हो सकती न ही लागों के लिए स्वीकार्य । न्यायालय को ऐसे फैसलों को पुनरावलोकित कर अपनी विश्वसनीयता बनानी चाहिए ।
(-लेखक तमलोपा के उपाध्यक्ष है)