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क्या हमारे यहां सचमुच में लोकतंत्र है, या सिर्फ एक भीड़तंत्र है : मुरलीमानोहर तिबारी

मुरलीमानोहर तिबारी ( सिपु), वीरगंज | चुनाव-दर-चुनाव अपने आपको सबसे समझदार और जागरूक समझनेवाला  मतदाता अपनी समझदारी को ताक पर रख फिर से ठगे जाने को तैयार है। पिछले कई साल से यह क्रम निर्बाध चल रहा है। क्या हमने लोकतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों का भी निर्वहन किया है ? क्या सिर्फ चुनावी औपचारिकता निभाने मात्र से लोकतंत्र मजबूत हो जाता है ? क्या बड़ी संख्या में हमारे राजनीतिक दल और नेता ‘लोकतंत्र’ के नाम पर लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां नहीं उड़ा रहे हैं ? क्यों हर तरह से असफल और नाकाबिल लोग हमारे शासक बनते जा रहे हैं ? क्यों हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते हैं ?

आज लोकतंत्र पर दुनिया भर में सवाल उठ रहे हैं। बहुत से प्रश्न हैं, जो आज हमें झकझोर रहे हैं- क्या हमारे यहां सचमुच में लोकतंत्र है ? या यह सिर्फ एक भीड़तंत्र है, जिसे एक छोटा सा अपितु प्रभावी वर्ग अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल कर रहा है ? क्या लोकतांत्रिक मूल्य केवल जुबानी जमा-खर्च के लिए हैं ? क्या उनका कोई व्यावहारिक मूल्य नहीं है ? क्या जात-पात, धर्म-संप्रदाय के संकीर्ण दायरे में सिमटे मतदाताओं और उनके द्वारा चुने जन-प्रतिनिधियों पर देश का भविष्य छोड़ा जा सकता है ? क्या लोकतंत्र के नाम पर बढ़ती असमानता, भुखमरी, गरीबी आदि पर आंखे मूंदी जा सकती हैं ? और सबसे बड़ी बात, क्या लोकतंत्र के नाम पर नेताओं को लूट-खसोट की अनुमति दी जा सकती है ?  स्थानीय चुनाव में सिर्फ पूंजीपतियों का बोलबाला रहा और आगे भी रहेगा। इससे तो अच्छा पुराना गाविस था, जिसमे 45 लोगों की सहभागिता तो थी।

आज वोट की राजनीति के चलते संस्कार, मूल्य, आदर्श सभी नेपथ्य में चले गये हैं। साम-दाम, दंड-भेद और येन-केन प्रकारेण का मंत्र आज राजनीति का मूल-मंत्र बन गया है  विडंबना यह है कि नेता हो या आम आदमी, सभी लोकतंत्र के कसीदे पढ़ रहे हैं। पर, क्या सब मर्जों की दवा समझा जानेवाला हमारा लोकतंत्र स्वयं में ही एक मर्ज नहीं बन गया है ?
लोकतंत्र से ज्यादा आज यह भोला मतदाता ही सवालों के घेरे में है। क्योंकि, लोकतंत्र की मूल इकाई, यह मतदाता, जात-पात, धर्म और संप्रदाय से ऊपर उठ कर देखने को तैयार ही नहीं है। आज हमारा यह मतदाता ऐसे निर्णय लेने में समर्थ नहीं लगता, जो इतिहास की दिशा बदल सकें। जिस तरह से एक व्यक्ति का कृत्य उसके जीवन की दिशा निर्धारित करता है, उसी तरह से एक देश की दिशा उस देश के नागरिकों के संयुक्त प्रयासों और बुद्धिमत्ता से तय होती है। देश का भविष्य हर उस एक व्यक्ति के हाथ में है, जो इस देश की एक इकाई है और जो अपने निर्णय से देश की दिशा को बदलने की इच्छा रखता है। वहीं देश की यह इकाई जागरूक न होने पर देश को आगे ले जाने के बजाय पीछे धकेलने का काम करती है। उनकी नासमझी का परिणाम यह होता है कि नाकाबिल और नाकारा लोग शासक बन जाते हैं और शिक्षा, योग्यता, चरित्र आदि सभी गौण हो जाते हैं।
सजायाफ्ता अपराधी लोग नेता बन माननीय हो जाते हैं, वहीं काबिल (अगर हिम्मत कर भी पाये तो) निर्दलीय लड़ कर, अपनी जमानत भी जब्त करा आते हैं। इसके लिए किसे दोष देंगे आप? लोकतंत्र को? पर, लोकतंत्र तो सिंगापुर में भी है, अमेरिका में भी है और इंगलैंड में भी है। इन देशों में तो ऐसी आराजकता और विसंगति नहीं है ? तो क्या हम लोकतंत्र के लायक नहीं है ?
 दरअसल, दोष लोकतंत्र में नहीं,समस्या है लोकतंत्र के बदलते स्वरुप में, और समस्या हमारे अंदर है। वक़्त बदला और साथ-साथ हमारे जीवन मूल्य भी बदलते गए। लोकतान्त्रिक देशों के राजनीतिक दलों का स्वाभाव और चरित्र भी पिछले दशकों में तेजी से बदला है। पार्टी फंड में पहले भी पैसों की जरुरत होती थी लेकिन तब जमीर बेचकर पैसा जमा करने का रिवाज नहीं था। आज का कॉरपोरेट जगत अगर किसी पार्टी के कोष में १ रूपया देता है तो उसकी मंशा बदले में १०० रूपया पाने की होती है। आज देश की चिंता, न तो जनप्रतिनिधि नेताओं को ही है और न ही पूँजी पर कब्ज़ा जमाए पूंजीपतियों को ही।
लोकतंत्र हमारे लिए उपयोगी बने, उसके लिए हमें लोकतंत्र के लायक बनना पड़ेगा। दासता और भीड़ की मानसिकता से परे उठ कर हमें सोचना पड़ेगा कि हमारा वोट न केवल हमारे परिवार और बच्चों का भविष्य तय करेगा, बल्कि हमारे देश की दिशा और उसके इतिहास को बदलने का भी कार्य करेगा।
हम देखते हैं कि चुनाव जो किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद होते हैं दिन-ब-दिन महंगे होते जा रहे हैं। कहीं-न-कहीं इसके पीछे पार्टी फंडिंग का बढ़ता जोर तो है ही जनता भी कम दोषी नहीं है। जनता हमेशा प्रत्येक चुनाव में तात्कालिक लाभ के चक्कर में रहती है। वह सोंचती है कि अभी जो मिलता है ले लो बाद का क्या ठिकाना कि क्या हो और क्या नहीं हो। परिणाम यह निकलता है कि चुनावों में धड़ल्ले से पैसे, सामान और शराब बांटे जा रहे हैं। लालच में अंधी होकर जनता मतदान करती है और भ्रष्ट तत्व चुनाव जीत जाते हैं। कारण है अविश्वास और समाज में धनबल का बढ़ता महत्व। जनता को अब किसी के भी ऊपर विश्वास ही नहीं रह गया है। धूर्त लोग बगुला भगत बनकर, खुद को गरीब का बेटा कहकर चुनाव जीत जाते हैं और फिर भूल जाते हैं अपने गरीब मतदाताओं को। ऐसे में जनता यह देखती है कि उसे कौन कितना पैसा देता है। वह अपने वोटों की नीलामी करती है और जो सबसे ऊंची बोली लगाता है, जीत जाता है। बाद में लूटते तो सभी हैं।
आज जो लोग भी चुनाव जीतते हैं, लगता है जैसे सत्य निष्ठा की नहीं बेईमानी की शपथ लेते हैं, परन्तु इनके राजनीतिक पूर्वज ऐसे नहीं थे.तब के सामाजिक मूल्य और थे और अब और हो गए हैं, तब जनसेवा और ईमानदारी का समाज में महत्त्व था,आज महत्त्व है सिर्फ पैसों का। पैसों के लिए आज का आदमी कुछ भी कर गुजरता है,अब कुछ भी पाप नहीं है,सब पुण्य है और उन पुण्यों में सबसे बड़ा पुण्य है येन केन प्रकारेण पैसा बनाना।

 हम भी वही कर रहे हैं यानि किसी-न-किसी तरह पैसा बना रहे हैं, राजनेता भी वही कर रहे हैं और कॉरपोरेट जगत भी वही कर रहा है, अंतर सिर्फ इतना है कि नेताओं और पूंजीपतियों के हाथों में ज्यादा शक्ति है, संसाधन है इसलिए वे ज्यादा पैसा बना रहे हैं और हमारे हाथों में कम शक्ति और संसाधन है इसलिए हम कम पैसा बना पा रहे हैं।

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सरकारी तंत्र में ऊपर से नीचे तक जो भ्रष्टाचार का व्यापार चल रहा है उसे कौन चला रहा है? हमहीं न! दिन-रात घूस लेनेवाले अधिकारी-कर्मचारी, नेता और पूंजीपति कोई आसमान से अवतरित नहीं हुए हैं बल्कि वे हमारे बीच से ही हैं। जिस तरह शरीर की सबसे छोटी इकाई कोशिका होती है उसी तरह लोकतान्त्रिक शासन की सबसे छोटी इकाई हम हैं। जब कोशिका में विकृति आती है तो कैंसर हो जाता है और जब जनता में विकृत्ति आती है तब ? तब लोकतंत्र जनता का,जनता द्वारा और जनता के लिए शासन नहीं रहकर पूंजीपतियों का,पूंजीपतियों द्वारा और पूंजीपतियों के लिए शासन बनकर रह जाता है। इसलिए अगर कहीं सुधार की आवश्यकता है तो हमारी सोंच, हमारे विचारों और हमारे मूल्यों में।

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यह काम दुनिया की कोई भी सरकार, कोई भी सख्त-से-सख्त कानून बनाकर नहीं कर सकती। यह हम हीं कर सकते हैं केवल हम और हम शायद इसके लिए तैयार ही नहीं हैं। हमारी यह आदत बन गयी है कि हम दूसरों पर ऊंगली उठाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं,अपने अन्दर नहीं झांकते। बंधु, यह आत्मालोचना का समय है। अगर हम आत्मालोचन नहीं करेंगे,अपने-आप में सुधार नहीं करेंगे तो  एक ग़लत चुनाव हारेगा और उसकी जगह कोई और नहीं बल्कि दूसरा ग़लत बदले हुए नाम और सूरत के साथ आ जाएगा।हम ठगे जाते रहेंगे और हमें कोई और ठग भी नहीं रहा होगा, हमारा अंतर्मन और हमारी अंतरात्मा खुद हमारे ही हाथों ठगे जाते रहेंगे, चाहे शासन साम्यवादी होगा या पूंजीवादी या फिर मिश्रित, या कोई भी गठबंधन हो, वस्तुस्थिति में कोई अंतर नहीं होगा। इन बातों पर चिन्तन-मनन आवश्यक है।

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