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गुजरात अाैर हिमाचल में फिर खिला कमल

१८ दिसम्बर

गुजरात की चुनावी फतह के साथ सूबे और देश की सियासत को नई राह पर ले जाने का कांग्रेस का अरमान एक बार फिर धराशायी हो गया है। पार्टी ने इस चुनाव में राजनीतिक सूरत बदलने के लिए चुनावी प्रबंधन से लेकर सियासी समीकरण बनाने के सारे दांव चले। आरक्षण से लेकर आंदोलन और जातीय संतुलन से विकास के वैकल्पिक माडल का चुनावी मेन्यू पेश किया। अपने नरम हिन्दुत्व का आइना भी गुजरात को दिखाया। फिर भी गुजरात में भाजपा के सियासी तिलस्म का कांग्रेस कोई तोड़ नहीं ढूंढ पायी।

22 साल की भाजपा की सत्ता के खिलाफ उभरी नाराजगी का तगड़ा हथियार भी कांग्रेस की किश्मत बदलने के काम नहीं आया। इस लिहाज से चुनाव परिणाम ने कांग्रेस की सूबे में वापसी की उम्मीदों पर पानी तो फेरा ही है। साथ ही गुजरात के नतीजों के सहारे देश का राजनीतिक विमर्श बदलने की पार्टी की योजना पर भी आघात लगा है। इसमें शक नहीं कि कांग्रेस ने भाजपा को तगड़ी चुनौती देने में कोई कसर नहीं छोड़ी मगर वह सत्ता की बाजी अंतिम तस्वीर नहीं बदल सकी।

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भाजपा को कड़ी चुनौती देने की बात का सहारा लेकर कांग्रेस इस हार में भी अपनी राजनीतिक जीत देखने का दिलासा भले दे। मगर इस वास्तविकता से पार्टी मुंह नहीं मोड़ सकती कि चुनावी रणनीति के तमाम दांव भी उसे गुजरात में मजबूत विपक्ष से आगे की सीढी पार नहीं करा सके। जबकि कांग्रेस ने अपनी सेक्यूलर राजनीति की चिंतन धारा में भी बदलाव किया। ताकि अल्पसंख्यक सियासत की पैरोकार होने के लगने वाले लेबल को धूमिल किया जा सके। पार्टी के सर्वेसर्वा राहुल गांधी ने खुद इसका संदेश देने के लिए नरम हिन्दुत्व की राह अपनायी। चुनाव के दौरान राहुल ने इसके लिए गुजरात के तमाम मंदिरों के दर्शन किए। राजनीतिक संदेश देने के लिए विवादों के बीच कांग्रेस ने उन्हें जनेउधारी ब्राह्मण से लेकर शिवभक्त कहने में भी हिचक नहीं दिखायी। रणनीति के तहत गुजरात से पार्टी के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल को भी चुनाव के दौरान सूबे में कम सक्रिय रखा गया।

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चुनावी उलटफेर करने के लिहाज से कांग्रेस ने सबसे बड़ा दांव गुजरात के जातीय समीकरण को बदलने का चला। आरक्षण आंदोलन के हीरो पाटीदारों के नेता हार्दिक पटेल को अपने साथ जोड़ने में पार्टी कामयाब रही। इस कसरत में पार्टी ने 50 फीसद की संवैधानिक सीमा की परिधि से बाहर जाकर पाटीदारों के आरक्षण का वादा भी किया। इसकी वजह से चुनाव में कांग्रेस का अभियान भाजपा की सत्ता के लिए खतरा भी दिखा।

इसी तरह ओबीसी समुदाय को जोड़ने के लिए पार्टी ने इस वर्ग के युवा चेहरे के रुप में उभरे अल्पेश ठाकोर को साधा। अल्पेश को न केवल कांग्रेस में शामिल किया गया बल्कि उनके समर्थकों को भी टिकट दिया गया। दलित समुदाय के युवा चेहरे जिग्नेश मेवाणी का भी बाहरी समर्थन हासिल कर गुजरात की सियासत में सामाजिक समीकरण का नया ताना-बाना बुना। इस जातीय सामाजिक समीकरण के सहारे पार्टी विधानसभा में अपनी सीटों की संख्या को बढ़ाने में तो कामयाब रही है मगर इनकी संयुक्त ताकत भी पीएम मोदी का मैजिक फीका नहीं कर सकी।

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भाजपा की घेरेबंदी के लिए दांव साधने के साथ कांग्रेस ने उसके विकास के माडल पर भी गंभीर सवाल उठाए। पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने विकास के गुजरात माडल पर प्रहार करते हुए इसे पागल बताने के जुमले का भी समर्थन किया। युवा समुदाय को विकास के माडल में जगह नहीं मिलने का संदेश देने का भी पूरा प्रयास किया। इसमें बदलाव करने का संदेश देने के लिए पार्टी ने विकास के वैकल्पिक माडल का खाका भी पेश किया। आम लोगों खासकर मध्यम वर्ग को साधने के लिए गुजरात में महंगी शिक्षा और महंगे इलाज का मुद्दा भी पूरे जोर-शोर से उठाया गया। साफ है कि चाहे सियासत के दांव हों या फिर मुद्दों का हथियार कांग्रेस ने अपनी कमान के सारे तीर चुनाव में छोड़ दिए। फिर भी कांग्रेस इस बार भी गुजरात में मोदी-भाजपा का दुर्ग भेद नहीं पायी।

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