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महोत्तरी के जलेश्वर में चैती छठ का दिव्य स्वरुप देखने को मिला



जलेश्वर, २३ मार्च | लोक आस्था और वैज्ञानिक तथ्यका पर्व छठ का दिव्य स्वरूप आज नेपाल के महोत्तरी जिल्ला के सदरमुकाम जलेश्वर में देखने को मिला। जलेश्वरनाथ महादेव के पूर्व में स्थित जलाशय में हजारों भक्तजनो और ब्रतालुओं की भीड़ मनमोहक स्वरुप धारण किए हुआ था। वैसे यह छठ पर्व जीवन और प्राण के प्रतिक होने के कारण अनादिकाल से
सूर्योपासना के नाम से प्रसिद्ध है। मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में। चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है। पारिवारिक सुख-समृद्धी तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है। स्त्री और पुरुष समान रूप से इस पर्व को मनाते है।
आज नवरात्रा के षष्ठी तिथि पर आदिशक्ति दुर्गा माता के कात्यायनी स्वरूप की पूजा करने का भी विधान है l महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ती ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया इसलिए वे कात्यायनी कहलाएl षष्ठी के दिन इनकी पूजा की जाती हैl एवं इनकी आराधना की जाती हैl माता कात्यायनी की उपासना से आज्ञा चक्र जाग्रति की सिद्धियां साधक को स्वयंमेव प्राप्त हो जाती हैl वह इस लोक में स्थिर रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है तथा उसके रोग-शोक संताप डर विद्वेष आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैंl अतः इस चैती छठ का महत्व भी माँ जगदम्बा कात्यायनी के कारण विशेष हो जाता है। विभिन्न देशकाल में अपना इस पर्व अपना अस्तित्व सुरक्षित रखते आ रहा है।
एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशिर्वाद प्राप्त कियाथा।
एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य का परम भक्त था। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बना था। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है।
कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रोपदी द्वारा भी सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है। वे अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थीं।
एक कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परंतु वह मृत पैदा हुआ। प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। राजन तुम मेरा पूजन करो तथा और लोगों को भी प्रेरित करो। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।
जो भी हो;अब यह पर्व आम जनमानस के हृदय में स्थित हो चूका है। चैती छठ का स्वरुप भी प्रतिवर्ष भव्यतम होता जा रहा है।
अजय कुमार झा



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