क्या है गुरु और गुरु पूर्णिमा ? : कैलाश महतो
कैलाश महतो, परासी | किसी पुराण में भगवान् शिव कहते हैं, “बिना गुरु ईश्वर नहीं मिल सकते ।”
जब कोई शिष्य अपने जीवन में किसी ज्ञानी पुरुष को पूर्ण स्थान दे देता है, उसे सम्मान उपलब्ध करा देता है और वह स्वयं भी शिष्यपूर्ण हो जाता है, तब उसमें गुरु का महिमा फलित हो जाता है । जीवन में गुरु का पूर्ण होना ही गुरु पूर्णिमा कहलाता है । गुरु पूर्णिमा पूर्ण चाँद की भाँति होती है जो शिष्य के जीवन में व्याप्त अमावश को खत्म कर रोशनी उपलब्ध कराती है । यूँ कहें तो “गुरु” का अर्थ ही “गुण देने बाला” होता है ।
कबीर कहते हैं, “वो कर्ता करे न होय, जो गुरु कहे सो होय, तीन लोक के खण्ड में, गुरु से बडा न कोय ।” गुरु वह है, जो नाप नक्शे के बाहर हैं, हिसाब किताब से उपर हैं और धर्म और मजहब के पार हैं, रंग, रुप और उम्र से परे हैं । गुरु सत्य है । गुरु अक्षर है । गुरु बुद्ध है । गुरु तथागत है ।

शिष्वत् के उत्पत्ति से ही गुरु का अवतार होता है । सिखने की कला जानने बालों को ही शिष्य कहते हैं । जब कोई सिखने को राजी हो जाये, गुरु का आगमन हो जाता है । गुरु प्रेम का आधार है । जैसे प्रेमी प्रेमिका रंग, रुप, जात, धर्म और मजहब से उपर उठ जाते हैं, गुरु और शिष्य के बीच भी वही घटता है, जब वे एक दूजे को मान लेते हैं, एक दूसरे को स्वीकार लेता है । व्यक्ति के चित्त में अगर प्रेम पूर्वक सिखने की चाहत बैठ जाता है तो गुरु भी आ जाते हैं । गुरु और शिष्य का सम्बन्ध महाप्रेम का नाता है और वह बिल्कुल निजी होता है ।
पंजाबी लोग अपने को सिक्ख कहते हैं । सिक्ख का मतलब ही सिखने को तैयार होना होता है । जो सिखने को तैयार हो, वह गुरु को प्रथम स्थान पर रखता है । इसिलिए सिखों ने अपने पवित्र मन्दिर को “गुरुद्वारा” कहा है, जिसका शाब्दिक अर्थ है कि गुरु ही उसके ज्ञान, विज्ञान और परमात्मा का द्वार है ।
बाइबल में जिसस कहता है, “I’m the Gate” गुरु ही जीवन को जगत के ज्ञान और अध्यात्म के परमात्मा से जोडने बाला अन्तिम और विश्वस्त द्वार है । गुरु द्वार है, दीवार नहीं । सार्थक जीवन के लिए गुरु का होना प्राथमिक और विशिष्ट दोनों आवश्यकतायें हैं । गुरु उपाय है, गुरु जुगाड है । गुरु फल चखाने बाला उत्कृष्ट कृषक हैं । गुरु विकारों से पार कराने बाला उत्तम चिकित्सक हैं । गुरु जीवन को भव्य महल में तब्दिल कर देने बाला खूब सूरत इंजिनियर हैं । गुरु जीवन को आन्दोलित कर देने बाला क्रान्तिकारी नेतृत्व हैं ।
लोग ईश्वर को सर्व शक्तिशाली मानते हैं । ईश्वर अगर है तो यह भी संभावना है कि वह सर्वशक्तिशाली होगा । पर सर्वशक्तिशाली होने के बावजूद भी वे हर काम नहीं कर सकते । वे अपने चाहने बालों से भी प्रत्यक्षतः नहीं मिल सकते । उसे छूप छूप कर रहना पडता है । ईश्वर के भक्तों को भी उससे मिलाने बाले गुरु ही होते हैं । ईश्वर अपने आपको छूपा लेता है, गुरु अपने शिष्यों को ईश्वर से मिला देता है । इसिलिए सच्चे शिष्य के लिए गुरु से बडा कोई दाम नहीं होता । आत्मज्ञान, ब्रम्हज्ञान और परमात्मा मिलन के सत्कर्मों के लिए गुरु ही मात्र एक अन्तिम मार्ग है ।
अपने गुरु चरण दास के लिए सह्यावाई नामक एक शिष्या का कहना था, “मैं परमात्मा को छोड सकती हूँ, गुरु को नहीं ।” वास्तव में गुरुप्रेम एक श्रद्धा पैदा करती है । धरती पर सबसे बडा सौभाग्य है शिष्य होना । परम् शिष्वत् गुरु से शुरु होता है और गुरु पर ही समाप्त हो जाता है । इसिलिए बुद्ध के बाद समाप्त हो चुके गुरुवत् को मोहावी विचारधारा के पक्षपाती मन्जुश्री ने शुरु कर गुरु धर्म के परम्परा को निरन्तरता दी । हजरत मोहम्मद के बाद समाप्त हो चले गुरुवत्ता को मौला अलि ने कायम की और आजपर्यन्त जीवीत है ।
गुरु एक क्रान्ति है जो हर बेतुके परम्परा के दीबारों को तोडकर नयाँ राह बनाता है । गुरु अपने आप में एक आन्दोलन है, तूफान का मार्ग दर्शक हैं, क्रान्ति का बीज है और जीवन की कला है । गुरु परिवर्तन का ज्वाला होता है, मानवता का पाठशाला होता है और न्याय का अदालत होता है ।
गुरु विद्रोही होता है । वह अपने शिष्यों में विद्रोह करने का कला भरता है । वह हमेशा समाज में विद्रोही निर्माण करता रहता है, क्योंकि विद्रोही समाज ही समाज को परिवर्तन कर सकता है । परम्परावादी समाज से संसार को घाटों के आलावा और कुछ भी मिलने बाला नहीं होता है । गुरु शिक्षक भी होता है, मगर शिक्षक गुरु नहीं हो सकता । शिक्षक पेशा से सम्बन्धित हो जाता है, जबकि गुरु जीवन पद्धति से जुडा होता है । शिक्षक नौकरी करता है, गुरु जीवन को मालिक बनाता है । शिक्षक लेता है, गुरु देता है । शिक्षक स्थिति बदलता है, गुरु जीवन बदलता है । शिक्षक परम्परावादी होता है, गुरु परिवर्तनवादी होता है । शिक्षक तलब पाता है, गुरु गाली और ताली पाता है । शिक्षक पाठशाला बनाता है, गुरु जीवनशाला बनाता है ।
वास्तविकता यही है कि जिस समाज का शिक्षक विद्रोही न बन सके, उस समाज को परिवर्तन होना मुश्किल है । विद्रोह का अर्थ यह कतई नहीं कि कोई शस्त्र उठायें । शिक्षा परम्परा से नहीं, आवश्यकता से जुडी होनी चाहिए ।
गुरु पूर्णिमा के पवित्र त्यौहार के अवसर पर मेरे जीवन के शैक्षिक गुरु ः श्री दिगम्बर झा, मो. श्री अमेरुल हसन तथा श्री सुकेश्वर ठाकुर, जीवन गुरु मेरी धर्मपत्नी श्रीमति कंचन कुमारी महतो और राजनीतिक गुरु डा.चन्द्रकान्त ‐सी.के राउत को हार्दिक नमन । उन्हें कोटी कोटी प्रणाम् तथा धन्यवाद ।