शिक्षा व्यापारीकरण की ओर
रमेश झा
शिक्षा शब्द का अर्थ बहुत ही व्यापक है। शिक्षा मानव को अपने आलोक से आलोकित करते हुए सक्षम, सबल और शालीन बनाता है। शिक्षाबिना मानव समाज एवं राष्ट्र सबके सब अधूरे हैं। शिक्षा का अर्थ होता है, किसी भी विद्याको सीखना या सिखाने की क्रिया। अर्थात् जीवन में हरेक मानव को हरेक क्षण कुछ न कुछ सीखने को अवसर मिलता है। भले ही मानव उसे अनदेखा करते रहे। अवसर को अनदेखा करनेवाला व्यक्ति स्वयं उपेक्षित बन जाता है। परीक्षा पास करना शिक्षा नहीं कहा सकता है। कारण परीक्षा प्रणाली स्वयं त्रुटिपर्ूण्ा है। प्रश्नपत्र का निर्माण स्तरीय न होना, परीक्षा मार्यादापर्ूण्ा न होना -कहीं कडर्Þाई, कहीं ढिÞलाई)। परीक्षा पर्ूव ही प्रश्नपत्र प्रकाशित होना, उत्तर पुस्तिका परीक्षण कार्य उचित रूप में न होना, इसके अतिरिक्त १० वर्षमें पढÞाए गए ज्ञान को मात्र ३ घंटों में लिखे उत्तरों के आधार पर परीक्षार्थी सफल-असफल होन का निर्ण्र्ााकहां तक उचित हैं – एसएलसी परीक्षा परिणाम ने सबको स्तब्ध कर दिया है। सम्पर्ूण्ा नेपाली मात्र को स्तब्ध बनाने वाली प्रवेशिका परीक्षा परिणाम का मुख्य कारक तत्त्व है, शिक्षा माफिया द्वारा शिक्षा का व्यापारीकरण किया गया है। शिक्षा क्षेत्र पर्ूण्ातः व्यापारिक केन्द्र बन गया है, इस में किसी का दो मत नहीं है। फिर भी सम्बन्धित हरेक क्षेत्र किर्ंकर्तव्यविमूढ हो, विद्यालय या ±२ खोलकर व्यापार करनेवाले लोगों को लूटने दिया जा रहा है।
नेपाली जनता का दर्ुभाग्य है, राणकाल में उसे शिक्षा के नैर्सर्गिक अधिकार से बंचित रखा गया। २००७ में परिस्थिति बदली, जनता अधिकार माँगने के लिए आगे बढÞी, तर्सथ जनता को शिक्षा प्रदान करनेवाली संस्थाओं का खुलना प्रारम्भ हुआ और आजतक आते-आते विद्यालय खोलने की होडÞ सी लग गई है। होडÞबाजी क्यों न हो क्योंकि शिक्षा के नाम पर स्थापित शिक्षा माफिया केन्द्र स्वरुप विद्यालय लगानीकर्ता को भन्सार विभाग से भी कई गुना अधिक आम्दानी कराता है, कोई हिसाब-किताब लेनेवाला नहीं, कोई कानून नहीं। इसीलिए विद्यालय ट्रस्टी लोग कुछ ही वर्षों में अरबपति हो गए है। व्यापार में समय-समय पर घाटा भी लगता है, परन्तु शिक्षा-व्यापार घाटामुक्त व्यापार है।
आधुनिक शिक्षा की उम्र ६० वर्षहो गई है पर अवस्था संतोषजनक नहीं है, स्थिति भयावह है कारण शिक्षा का पवित्र भाव सीखना-सिखाना गौण हो गया है, शिक्षण केन्द्र व्यापारिक केन्द्र बन गया है। जिस प्रकार औद्योगिक बस्तुओं के बारे में विविध विज्ञापनों के द्वारा प्रचार-प्रसार करके उपभोक्ताओं को आकषिर्त किया जाता है, उसी तरह आजकल शिक्षा संस्थाओं का विभिन्न सञ्चार माध्यमों से आकर्ष विज्ञापन किया जाता है। और इसके माध्यम से विद्यार्थी एवं अभिभावकों को अपनी-अपनी ओर खींचा जाता है। मानो विद्यालय नहीं औद्योगिक बस्तुओं का कार्यालय है। विद्या देनेवाले विद्यालय रुपी कार्यालयों में विद्यादान जैसी पवित्र भावना को पर्ूण्ातः भूला दिया गया है और व्यापारिक विधियों से कैसे विद्यार्थियों के माध्यम से अभिभावकों से पैसा खींचा जाय, यही आज की शिक्षा का मूल ध्येय बन गया है।
वि.सं. २००७ के बाद नेपाल की जनसंख्या जिस गति से बढी है, उससे सौ प्रतिशत तीव्र गति में विद्यालय खोलने की प्रतिस्पर्धा बढी है। ऐसे तो शिक्षा में प्रतिस्पर्धा होना अच्छी बात है। प्रतिस्पर्धी विद्यालयों में दी जानेवाली शिक्षा का गुणात्मक और र्सार्थक प्रभाव व्यक्ति और समाज पर पडÞता है। शिक्षा के नाम पर अरबों की योजना बनाइ जाती है, पर परिणाम शूख्य। शैक्षिक संस्थाओं से जनता में र्सवाधिक आशा करने की बात अनुचित नहीं है, क्योंकि सरकार जनता दोनों अरबों रुपये शिक्षा में निवेश कर रही है और जनता ने शिक्षा को र्सवाधिक प्राथमिकता दी है। संतान को मिलनेवाली शिक्षा अच्छी हो, इसके प्रति जागरुकता होना अच्छी बात है। विद्यालय और विद्यार्थियों की संख्या में असीमित बढÞोत्तरी हर्ुइ है। शिक्षकों के आयस्रोत भी बढÞे है, जो अच्छी बात है पर शिक्षाजन्य गुणात्मकता में वृद्धि नहीं हर्ुइ है। शैक्षिक अवस्थाजन्य उपलब्धि, स्तर एवं मात्रा की दृष्टि से संतोष करने की अवस्था नहीं है। शिक्षा को वर्तमान दुरास्था में लाने के लिए शिक्षा मन्त्रालय की ढुलमुल नीति और शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त राजनीतिक हस्तक्षेप दोषी है।
जो भी कारण हो, आजकल दी जानेवाली शिक्षा जनता और समाजसापेक्ष साबित नहीं हो रही है। यही राष्ट्रीय चिन्ता का विषय है। बडेÞ-बडेÞ विज्ञापन छपवाने से, ऊचे-ऊँचे महल खडÞा करने से, ख्याति प्राप्त प्राध्यापकों, व्यक्तियों के बडेÞ-बडÞे चित्र पत्रिकाओं में छपवा देने से शिक्षा की गुणत्मक वृद्धि नहीं होती। प्रश्न उठता है कि पत्रिकाओं में अंकित ख्याति प्राप्त प्राध्यापक गण ±२ विद्यालयों में कितनी कक्षा लेते हैं – नाम प्रयोजित होने से शिक्षा में गुणत्मकता एवं प्रभावोत्पादक नहीं आ सकती है। शिक्षा क्षेत्र में अरबों रुपये नेपाल सरकार द्वारा व्यय करने के उपरान्त भी एसएलसी का परिणाम ५ अंक ग्रेस देने के बाद ४७ प्रतिशत प्रसारित होता है। सरकारी विद्यालय की प्रवेशिका परीक्षा फल देखने क बाद यह लगता है कि विद्यार्थी फेल नहीं हुआ है, अपितु हमारी शिक्षा पद्धति ही असफल हो गई है। हमारे यहाँ विद्यालयीय शिक्षा संसार की ही सबसे महंगी साबित हर्ुइ है। ऐसी स्थिति में आर्थिक दृष्टि से विपन्न मेधावी विद्यार्थियों का भविष्य अन्धकारमय दिख रहा है। देश के कर्ण्र्ाार एवं मेधावी छात्रों का भविष्य दाव पर लगा है।