नेपाल मे हिन्दी की दुर्दशा : रामचन्द्र मिश्र ( पुण्यतिथि पर विशेष )
प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर विश्व के हिन्दी-प्रेमी समाज से नेपाल की हिन्दी भाषी जनता की
अपील

मित्रो तथा बन्धुओ !
नागपुर जैसे ऐतिहासिक नगर में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन अपने लिए अत्यन्त आशा तथा उत्साह का विषय है तथा इससे यह आशा बढती है कि हिन्दी भाषा की विपुल मर्यादा विश्व भर में निरन्तर बढती जाएगी और यह सम्मेलन अपना अभीष्ट सिद्ध करने में सफल होगा।
इस अवसर पर यह जान कर हमें अत्यन्त खेद हो रहा है कि नेपाल के हिन्दी भाषियों का कोई प्रतिनिधि मण्डल इस सम्मेलन में भाग नहीं ले रहा है। हमने सुना है कि नेपाल की सरकार को भी इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए निमन्त्रित किया गया था, परन्तु सरकार इस विषय पर मौन साधे रह गई। भौगोलिक, जातीय, सांस्कृतिक तथा धार्मिक दृष्टिकोण से भारत का निकटतम पडाेसी देश नेपाल ही है। जनसंख्या के दृष्टिकोण से भी यहाँ की आधी से भी अधिक आवादी हिन्दी बोलने बालों की है। फिर भी जानबूझकर हम नेपाल के लाखों हिन्दी भाषाषियों को इस सम्मेलन से अलग-थलग रखने का प्रयास सरकार की अदूरदर्शिता तथा संकुचित नीति का परिचायक है।
भौगोलिक तथा भाषायी दृष्टि से नेपाल मुख्यतः दो भागों में बँटा है, उत्तर पहाड एवं दक्षिण में तर्राई अथवा मैदानी भाग। नेपाल की पिछली जनगणना के अनुसार तराई वासियों की संख्या चालीस प्रतिशत से अधिक है। आज नेपाल के अर्थतन्त्र का आधार ही तर्राई है। इन तर्राईवासियों का, जिन्हें आम तौर पर ‘मधेशी’ कहा जाता है, इस राष्ट्र को सबल एवं समृद्ध बनाने में अपरिमित अवदान है। यह एक र्सवमान्य एवं प्रत्यक्ष तथ्य है कि इस क्षेत्र में स्थानीय तौर पर मैथिली, भोजपुरी, अवधी, थारु तथा राजवंशी आदि अनेक भाषाओं, बोलियों का प्रयोग होने पर भी सभी तराई वासियों की सामान्य व्यवहार की भाषा हिन्दी है। इस सर्वविदित तथ्य को मद्देनजर रखते हुए आज के नेपाल में हिन्दीभाषियों की घोर उपेक्षा तथा हिन्दी भाषा का सुनियोजित ढंग से उन्मूलन करने का प्रयत्न अत्यन्त आर्श्चर्य एवं खेद का विषय है।
यह ध्यान देने की बात है कि नेपाल में हिन्दी भाषियों की संख्या ही बहुत अधिक नहीं है, वरन यहाँ के कवियों, लेखकों तथा चिन्तकों ने आदि काल से ही हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हिन्दी के अदिकालीन साहित्य के रचयिता ‘नाथ सिद्धो’ में बहुत से नेपाल के ही निवासी थे। स्वयं गुरु गोरखनाथ ने भी नेपाल को ही अपनी लीलाभूमि बनाया था। उनके अनन्तर मध्ययुग में ‘जोसमणि’ नामक निर्गुणपंथी संत समुदाय का बडा जोर रहा। नेपाल के वर्तमान शाहवंश के संस्थापक राष्ट्रनिर्माता, परम तेथजस्वी सम्राट पृथ्वीनारायण शाह गुरु गोरखनाथ देव के परम भक्त थे तथा ‘जोसमणि’ मत में निष्ठा रखते थे। उनके बनाए हुए कई भजन हिन्दी में हैं, जो अभी तक अत्यन्त लोकप्रिय हैं। शाहवंश के ही एक अन्य राजा श्री ५ ग्रीवाण वीर विक्रम शाहदेव स्वयं ‘जोसमणि’ सम्प्रदाय में दीक्षित हो गए थे तथा उन्होंने संत निर्वाणानन्द के नाम से अनेक हिन्दी भजनों की रचना की है। ‘जोसमणि’ संत समुदाय की रचनाएं हिन्दी तथा नेपाली भाषा में विपुल हैं। कुछ का प्रकाशन भी हुआ है। आधुनिक काल में भी नेपाली साहित्य के बहुत से कवियों ने हिन्दी तथा नेपाली में साथ साथ रचनाएं की हैं। कवि लेखनाथ पौडेल, श्री लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा, तथा केदारमान ‘व्यथित’ जैसे मुर्धन्य कवियों ने हिन्दी में भी रचनाएं की है। इसके सिवा आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रख्यात गीतकार लोकप्रिय कवि गोपाल सिंह ‘नेपाली’ को कौन हिन्दी प्रेमी नही जानता – इतना सब होते हुए भी आज इस देश में हिन्दी शिक्षा साहित्य की स्थिति समूल विनाश के कगार पर है।
हिन्दी सदा ही नेपाल की सबसे लोकप्रिय भाषा रही है। तराई में ही नहीं अपितु समस्त उत्तरांचल तक की धार्मिक, सांस्कृतिक परम्पराएं हिन्दी से प्रेरित प्रभावित रही हैं। राम चरितमानस की प्रतियां आज भी सारे नेपाल में घर घर में सम्मान एवं श्रद्धा से पूजी जाती है। तथा विद्वत् समाज से लेकर सामान्य पठित व्यक्ति भी विशेष रुप से हिन्दी पुस्तकों एवं अखबारों को पढÞकर ही ज्ञानार्जन करते हैं। इस सबके बावजूद, आज नेपाल में हिन्दी की यह शोचनीय स्थिति वास्तव में कुछ घोर साम्प्रदायिक तथा संकुचित मनोवृत्ति वाले पदाधिकिारियों के द्वारा विगत १५ वर्षो से किए गए कुचक्रपर्ूण्ा षडयन्त्र का परिणाम है।
राणा शासन काल में १९५र्०र् इ. से पहले नेपाल में केवल एक काँलेज तथा कुछ स्कूल थे। उनकी परीक्षाओं का संचालन पटना विश्वविद्यालय द्वारा होता था। १९५१ में प्रजातन्त्र की स्थापना के साथ नेपाल में शिक्षा संस्कृति का नवजागरण हुआ। रेडियो आदि संचार माध्यम में हिन्दी का प्रयोग होने लगा। हिन्दी में अनेक समाचार पत्र निकले। पर, इसी समय से, शायद कुछ राजनीतिक कारणों से हिन्दी के विरुद्ध षड्यन्त्र होने लगा और इस षड्यन्त्र का जन्मदाता हुआ एक अमेरिकी शिक्षा सल्लाहकार -डा. एच.बी.बूड) जिसने अपने प्रतिवेदन में स्पष्ट रुप से लिखा कि ‘संस्कृत मृत भाषा है तथा हिन्दी विदेशी, अतः नेपाल में इनकी शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं। उस समय उसका घोर विरोध हुआ तथा तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री मातृकाप्रसाद कोइराला ने इसे अनर्गल बताकर लोगों से इसे तूल न देने की अपील की। इसके बाद फिर जब एकबार १९५७ में सरकार ने हिन्दी को स्कूल काँलेज से हटाने का प्रयास किया तो सारे तर्राई में घोर प्रतिक्रिया हर्ुइ थी तथा हिन्दी रक्षा समिति संगठित की गई थी। समिति के अध्यक्ष तथा नेपाल के एक प्रमुख हिन्दी भाषी नेता श्री महेन्द्र नारायण निधि के नेतृत्व में एक शिष्टमण्डल ने राजा महेन्द्र से मिलकर उन्हें हिन्दी भाषियों की हकरक्षा के सम्बन्ध में एक ज्ञापन भी दिया था तथा राजा महेन्द्र ने उस समय सम्बन्धित निर्णय स्थगित करवा दिया था। नेपाल के सभी राजनीतिक नेता, मातृकाप्रसाद कोइराला, विश्वेश्वरप्रसाद कोइराला, दिल्लीरमण रेग्मी, टंकप्रसाद आचार्य आदि ने नेपाली को राष्ट्रभाषा के साथ हिन्दी को सह-राष्ट्रभाषा या द्वितीय भाषा का स्थान माना था। उस समय का सब से बडÞा राजनीतिक दल नेपाली कांग्रेस ने अपने महासमिति के अधिवेशन में विधिवत् प्रस्ताव पारित कर हिन्दी को समस्त तराई की प्रतिनिधि भाषा तथा तराई और पहाड के बीच सर्म्पर्क भाषा का स्थान दिया था। यही दल आम चुनाव में विजयी हुआ तथा सन् १९६० तक जब तक इस दल की सरकार कायम रही, हिन्दी का स्थान सुरक्षित रहा, पर १९६० में जब राजा महेन्द्र ने संसदीय शासन का अन्त कर, नई पंचायत प्रणाली का जन्म दिया, तो उस संक्रमणकाल की धुंधवेला का लाभ उठाकर शासन व्यवस्था में कुछ ऐसे संकीर्ण विचार वाले पदाधिकारी आ गए, जिससे हिन्दी को नेपाल से र्सवथा मिटा देने का प्रयत्न जारी हो गया। रेडियो से हिन्दीका सामाचार प्रसारण बन्द कर दिया गया, हिन्दी समाचारपत्र भी बन्द होने लगे, हिन्दी में दूकानों के नमपट्ट तक मिटा दिए गए। शिक्षा के माध्यम से भी हिन्दी को हटा दिया गया। तब तो नई शिक्षा योजना में प्राथमिक स्तर पर भी हिन्दी को र्सवथा हटा कर नेपाली को अनिवार्य माध्यम बना दिया गया है। इसका सब से घातक परिणाम तराई के ४० लाख हिन्दी भाषा-भाषियों के शिशुओं पर हुआ है। जब निम्न कक्षाओं में हिन्दी को हटा दिया जाएगा, तब उच्च कक्षाओं में विद्यार्थी ही कहां से आएंगे – काठमांडू के दो महाविद्यालयों में छात्रों के रहते हुए भी हिन्दी का अध्ययन बन्द कर दिया गया है। तर्राई के ६ महाविद्यालयों में से कुछ में गत वर्षस्नातक कक्षाओं में हिन्दी शिक्षण बन्द कर दिया गया। नेपाल के एक मात्र विश्वविद्यालय में प्रारम्भ से ही स्नातकोत्तर स्तर पर हिन्दी एम.ए. में प्रवेश रोक दिया गया है। इस तरह नेपाल की सरकार हिन्दी उन्मूलन पर तुली हुई। आजकल नेपाल की पूरी शिक्षा व्यवस्था में कुछ घोर संकर्ीण्ा विचार वाले पदाधिकारियों का बोलवाला हो गया है, जो भारत के साथ सामाजिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्धों को दृढÞ रखने वाले सभी तन्तुओं को काट देने में ही नेपाली राष्ट्रीयता का विकास देखते हैं। पर सरकार की इस नीति से देश के चालीस लाख हिन्दी भाषा-भाषियों पर क्या बीत रही है, इस का सहज अनुमान किया जा सकता है। साम, दाम, भय, भेद के सभी साधनों द्वारा हिन्दी भाषियों को कमजोर किया जा रहा है। जहाँ पहली जनगणना में हिन्दी को मातृभाषा के रुप में लिखने वाले १४ लाख से अधिक लोग थे, वहाँ हाल की जनगणना में हिन्दी भाषियों की संख्या केवल कुछ हजार दिखाई गई है।
नेपाल में सरकार की हिन्दी विरोधी नीति का एक ज्वलन्त प्रमाण इस विश्व हिन्दी सम्मेलन की उपेक्षा है। जहाँँ विश्व के कोने-कोने से अनेक देशों के अनेकों हिन्दी प्रेमी प्रतिनिधि मण्डल यहाँ आए हैं, वहाँ नेपाल से एक भी विद्वान नहीं आया है। वहाँ अनेक विद्वान कवि तथा लेखक इस सम्मेलन में भाग लेने को उत्सुक थे, पर सरकारी रोक के कारण उन्हें इस सौभाग्य से वंचित होना पडÞा। त्रिभुवन विश्वविद्यालय को निमन्त्रण भेजा गया था, परन्तु उसके उपकुलपति ने परीक्षा कार्य में व्यवस्तता का झूठा बहाना बनाकर किसी को नहीं आने दिया। यहाँ एक बडी भूल इस सम्मेलन के आयोजकों से हुई है। सरकारी संस्थाओं से बाहर के किसी भी हिन्दी प्रेमी विद्वान को आमन्त्रित नहीं किया गया, वहाँ पर हिन्दी की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाली एक मात्र संस्था हिन्दी रक्षा समिति को भी नहीं। नेपाल में प्रकाशित होनेवाला एक मात्र हिन्दी दैनिक ‘नेपाली’ को एक बार पूछा तक नहीं गया। जो हो, हम किसी की कोई आलोचना करना नहीं चाहते हैं। इस सम्मेलन से हमें बहुत सी आशाए हैं। यह बिलम्ब से ही सही, पर एक बहुत अच्छी शुरुआत है। इसकी असीमित सम्भावनाएं हैं। हम आशा करते हैं कि यह विश्व हिन्दी सम्मेलन एक स्थायी रुप धारण करेगा। तथा हिन्दी को विश्व भाषा बनाने के लिए ठोस काम करेगा।
इस अवसर पर नेपाल के समस्त हिन्दी भाषियों तथा हिन्दी प्रेमियों की ओर से इस सम्मेलन में विश्व के सभी भू-भागों से आए प्रतिनिधियों को और खासकर अपने भारतीय बन्धुओं को नेपाल में हिन्दी भाषा की दुःस्थिति की ओर ध्यान खींचने का यह लघु प्रयास हमने किया है। हमारा विश्वास है कि नेपाल में हिन्दी के पक्ष में सोचने का अर्थ है, सम्पूर्ण नेपाल तथा भारतीय जनता के हित में सोचना। हिन्दी से नेपाली जनता का जितना ही घनिष्ठ सम्पर्क रहेगा, उतना ही नेपाल का भारत तथा विश्व के हिन्दी भाषी समाज से सम्बन्ध मजबूत होगा और इससे विश्व बन्धुत्व एवं विश्व एकता का मार्ग प्रशस्त होगा।
नेपाली भाषा, जो देश की राष्ट्रभाषा है, उसके प्रति हमारा जरा भी दुर्भाव नहीं है, परन्तु, अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति सम्पर्ूण्ा आदर तथा प्रेम की भावना रखते हुए हम यह चाहते है कि हिन्दी को जो स्थान नेपाल में प्रारम्भ से प्राप्त रहा है, उसे मिटाया न जाए। इसलिए सभी मित्रों एवं बन्धुओं से हमारा यह निवेदन है कि हम अपने अधिकारों की रक्षा के लिए स्वयं संर्घष्ा करेंगे। पर आज के इस अन्तर्रर्ाा्रीय मञ्च पर उपस्थित सभी मित्रों तथा बन्धुओं की सहानुभूति तथा नैतिक समर्थन हमें चाहिए।
यहाँ पर दो शब्द में नेपाल-भारत सम्बन्धों पर भी कहना चाहता हूँ। आजकल नेपाल भारत सम्बन्धों के कटु हो जाने की चर्चा अखबरों में आप पढते ही होंगे। नेपाल राजनीतिक दृष्टि से एक र्सवथा स्वतन्त्र एवं पृथक राष्ट्र है और उसकी स्वतन्त्रता पर कोई आँच आए यह कोई भी नेपाली बर्दास्त नहीं करेगा। दोनों देशों की सरकारों में कभी-कभी राजनीतिक मतभेद उभर सकते है, तथा कभी-कभी दोनों देशों के आर्थिक स्वार्थ भी टकरा सकते हैं। परन्तु इसके कारण दोनों देशों की जो सांस्कृतिक, सामाजिक एवं भावनात्मक एकता है, उसे दुर्बल करने का कोई भी प्रयास चाहे किसी भी क्षेत्र से क्यों न हो, निन्दनीय है। हम एक हैं तथा सदा एक रहेंगे।
जय नेपाल ! जय हिन्द ! जय हिन्दी !
हिन्दी रक्षा समिति, जनकपुरधाम, नेपाल
-श्री रामचन्द्र मिश्र द्वारा नागपुर विश्व हिन्दी सम्मेलन में प्रस्तुत अपील)