” ना मैं, ना अर्जुन; धरा का, सर्वश्रेष्ठ योद्धा; तो, तू ही है; हाँ ! तू है, अभिमन्यु ।”
गंगेश मिश्र
कर्ण रोया था !
उसकी, मृत्यु पर;
स्तब्ध था !
दुर्योधन के, कुकृत्य पर;
मौन था !
घोर अनर्थ होने पर भी;
दानवीर था !
निर्धन, फ़क़ीर बन गया;
निर्दयी, न था !
पर, पाषाण बन रह गया;
दुःखी था !
निहत्था वीर;
असहाय देख;
वो, मज़बूर था;
ख़ुद से ही, दूर था;
कुछ, ना कर पाया;
देखता रहा, बस !
अकेले उसे;
लड़ते हुए;
धीरे से बुदबुदाया;
” ना मैं, ना अर्जुन;
धरा का, सर्वश्रेष्ठ योद्धा;
तो, तू ही है;
हाँ ! तू है, अभिमन्यु ।”