आजादी का मन्तव्य क्या
डा. प्रीत अरोडा
भारत एक आजाद देश है। प्रत्येक वर्षआजादी का जश्न पूरे भारत वर्षमें बडÞे धूमधाम और उत्साहपर्ूवक मनाया जाता है। आजादी से तार्त्पर्य है- प्रत्येक व्यक्ति को अपने
मानवीय मौलिक अधिकारों को प्रयोग करने का पर्ूण्ा रूप से अधिकार हो। चाहे वह निम्न, मध्यम या उच्च वर्ग से ही सम्बन्धित क्यों न हो। इसके साथ ही साथ एक साधारण व्यक्ति स्वयं को दूसरे व्यक्ति के समक्ष दलित, दमित व उपेक्षित न महसूस करे अपितु वह अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व को सुरक्षित रख सके। अब प्रश्न यह उठता है, क्या भारत में रह रहा प्रत्येक व्यक्ति सम्पर्ूण्ा रूप से आजादी का जीवन व्यतीत कर रहा है। सन् १९४७ को हमारा देश आजाद हुआ और थोडÞा-बहुत सामाजिक मूल्यों में बदलाव भी आया, परन्तु समाज को परम्परागत रूढिÞयों से आज भी आजादी नहीं मिल पाई। आजादी से पर्ूव भी व्यक्ति बेबसी, यातना व गुलामी का जीवन जीने को अभिशप्त था और आजाद भारत में भी वह अपने मानवाधिकारों से वंचित पालकों और मालिकों पर आश्रति रहकर गुलाम ही है। यदि भारत के प्रत्येक व्यक्ति को नागरिक के रूप में समाज की महत्वपर्ूण्ा इकाई व उपयोगी अंग कहा जाता है, तो उसे मानवीय अधिकारों से अपरिचित तथा वंचित क्यों रखा जाता है – उसे प्रत्येक क्षेत्र में अपने अधिकारों का उचित उपयोग करने की स्वतंत्रता क्यों नहीं दी जाती – वह परमुखापेक्षी बनकर जीवन व्यतीत क्यों करता है – आज भी ऐसे कई सवाल हमारे सामने खडÞे हैं। गुलामी के चक्रव्यूह में पुरुष, नारी, बच्चे व बुजर्ुग आदि सभी वर्ग प्रताडिÞत होकर प्रतिबंधित जीवन जी रहे हैं। अत्याचारों का सिलसिला कहीं रुकता ही नजर नहीं आता।
अगर गुलामी का जीवन जी रहा व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना भी चाहता है, तो परिवार व समाज द्वारा उस पर ऊंगली उठाकर प्रश्नचिन्ह लगाए जाते हैं। जब उसे शोषण, अत्याचारों, उत्पीडÞनों के कटहरे में अभियुक्त बनाकर व्यापक मानवता के अनगिनत लाभों से वंचित करके मानसिक रूप से त्रस्त किया जाता है, तब उसे सुरक्षा, सम्मान और समानता का ज्ञान नहीं हो पाता। आज इस गुलामी का स्तर पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर अबाध गति से बढता जा रहा है।
पारिवारिक स्तर पर सदस्यों द्वारा ही एक-दूसरे से भेदभाव करके उसे पराश्रति होने पर मजबूर किया जाता है। खासतौर पर परिवार में नारी की पहचान पुरुष के साथ ही सम्भव मानी जाती है, यथा-घर से निकलने पर पाबन्दी लगाना, शिक्षा से वंचित करना, मानसिक व शारीरिक रूप से शोषित करना, छोटी उम्र में विवाह कर देना तथा आर्थिक अधिकारों से परावलम्बी बना देना, आदि गुलामी की भूमिका को और भी प्रखर कर देते हैं। इसी तरह परिवार में बुजर्ुगाें की स्थिति भी अत्यंत दयनीय होती जा रही है। वे आत्म-विस्मृति के जाल-जंजाल में फँसकर दीन-हीन पतित बनकर घर की कैद में डÞर एवं भय की हथकडिÞयों से बँधकर रह जाते हैं। सामाजिक स्तर में स्थिति और भी सोचनीय है। समाज में नारी वर्ग की ओर देखें तो आए दिन भ्रूण-हत्या, बलात्कार, दहेज-उत्पीडÞन व छेडÞछाडÞ आदि की घटनाएँ दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक बढÞती ही जा रही हैं। दूसरे, समाज में बच्चों को लेकर भी ऐसे कई मामले सामने आते हैं, जिनसे पता चलता है कि मासूम बच्चों को बंधक बनाकर उनसे रेलवे स्टेशनों और बस-स्टापों पर भीख मँगवाई जाती है। अभिभावकों द्वारा बाल-मजदूरी करवाना भी कानूनी-अपराध ही है। अभिभावक ही अपने बच्चों से बाल-मजदूरी करवाकर उसे असभ्य, अयोग्य एवं अप्रगतिशील बना रहे हैं। बच्चों की तरह बुजर्ुग वर्ग भी सामाजिक स्तर पर दुरावस्था का शिकार हो रहे हैं। इसलिए आज ओल्ड ऐज होम्स की संख्या तेजी से बढÞती ही जा रही है। बुजर्ुग वर्ग अपनी हिफाजत के लिए इन्हीं संस्थाओं की शरण ले रहे हैं। राजनैतिक स्तर पर योग्य व्यक्ति को उसकी काबलियत के अनुसार अवसर प्रदान नहीं किए जा रहे। उसे वहाँ भी दूसरों के आधीन रहकर कार्य करने को मजबूर होना पडÞ रहा है। आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र में राजनीति का बोलबाला देखने को मिलता है। इसी कारण भ्रष्टाचार की समस्या भयानक रूप धारण करती जा रही है जिससे आज प्रत्येक व्यक्ति इसकी पकडÞ में आ रहा है।
धार्मिक स्तर पर कई जगहों पर आज भी उच्च जाति निम्न जाति पर क्रूर और वक्र दृष्टि डÞालकर उसे समाज से बहिष्कृत कर देती है। निम्नवर्गीय व्यक्ति जीवन से अभिशप्त होकर स्वयं को एक निस्तेज आभाहीन आत्मा की भांति महसूस करता है। आर्थिक स्तर पर भी साधारण श्रमजीवी से लेकर सम्पन्न वर्ग के व्यक्ति की स्थिति दयनीय बनती जा रही है। कार्यक्षेत्र में पुरुष-स्त्री दोनों को ही बाँस द्वारा शोषण, स्थानांतरण, कम वेतन और प्रताडÞना के भिन्न तरीकों से साक्षात्कार करवाकर दासता की बेडिÞयों में बाँधकर रखा जाता है, जिससे वे आजीवन दूसरों के नियंत्रण में रहकर पराधीन बन जाते हैं। ऐसे ही पारिवारिक क्षेत्र में भी कई बार एक सदस्य द्वारा दूसरे सदस्य की सम्पत्ति पर से अधिकार छीन लिया जाता है। जब बात शैक्षणिक स्तर की होती है तो प्रत्येक व्यक्ति यह जानता है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल अक्षर ज्ञान ही नहीं होता अपितु शिक्षा ही मानव में आत्मसुरक्षा का भाव जागृत करके उसे एक कुशल नागरिक बनाती है। इस बात से भलीभांति परिचित होते हुए भी भारतीय समाज में जहाँ आज भी बेटियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा जाता है, वहाँ लिंगभेद के कारण समाज में नारी के व्यक्तित्व एवं विकास की सम्भावना ही नहीं होती।
इस तरह व्यक्ति प्रत्येक क्षेत्र में गुलामी के साये में जीवन की बाजी हारकर स्वयं के लिए यथोचित निर्ण्र्ााले सकने के अभाव में अपने अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाता और उसका मन और शरीर अमानुषिक यंत्रणाओं को सहने का अभ्यस्त बन जाता है। आज नवीन प्रगतिशील जीवन की आंकाक्षा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के अस्तित्व का बोध उसकी स्वतंत्रता की अनुभूति में ही है। आज सबसे अधिक जरूरत है कि व्यक्ति-व्यक्ति के बीच सौहादर््रपर्ूण्ा, आत्मीय सम्बन्धों की समानतापर्ूण्ा स्थापना हो और एक ऐसा मानवीय समाज बने जहाँ कोई भी किसी के साथ बर्बरतापर्ूण्ा अमानवीय व्यवहार न करे। प्रत्येक व्यक्ति आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता व आत्मविश्वास की भावना के साथ आगे बढÞे। समाज में जिस व्यक्ति को कमजोर व असहाय समझकर अवहेलित किया जाता है वह भी दूसरों के समान समाज में अपना महत्व सिद्ध करके जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाए तभी उसे समाज में उचित आदर, सम्मान व स्थान का अधिकारी घोषित किया जा सकेगा। इसके साथ-ही-साथ उन सामाजिक मूल्यों व रूढिÞगत परम्पराओं में भी बदलाव लाना होगा जो एक व्यक्ति को दूसरे के समक्ष दास बनाने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। जब इन सभी बातों का ध्यान रखा जाएगा तब एक स्वस्थ परिवार,समाज व राष्ट्र का निर्माण सम्भव हो पाएगा और प्रत्येक व्यक्ति सही मायनों में आजाद होगा।
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