उड़ने को आसमान (लघुकथा) : राजेंद्र ओझा
जाती हुई ठंड की शाम थी वह। दिन पर कुहासा अभी भी जल्दी छा जाता था। शाम होती तो थी लेकिन फिसल कर तुरंत ही रात में बदल जाती थी।
एक हाल नुमा कमरे में कुछ लोग मिलकर कविताएं पढ रहे थे। एक का हाथ जब दूसरे की पीठ पर पडता तो उसकी पीठ भी किसी और दूसरे के हाथ के लिए थोड़ी झुक जाती। यह खुशी का लगातार बहता हुआ झरना था।
वहीं एक तितली भी थी। जो दीवार पर बैठती कम थी, उड ज्यादा रही थी। उसका उड़ना, उड़ना कम, छटपटाना ज्यादा था। दीवारों के कोने जालों से भरे पड़े थे। उडते उडते वह जाले तक पहुंच गई। जालों में उलझती इसके पहले ही वह उससे दूर हो गई।
कविताएँ पढीं जा रही थीं। उनमें दर्द भी था। लेकिन तितली के दर्द से बेखबर थे वे सब।
तितली लगातार उड रही थी। भीतर के उजाले ने बाहर के उजाले को थोड़ा क्षीण कर दिया था। तितली बाहर के उजाले को पकड़ना चाह रही थी। वह हार रही थी, लेकिन हार नहीं मान रही थी।
उसके उड़ने में आशा भरी पड़ी थी। आशा की अमरता उसके पंखों को ताकत दे रही थी। उसके पास लक्ष्य था, दिशा वह खोज रही थी।
दिशाहीन भटकना भी अंततः सही दिशा पकड़ने के लिए भटकना ही होता है। तितली अब उस जगह पर बैठ गई थी जहाँ से बाहर का उजाला भीतर के उजाले से ज्यादा चमक रहा था। तितली को यही उजाला चाहिए था, उसने उसे पकड़ लिया।
तितली को उड़ने के लिए आसमान चाहिए था, अनथक मेहनत से उसे वह आसमान मिल गया और वे जो कविताएं पढ रहे थे, अब भी भीतर ही बैठे थे।
राजेंद्र ओझा
कुशालपुर
रायपुर (छत्तीसगढ़)
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