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निवेश सम्मेलन, हवाई योजना और हवाई किले तो बहुत बनाती है लेकिन ….? बिम्मी शर्मा

हिमालिनी, अंक अप्रील 2019 | (व्यंग ) हमारे देश में कुंभ की भांति निवेश सम्मेलन होता है जिसमे विदेशी उद्योगपतियों को ललचाया जाता है नेपाल में निवेश करने के लिए । यह उद्योगपति भीं आ जाते हैं मुँह उठाए हुए कुछ रिफ्रेश होने के लिए । पर क्या और कितना निवेश करना है नेपाल सरकार की कोई सुनिश्चित योजना हैं नहीं है । इन्हें मालूम हैं नेपाल में दिमाग और पैसे का निवेश करना रेत में पानी डालने जैसा ही है । चाहे जितना भी निवेश कर लो नतीजा वही ढाक के तीन पात । न नेपाल सरकार के पास देश विकास और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए कोई विजन है न इस पर सहभागी होने वाले मेहमानों के पास ही आने का कोई मकसद । जैसे मेंले में जाने का मकसद गंगा जी मे डुबकी लगाना ही है । वैसे ही इन विदेशी मेहमानाें के लिए तफरीह के लिए एक मौका है काठमाडंू आना । इसी बहाने और कुछ हो न हो पर कुछ पांच सितारा होटलों को कमाने का मौका मिल जाता है ।

इस से पहले भी निवेश सम्मेलन हुआ था जिस में १३ अरब रूपएं खर्च होने के चर्चे थे । पर उस सम्मेलन में कहाँ और कितना निवेश हुआ सरकार को भी मालूम नहीं हैं तो बेचारे भेड़, बकरी जैसी जनता को क्या मालूम होगा ? इस बार के सम्मेलन में भी १५ अरब रूपए खर्च होने के चर्चे हैं । वह पैसा किसी उद्योग स्थापना में निवेश किया जाता तो उसका कुछ सकारात्मक परिणाम भी आता । पर नहीं दो तिहाई के बहुमत से बनी इस सरकार को तामझाम पसंद है । वह दिखाना चाहती है बाहरी देशों को कि देखो हमारा देश कितना समृद्ध हो चला है । हां यह देश समृद्ध तो जरूर हुआ है पर सिर्फ खाने, पीने और कागजी योजनाओं के मामले में । बाकी तो इस देश का अल्लाह मालिक है ।
दिमाग तो सरकार का सिंह दरवार के अंदर घास चरता रहता है और सिंह दरवार से बाहर आ कर सरकार सिंह की तरह गरजते हुए कहती है कि हमने ये किया हमने वो किया । पर किया क्या यह कोई नहीं जानता । बस दो तिहाई बहुमत के घोड़े पर सवार सरकार मेट्रो या मोनो रेल के रास्ते पर सरपट दौड़ती रहती है प्रधान मंत्री के जीभ की तरह । पर विकास या समृद्धि जीभ लपलपाने से ही आ जाती तो कहना ही क्या ? सांप बेचारा दिनरात अपनी जीभ लपलपाता रहता है पर फिर भी चूहे से उस का पेट नहीं भरता । यह सरकार भी वैसी ही है हवाई योजना और हवाई किले तो बहुत बनाती है । पर यह योजना जमीन पर टिकती ही नहीं फुर्र से हवा की तरह उड़ जाती है । क्या करें इन योजनाओं को जमीन पर लैंड करने के लिए कोई धरातल ही नहीं है । बिना धरातल के ही निवेश सम्मेलन होता है और इस में आए हुए मेहमान भी खा–पी कर फुर्र से उड़ जाते है ।

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जैसे गाँव मे स्कूल, कालेज या अस्पताल बनवाने के लिए सात दिन का श्रीमद्ध भागवत लगाया जाता है । इस में बढ़–चढ़ कर भाग लेने वाले हमारे प्रधान मंत्री केपी शर्मा ओली की तरह खूब बोलेंगे कि मैं इतना, इतना पैसा दूँगा । पर जब देने की बारी आती है तब बाबाजी का ठुल्लू हो जाता है । वैसे ही है यह निवेश सम्मेलन भी । करते तो बडीÞ–बड़ी बाते हैं पर जब करने की बारी आती है तब सब सिर खुजाने लगते हैं । क्यों साधारण जन हो या कोई बड़ा व्यापारी, चमड़ी भले ही चली जाए पर दमड़ी नहीं जानी चाहिए यही सोच रख कर चलते हैं । आखिर अपने खून पसीने की कमाई को कोई यों ही जाया क्यों करेगा ? उसे भी तो अपनी लगानी की सुनिश्चितता और नाफा चाहिए । पर नेपाल में नाफा तो सब सरकार ऊख के रस की तरह पी जाती है और बाकियों के लिए छोड़ देती है उसका छिलका । जब पता है यहां का हाल तो तब क्यों कोई अपना सिर मुसल में कुट्ने के लिए डालेगा ?

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यदि सरकार सच में निवेश चाहती तो इस के लिए पहले वातावरण बनाती । यदि सरकार उद्योग मैत्री होती तो कोडाक जैसी फोटो का रील बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनी यहां से अपना बोरिया विस्तर उठा कर चली नहीं जाती ? और भी कई सारी कपंनियां है जो सरकारी नीति के चलते यहां से जा चुकी है या जाने का सोच रही है । आए दिन का बंद, सरकारी नुक्ताचीनी और कर का बोझ अलग से । तब ऐसे माहौल में कौन अपना पैसा यहां निवेश कर के बलि का बकरा बनना चाहेगा । यहां तो बस दो नबंरी धंधा ही चलता है । इधर का माल उधर, उधर का माल इधर कर के सालों से व्यापारी अपना और सरकार का पेट भरते आ रहे हैं । अब कोई नया व्यापार या उद्योग स्थापना करने के लिए दिमाग भी तो होना चाहिए । दिमाग में तो तश्करी का जाल बुना हुआ है ।

जब भी कोई नया उद्योग का निर्माण होता है तब सरकार उस के लिए जमीन ही उपलब्ध नहीं कराती । उसके लिए निश्चित सालों तक कर या राजश्व में छूट भी देती है । भारत के पश्चिम बगांल नैनो कार के फैक्ट्री को वहां के राज्य सरकार के असहयोग और गलत नीति के कारण उद्योग को ही वहां से हटा कर गुजरात ले जाना पड़ा । नेपाल में तो उस से भी बुरे हालात हैं । यहां तो किसी कपंनी खड़ा करने या व्यापार के इजाजत लेने के लिए भी संबधित निकाय या मंत्रालय के सचिव को कमीशन खिलाना पड़ता है । इस के लिए बिजली उत्पादन के लिए हाईड्रो पावर का लाइसेंस लेने वाली कपंनी और उसके लिए उन के द्वारा सचिव और मंत्री को खिलाया गया कमीशन का उदाहरण ही काफी है । यह सब बाहर से ही देख, सुन कर अनुभवी हो चुके उद्यमी निवेश करने से पल्ला झाड़ने लगता है तो ठीक ही करता है । जहां कि शासन व्यवस्था ही हमेशा चरमराती रहती है वहां पर कैसा निवेश सम्मेलन ? आए हुए मेहमान तो बस अपने फुर्सत के समय का सदुपयोग कर रहे हैं । क्यों पड़ोस मे हो कर भी भारत के सब से बडेÞ उद्योगपति मुकेश अंबानी निवेश करने के लिए नेपाल कि तरफ मुँह नहीं करते ? क्योंकि किसी के पास भी अपना पैसा डुबाने के लिए नहीं है ।

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भूकपं के समय ध्वस्त हुए घरों के निर्माण के लिए विदेश से आया हुआ पैसे का तो सदुपयोग नहीं हुआ । वह पैसा जिनको मिलना चाहिए था उनको अभी तक मिला ही नहीं । न ध्वस्त हुए भवनों का ही पुनर्निमाण हो सका है । तब निवेशकर्ता कैसे आश्वस्त होगा कि उसका पैसा एकदिन दोगूना हो कर वापस उसकी जेब में आएगा । कोई भी लगानी व्यापार करता है दान नहीं । जो अपना पैसा लगाए और भूल जाए । सिर्फ निवेश का जाप करने से कोई बड़ा धनसेठ अपना डेरा डंडा उठा कर यहां नहीं आ जाएगा । एक पान का छोटा व्यापारी भी व्यापार में होने वाले नफे नुकसान को तौल कर ही आगे बढ़ता है । यह तो फिर अरबों रूपए का मामला है । पहले अपना दिमाग लगाइए, अपनी योजना और विजन को स्पष्ट कीजिए और क्या–क्या सुविधा या सहुलियत देंगे उस के बाद ही कोई आकर्षित हो कर यहां निवेश करेगा । नहीं तो ऐसे निवेश चाहे जितनी कर लो आप उद्योगपतियों के जेब के पैसे को जितना भी खींचने की कोशिश करो, न वह आएगा न उसका पैसा ही यहां आएगा ।

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