नेता, बुद्धिजिवी, व्यापारी और यूवा के कारण ही मधेश का सभी आन्दोलन असफल रहा है : कैलाश महतो
जब जब मधेश में विद्रोह होता है तब तब मधेश नेपाल का हो जाता है ज्योंही मधेश शान्त होता है वह स्वतः नेपाल का उपनिवेश बन जाता है
देश का पहला राष्ट्रपति विद्या देवी भण्डारी ही है कि…?

कैलाश महतो \ उपर के तस्वीर को गौर से देखें । सरकारी पार्टी के प्रधानमन्त्री ने अपने समान स्तर के दूसरे अध्यक्ष प्रचण्ड, पूर्व प्रधानमन्त्रीद्वय माधव नेपाल और झलनाथ खनाल व बाँकी नेताओं के साथ बालुवाटार के सरकारी दफ्तर में ७७ ही जिलों में पार्टी के इञ्चार्ज और सह–इञ्चार्जों की छनौट की है । छनौट में उदयपुर, सप्तरी, बारा, पर्सा, पश्चिमी नवलपरासी लगायत के कुछ जिलों में मधेशी को जिला इञ्चार्ज बनाया गया है । देश को ७६ से ७८ प्रतिशत राजस्व देने बाले मधेश और उसके बासिन्दाओं को २२ जिलों के मधेश में भी पार्टी ५ जिला इञ्चार्ज बनाती है तो समाजवाद और विभेद का अन्त कर समानता और भाइचारा का नारा देने बाला सर्वहारा पार्टी और उसके नेतृत्वों की मानसिकता को मधेश को अब भी समझने में देर नहीं करनी चाहिए ।
“माखे साँङ्गलो, झरेको पात, बिहारमा मधेश आदि” के नाम से मधेशियों को अपमान करने बाले केपी ओली ने अपने कई भाषणों में मधेश में विकास और समृद्धि की आवश्यकता की बात बताकर मधेश को शान्त करने की कोशिश की है । मधेश में सुख, शान्ति और समृद्धि केपी ओलियों से होने का मतलव तो यही होगा न कि भारत का समृद्धि पाकिस्तान कर देगा और अमेरिका का भलाई किम जोंग उन कर देगा । मधेश का विकास ओली द्वारा होना होता तो ओली के पूर्खोंं ने इसका कल्याण कबको कर दिया होता ।
स्वतन्त्र मधेश की बात उठने के बाद नेपाली साम्राज्य में एक तहल्का मच गयी थी । उससे बचने के लिए ओलियों ने एक चक्रव्यू रचा जिसमें यह कहा गया कि मधेश की समस्या नेपाल की समस्या है । वहाँ विकास और समृद्धि की आवश्यकता है । जाहेर सी बात है कि मधेश में जब जब विद्रोह की आवाज गुँजती रही है, तब तब मधेश नेपाल का होता रहा है । मधेश से उनका प्यार बढ जाता है और ज्योंही मधेश शान्त होता है, वह स्वतः नेपाल का उपनिवेश बन जाता है । और बात सत्य यही है कि किसी एक मूक आदमी के रोग को हटाने के लिए दूसरे किसी मूक आदमी के दवा खाने से रोग ठीक नहीं हो सकता । मधेश का रोग भी किसी ओली, भण्डारी या खनाल से ठीक होने की बात वैसा ही है जैसे दुध का रक्षक बिल्ली ।
देश के ५१ प्रतिशत से ज्यादा जनता मधेश में बास करती है । जितनी उसकी कमाई होती है, अगर उसका कमाई उसके पास ही छोड दिया जाय तो कुछ ही वर्षों में मधेश दुनियाँ की उत्तम श्रेणी में पहुँच सकती है । देश को तीन चौथाई से ज्यादा राजस्व देने बाले मधेश में ही आखिर गरिबी, अशिक्षा, रक्तअल्पता, भूखमरी, पानी का अभाव, शारीरिक दुर्वलता, मातृ और शिशु मृत्यु दर की विकराल अवस्था, भूमिहीनता, कमजोर साक्षरता आदि क्यों हैं ? उनका कमाई कहाँ चला जाता है ? जिसकी कमाई और मेहनत की राज्य दोहन करती है, उसी को नफरत क्यों करती है ? उसके अपना संविधान, अपने द्वारा स्थापित शासन और राज्य व्यवस्था होता तो क्या मधेश में शदियों से व्याप्त अराजकता होतीं ? मधेशी नेता जितना भी खाता, मधेश फिरभी हराभरा और सम्पन्न रहता ।
५१ प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या जिस मधेश में बास करती है, उसके विकास और समृद्धि के लिए देश के राष्ट्रिय बजेट के २० प्रतिशत मात्र दी जाती है । राजनीतिक अवस्था दिनानुदिन खसीय होता जा रहा है । लोक सेवा आयोग में मधेशियों के लिए विभेद ज्यों का त्यों है । लोक सेवा आयोग की भाषा में कोई परिवर्तन नहीं है । विकास, बस्ती, धार्मिक स्थलों आदि के नाम पर मधेश के जंगलों की दोहन मे कोई बदलाव नहीं है । काठमाण्डौ और पहाडभर को जिलाने के लिए मधेश – काठमाण्डौ फाष्ट ट्र्याक खोलने और मधेश का विकास करने के नाम पर मधेश के जंगलों के लाखों लाख पेड काटकर केवल एक समुदाय के बैंक सजाने का काम होता है । मधेश को मरुभूमिकरण करने की योजना अद्यावधि कायम है । आज भी मधेश के हर प्रशासनिक और आर्थिक निकायें गैर मधेशियों के कब्जों में हैं । इस अवस्था में क्या मधेश का विकास और समृद्धि संभव है ?
आश्चर्य की बात यह है कि नेपाली राज्य, उसके शासन व्यवस्था, प्रहरी प्रशासन और सेनातक से बिना किसी घबराहट और त्रास उसके विरुद्ध लडने, जेल और नेल को स्वीकारने तथा हजारों सुरक्षाकर्मी व उनके गोलीतक को अपने शर और सीने पर थामने बाले मधेशी यूवा जमात मधेश के किसी एक नेता से डरकर अपने न्यायिक यूद्ध से मुडकर आत्म समर्पण कर देता है । मधेशी यूवा आजतक के इतिहास में नेता के परिवार, जातीयता, धर्म, शिक्षा, रंग, रुप, लिवास आदि के फन्दों में पडकर मधेश और अपने आपको धोखा देने का काम किया है । वे अपने लडाईयों को बीच में ही छोडकर नेताओं के पिछे अपने सीमित स्वार्थ सिद्धि के लिए नेता का अन्धभक्त हुए हैं । भक्त होना और विश्वास करना ठीक हो सकता है । मगर दुःख की बात है कि वे अन्धभक्त और अन्धविश्वासी हो जाते हैं । नेता तो मधेश हित के विपरीत रहा ही है । मधेशी यूवा का भी नेता के साथ ही कायरता और स्वार्थी होने का परम्परागत इतिहास है ।
नेता, बुद्धिजिवी, व्यापारी, शहरी बाबु और यूवा जमात के कारण ही मधेश का एक भी आन्दोलन सफल नहीं हो पाया है । हर आन्दोलन को मधेश के नेताओं ने अपने फायदे के लिए राज्य से सौदा करके बेचा है । राज्य के साथ किये गये हर सहमति और सम्झौता को जनता के चाहना और आवश्यकता से जोडकर बीच मजधार में आन्दोलन को निगलने का काम हुआ है । वैसे ही मधेश के हरेक नेता व नेतृत्व सफल होने में असफल रहे हैं । किसी की इज्जत राज्य के सामने बरकरार नहीं रह पाया है । धीरे धीरे उसका मधेश में भी बेइज्त होने का प्रशस्त प्रमाण व उदाहरण हैं । जो मधेशी नेता अपने से पहले बाले नेताओं का शिकायत और गाली किये, वे उनसे भी बडा धोखेबाजी की है ।
उपर के तस्वीर में प्रधानमन्त्री केपी ओली जी के माथे शर पर दीवाल से लटक रही तस्वीर देश के राष्ट्रपति विद्यादेवी भण्डारी की है । वे दूसरा राष्ट्रपति हैं । यह दुनियाँ की राजनीतिक नियम और संस्कार है कि राष्ट्र के पूर्व और वर्तमान राजा या राष्ट्रपति की तस्वीर हर गाँव के सरकारी दफ्तर से लेकर प्रधानमन्त्री और राष्ट्रपति के कार्यालयों तक के मूल दीवारों पर सम्मानपूर्वक सजाया जाता है । सबको मालूम है कि गणतान्त्रिक नेपाल का प्रथम राष्ट्रपति और राष्ट्र प्रमुख डा.रामबरण यादव हैं । उन्होंने गणतान्त्रिक देश को गणतान्त्रिक संविधान दिया है । उनके तस्वीरों को कम से कम गणतान्त्रिक सरकार द्वारा सम्मान के साथ सरकारी दफ्तरों और कार्यालयों में लगाये जाना चाहिए था । मगर वैसा नहीं है । शासकों ने इस बात को खुल्लम खुल्ला यह कह रहा है कि किसी घटना क्रम के दौरान मधेशी किसी उच्च पद पर पहुँच सकता है, मगर वह देश का सम्मानित व्यक्तित्व नहीं हो सकता ।
मधेश को गमभीर होना बेहद जरुरी है । खास करके काठमाण्डौ में बास करने बाले उन लाल बुझक्कड बुद्धिजिवियों को – जो अपने बुद्धि को भी चपरासी बनाकर खसजिवी और गुलामजिवी होकर मधेश को देशभक्ति और राजनीति का शिक्षा और अन्तरवार्ता देते रहते हैं । समझना यह है कि जब मधेश से देश के राष्ट्रपति बनने बाले एक उच्च राष्ट्रभक्त व्यक्तित्व का कोई सम्मान नहीं है तो नेपाली शासन व्यवस्था आप जैसे बुद्धिजिवियों का मूल्य कितना रखता है ?