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गणतान्त्रिक देश में राजतन्त्र की बात होना कम आश्चर्य की बात नहीं है : कैलाश महतो

राजतन्त्र आगमन की चर्चा और उसकी आन्तरिक तैयारी 

कैलाश महतो, पराशी | २८ मई, २००८ के दिन बडे धुमधाम से नेपाल में राजशाही की विदाई की गई । प्रजातान्त्रिक राजतन्त्र के बदले गणतन्त्र नेपाल की स्थापना हुई । जनता की प्रत्यक्ष शासन शुरु होने का ढिंढोरा पीटा गया । गणतान्त्रिक कहलाने बाले नेताओं ने बाजेगाजे के साथ नेपाल के शासन सत्ता को कब्जा किया और राजा रहे ज्ञानेन्द्र शाह को राजदरबार छोडने की उर्दी जारी की । राजा ने भी बडे होशोहवास के साथ जनता के नाम पर बिना हिंसा बिना कोई देर किए अपना श्रीपेच और राजगद्दी त्यागने का फैसला किया ।
राजगद्दी छोडने का पहला कारण था वि.सं. २०५८ जेठ १९ का दरबार हत्याकाण्ड और राजा ज्ञानेन्द्र के उपर लगाये गये उसका नाकाम इल्जाम । दूसरा कारण रहा नेपाली जनता में रहे राजतन्त्र प्रति का आक्रोश और नेताओं के द्वारा उनमें बाँटे गये स्वर्गीय सपना । और तीसरा कारण यह रहा कि राजा ज्ञानेन्द्र यह वखुबी जानते थे कि उनके विरोध में सडकों को गरमाये हुए पार्टियों के नेता कुछ ही वर्षों में पूर्णतः असफल होने का दूरदृष्टि ।
मुझे याद है एक राजावादी नेता ने हमसे कहा था कि नेपाल में गणतन्त्र या तो संभव ही नहीं है, और अगर हो भी जाये तो वह पन्द्रह साल भी नहीं चल सकता । वे आज इस संसार से विदा ले चुके हैं । मगर उनकी भविष्यवाणी अकाट्य प्रमाणित होने बाला है ।
गणतन्त्र स्थापना के साथ ही जनता में अनेक आकांक्षायें जागृत हुईं । पवित्र संघीयता, शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास, समृद्धि, समानता, समानुपातिकता, रोजगारी, प्रतिनिधित्वता आदि महत्वपूर्ण आधारों पर जनता को भारी निराशा मिली । शासन से एक राजा का हटकर असंख्य राजाओं का निर्माण होना देश और जनता के विकास, समृद्धि और सुरक्षा के लिए काल सावित हुए । राजनीतिक दलों की संख्या बढती गई । नेताओं के संख्या में हद से ज्यादा इजाफा हुआ । उसके साथ में भ्रष्टाचार, तस्करी, घुसखोरी, अनियमितता, बेरोजगारी, वैदेशिक रोजगारी, यू्वा पलायन, कृषि की क्षयीकरण, पर्यावरण विनाश, पारिवारिक असुरक्षा, राज्य असुरक्षा, लूटपाट, सामाजिक विकृतियाँ आदि बढता गया । कागज में गरिबी घटता हुआ और व्यवहारिक जीवन में बढता हुआ है ।
देश को केवल गरीब नाम देकर देश की गरीबी को बेचने को राज्य ने इस कदर धन्धा बना लिया जैसे आधुनिकता के नाम पर बडे बडे घराने के लोग भी अश्लिल कामों का अंजाम देते हैं । गरीबी से लोग पाठ लेते हैं । सम्पन्न होने के तरकीबें ढूँढते हैं, न कि गरीबी का बाजार लगाते हैं । गरिबी को नाजायज ढंग से बेचना भी कानुनतः अपराध ही है । क्या कोई गरीब गरीबी के नाम पर खुल्ला अश्लिल धन्धा कर सकता है ? मगर नेपाली शासकों ने गरीबी के नाम पर हर हद को पार कर लिया है । गरीबी के नाम पर ही नेपाली शासकों ने कभी जंगल बेचा है, कभी पानी बेचा है । कभी यूवा और यौवन बेचता है तो कभी हिमालय को लिज पर देता है । कभी इमान और धर्म तथा संस्कृतियाँ बेचता है तो कभी राजनीति और राष्ट्रनीति बेच देता है । फिरभी गरीबी कायम है और यह दिन प्रति दिन बढता ही जा रहा है ।
हमने कभी गौर की है कि गरीबी जब कहीं होती है तो वह सबसे पहले परिवार के अभिभावकों को सताती है । उनके बच्चों को तो बाद में असर करती है जब बच्चे समझने लगते हैं । बच्चों के लिए कोई माता पिता गरीब नहीं होते । बच्चे बडे आराम से अपने अभिभावकों से अपना शौक पूरा करवा लेते हैं । सीधी सी बात है कि जब देश ही गरीब है तो फिर देश चलाने बाले नेता लोग तो पहले दर्जे के गरीब होते ! गरीब देश के राजनेता अगर धनाढ्य हैं तो वाजिव सी बात है कि वहाँ की जनता मेहनतकश है । वे मेहनत करते हैं । मगर उनके मेहनतों को वहाँ के राजनीतिक नेतृत्वों ने मिलकर लूटने का काम किया है । वैसे शासन व्यवस्था को खत्म करना जनता का मौलिक अधिकार होता है ।
गणतान्त्रिक देश में राजतन्त्र की बात होना कम आश्चर्य की बात नहीं है । यह एक विवशता भी है । जनता अपने विकास और सुरक्षा के लिए एक राज्य व्यवस्था चयन करती है । जब राज्य जनता की अपेक्षा के विपरीत हो तो वैसे राज्य प्रणाली को हटाकर जनता राजनीतिक तख्था पलट कर सकती है । राजनीतिक तख्था पलट को बट्र्रान्ड रसेल ने ब्उउभि ऋबचत कहा है । वह हर अवस्था में संभव है जब जनहित के विपरीत का शासन पद्धति हो । यह कोई नयी बात भी नहीं है । जनता सर्व शतिmशाली और सर्वमान्य शतिm होती है । जनता द्वारा इंग्ल्याण्ड के शासन व्यवस्था में चाल्र्स प्रथम को ३० जनवरी १६४९ को हत्या करने और देश छोडकर फ्रान्स में शरण लिए चाल्र्स द्वितीय को सन् १६६० में पूनः राजगद्दी पर बैठाने का इतिहास है । राजगद्दी से भगाये गये कम्पूचिया के राजा नोरोदम सिहानूक को वहाँ के जनता ने पूनः राजा बनाने का इतिहास है तो फिर नेपाल में असंभव कैसे हो सकता है जब यहाँ गणतान्त्रिक शासन व्यवस्था पूर्णतः असफल है ?
कोई कुछ भी कह लें, नेपाल में राजतन्त्र की वापसी की संभावनायें अब राष्ट्रिय और अन्तर्राष्ट्रिय दोनों रुप से मजबूत होते जा रहा है । राजतन्त्र की वापसी दल और नेताओं के लिए मजबुरी हो सकती है । मगर देश और जनता के लिए अति आवश्यक और अपरिहार्य है । नेपाली दल और उसके नेतृत्वों के अकर्मण्यता, देशद्रोही चरित्र व कार्य, जन अपेक्षा विरुद्ध के शासन प्रणाली, अन्तर्राष्ट्रिय परिवेश आदि इत्यादि सब यह समझने लगा है कि राजतन्त्र ही नेपाल और उसके पडोसी राष्ट्रों समेत के लिए लाभदायक है ।
हाल ही में भारतीय रअ अधिकारी का नेपाल आगमन ने यह खुल्ला संकेत कर दिया है कि नेपाल में हिन्दु राज्य प्रणाली की वापसी जरुरी है । भारतीय रअ अधिकारी के उस आदेश के सामने नेपाल का सारा शासन व्यवस्था ही नतमस्तक होने को बाध्य है । गणतन्त्र का परमात्मा समझने बाले दो तिहाई के कम्युनिष्ट सरकार और उसके मुखिया तथा उसके सहयोगी रहे पक्ष एवं विपक्ष के नेतृत्व समेत ने नेपाल को हिन्दु राज्य बनने देने के विरुद्ध खडे होने के साहस में नहीें हैं । वैसे ही सिद्धान्त, मुद्दा, राष्ट्र, संस्कृति व विचारधाराओं से भले ही एक दूजे से बिल्कुल अलग थलग हों, मगर हिन्दु राष्ट्र बनाने के लिए भारत के साथ चीन भी आत्मा से तैयार है । वे जानते हैं कि नेपाल के मौजूदा भ्रष्ट प्रणाली से उनके लिए हिन्दु राज्य और राज संस्था ही बेहतर है ।
कई लोग इस भ्रम में हैं कि प्रधानमन्त्री के.पी ओली और नेकपा अध्यक्ष प्रचण्ड आराम और भ्रमण के लिए सिंगापुर और दुवई गये थे । मामला आराम और भ्रमण का भले ही दिखाई देते हों, मगर कुछ जानकारों की मानें तो मामला कुछ और भी है । उनके अनुसार दरअसल ओली और प्रचण्ड जी दोनों अध्यक्ष योजना के मुताबिक ही सिंगापुर और दुवई में भारतीय अधिकारियों से गोप्य बातचित करने पहुँचे थे । ज्ञात हो कि भारतीय रअ अधिकारी ने देश के सरकारी पूर्व तथा वर्तमान प्रधानमन्त्रियों के साथ साथ विपक्षी शीर्ष नेतृत्व एवं पूर्व प्रधानमन्त्री समेतों से मिलकर नेपाल में हिन्दु राज्य की आवश्यकता पर जोड दिया । मगर सुनने के अलावा उनके पास अपने शासन पद्धति को बचाने का कोई दलिल नहीं रहा । नेपाली शीर्ष नेतृत्वों ने तो अपने प्रोटोकल, भियना कन्भेशन डिप्लोम्याटिक रिलेशन के आधार व राजनीतिक मर्यादा समेत के विपरीत भारतीय रअ प्रमुख से चोरी चोरी मिलने के काम किये हैं । इन आधारों पर भी नेपाल का गणतान्त्रिक प्रणाली कमजोर होने व पडोसी राष्ट्र समेत के लिए सर दर्द होने का खुल्ला प्रमाण है । ये ही वे कारणें हैं कि नेपाल में अब राजतन्त्र आगमन की चर्चा और उसकी आन्तरिक तैयारियाँ राष्ट्रिय और अन्तर्राष्ट्रिय दोनों रुप में चल रहे हैं ।

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