भारत ने तय कर लिया “आएगा तो मोदी ही” : डा. श्वेता दीप्ति
डा. श्वेता दीप्ति, काठमांडू,२० मई २०१९ | यों तो तीन दिन बाद यह तय होगा कि अब तक के इतिहास में सबसे लंबे रहे चुनावी अभियान में विजयी कौन रहा, जनता ने किसके अभियान को सराहा और किसे नकारा । पर अगर एक्जिट पोल की मानें तो लगभग यह तय हो गया है कि आएगा तो मोदी ही । २०१४ में अगर मोदी लहर थी तो आज ऐसा लग रहा है कि मोदी सुनामी ही आ गई है । लेकिन इस पूरे अभियान की एक बड़ी खासियत यह भी रही कि पिछले कई चुनावी अभियानों से परे इस बार राजनीतिक दल गौण हो गए । भारत का लोकसभा चुनावी अभियान मुख्यतया व्यक्तिवादी हो गया । विपक्ष ने भी व्यक्ति को मुद्दा बनाया, पक्ष ने भी और जनता के दिलो दिमाग में भी व्यक्ति का चेहरा हावी रहा । एक मायने में १९७१ के लंबे अरसे बाद ऐसे चुनाव की झलक दिखी, जहां सत्ताधारी दल के खिलाफ छोटा मोटा गठबंधन भी बना, लेकिन सामंजस्य की काली छाया से नहीं उबर पाया, जबकि राष्ट्रवाद और व्यक्ति का मुद्दा मुखर हो गया । हां, आरोप प्रत्यारोप, तीखे बयानों और कटाक्षों की बात हो तो यह चुनाव अभियान शायद सभी सीमाएं तोड़ गया ।
अप्रैल के दूसरे सप्ताह में जब चुनाव आयोग ने शंखनाद किया था उससे काफी पहले की राजनीतिक आहट तो यह थी कि यह गठबंधन बनाम गठबंधन का चुनाव होगा, लेकिन धीरे–धीरे और खासतौर से बालाकोट की घटना के बाद जिस तरह विपक्षी दलों में बिखराव शुरू हुआ, उससे स्पष्ट हो गया कि कमोबेश यह चुनाव व्यक्ति पर केंद्रित हो गया । केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खड़े हो गए । विपक्ष के पास कोई मुद्दा नहीं था सिवा इसके कि मोदी हटाओ । शायद यही बात भारत की जनता के दिल पर लगने वाली थी कि आखिर ऐसा क्या है मोदी में जिसके लिए सभी विपक्ष एक हो रहे हैं । अगर देखा जाय तो मोदी वह चेहरा है वहाँ कि राजनीति में जिसके ऊपर अगर कोइृ आरोप लगाया भी गया तो वह महज आरोप लगाने के लिए था उसमें धरातलीय स्तर पर सच्चाई नहीं थी । उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में जहां गठबंधन का थोड़ा स्वरूप दिखा भी, वहां के नेताओं ने यह स्पष्ट कर ही दिया कि वह एक व्यक्ति के खिलाफ लड़ रहे हैं । सपा और बसपा नेतृत्व की ओर से भी मोदी को ही निशाना बनाया गया । सबसे अलग–थलग होकर चुनाव लड़ी कांग्रेस और राहुल गांधी के निशाने पर भी मोदी रहे । अकेली रह गई आम आदमी पार्टी भी यह बोलने से नहीं बच पाई कि मोदी उसे स्वीकार नहीं । कहा जा सकता है कि ऐसे में विपक्ष शायद भाजपा की रणनीतिक फांस मे उलझ गया । दरअसल राजग का नेतृत्व कर रही भाजपा यही चाहती भी थी कि चुनावी अभियान का केंद्र बिंदु मोदी बनें । खुद भाजपा के अभियान में ‘मोदी है तो मुमकिन है’, ‘फिर एक बार मोदी सरकार’ जैसे नारे ही गढ़े गए थे ।
भाजपा में यहां तक ख्याल रखा गया था कि घोषणापत्र के ऊपर कमल निशान के साथ केवल मोदी की फोटो लगाई गई, जबकि सामान्यतया ऐसे दस्तावेज पर पार्टी अध्यक्ष की फोटो भी होती है । अगर जमीनी अभियान की बात की जाए तो वहां भी केवल भाजपा ही नहीं राजग सहयोगी दलों के अधिकतर उम्मीदवारों के चुनावी संपर्क अभियान में मोदी ही रहे । यही कारण है कि बाद के चरणों में मोदी यह बोलते सुने गए कि जनता का हर वोट सीधे मोदी के खाते में आएगा । वहीं विपक्ष की ओर से मोदी विरोधी अभियान ने यह सुनिश्चित कर दिया कि चर्चा में मोदी रहें और कई जमीनी मुद्दों पर पानी फिर गया ।
लगा था कि लोकसभा के चुनाव में विधान सभा के चुनाव नतीजे कुछ असर शायद दिखे कयोंकि कुछ महीने पहले हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने नोटबंदी, जीएसटी, ऋण माफी जैसे मुद्दों को धार दी थी । इस बार ऐसे मुद्दे चुनाव पर हावी नहीं हो पाए । कांग्रेस ने न्याय, ऋण माफी जैसे मुद्दों को दस्तावेज में तो जगह दी थी, लेकिन साक्ष्य मौजूद हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष के लगभग सभी ट्वीट मोदी पर केंद्रित रहे । एक मामले में तो राफेल को लेकर चौकीदार चोर है के राहुल गांधी के बयान का उल्टा ही असर दिखा । राहुल के शब्द चौकीदार ने पूरे भारत की जनता की जुवान पर यह ला दिया कि हम भी चौकीदार हैं । यानि कुल मिला कर भारत का लोकतंत्र का यह पर्व दिलचस्प रहा ।
भारत के लोकसभा में संख्या की दृष्टि से तीसरे सबसे बड़े राज्य पश्चिम बंगाल को छोड़ दिया जाए, जहां हिंसा अपने चरम पर दिखी, बावजूद इसके वहाँ चुनाव का प्रतिशत अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर रहा । यह कहा जा सकता है कि पूरे भारत ने सकारात्मकता का संदेश दिया है । लेकिन अभियानों में राजनीतिक दलों के बीच तीखापन काफी था । इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि केवल भाजपा और कांग्रेस ही नहीं, कांग्रेस और सपा बसपा भी एक दूसरे को कठघरे में खड़ा करने से नहीं चूकीं । आपसी संघर्ष की यह लड़ाई बिहार में भी दिखी, जहां राजग के खिलाफ लड़ते हुए राजद और कांग्रेस भी अपने मतभेद और मनभेद को नहीं छिपा पाईं । चुनाव आयोग भी कठघरे में रहा ।
विपक्ष की ओर से जहाँ इसे सत्ताधारी के हाथों का कठपुतली बताया गया वहीं पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा पर रोक लगाने में अक्षमता के लिए खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने आयोग को आड़े हाथों लिया ।
चुनावी नतीजे तो २३ मई को आएंगे लेकिन रविवार को अंतिम चरण के मतदान के साथ ही आए एक्जिट पोल में एक स्वर से लगभग एक दर्जन पोल ने राजग को बहुमत दे दिया । यह सच साबित होता है तो माना जाएगा कि ‘एक बार फिर मोदी सरकार’ का भाजपा का नारा जनता ने अपना लिया ।
इस बार के भारतीय लोकसभा चुनाव का कई मामलों में कोई सानी नहीं है। पिछले आठ वर्षों के शासनकाल में तृणमूल प्रमुख व मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भाजपा की कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा है । अब तक जितने भी लोकसभा चुनाव हुए यह पहली बार है कि भारत के किसी प्रधानमंत्री ने बंगाल में इतनी अधिक १७ चुनावी सभाएं की । जिसका परिणाम एक्जिट पोल में दिख रहा है जहाँ भाजपा तृणमूल के समकक्ष नजर आ रही है ।
एक नजर उत्तरप्रदेश पर डालें । उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक ८० संसदीय क्षेत्रों के लिए हुए चुनाव में पश्चिम की बयार आगे चलकर जातीय झंझावातों में तब्दील होती नजर आई । मंचों से विकास की बातें शुरू में तो हुईं लेकिन बाद में मुख्य मुद्दे गायब होते गए। चुनाव जीतने के लिए उम्मीदवारों ने मर्यादा की दीवारें भी लांघी । कोई भी दल इसका अपवाद नहीं रहा । विशेष तौर पर सपा के वरिष्ठ नेता आजम खां की जयाप्रदा पर की गई टिप्पणी राजनीति में गिरावट की पराकाष्ठा के रूप में देखी गई । तीसरे चरण में चुनाव यादव बेल्ट में पहुंचा तो इसे मायावती और मुलायम के एक मंच पर साथ दिखने के रूप में याद किया जाएगा । राजनीतिक अस्तित्व बचाने की मजबूरियों ने ढाई दशक बाद दोनों को अपनी दुश्मनी भूलने के लिए मजबूर किया । यह एक अच्छा परिणाम मान सकते हैं विपक्ष के लिए ।
बिहार, जिस पर बहुत हद तक केन्द्र की राजनीति टिकी होती है । जहाँ के लिए यह अलग तरह का चुनाव था । शोर कम हुआ । चर्चाओं का बड़ा हिस्सा वर्चुअल दुनिया के हिस्से चला गया, लेकिन बिहार के लोग अपने स्वभाव के मुताबिक पूरे चुनाव राजनीति के इस महापर्व का मजा लेते रहे । मुद्दों की बात करें, तो बिहार में लोकसभा का यह चुनाव सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थन और विरोध के नाम रहा । ४० में से ३५ सीटों पर एनडीए व महागठबंधन के बीच सीधी लड़ाई हुई । पांच सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला हुआ । लेकिन, अनुमान बता रहा हैकि बिहार में एक बार फिर एनडीए ने बाजी मार ली है । महागठबंधन के दलों ने भी सिर्फ मोदी को रोकने के नाम पर ही वोट मांगा । उनके दायरे में बेरोजगार नौजवान और किसान थे । राज्य में कभी किसी किसान ने कर्ज वापस न करने के चलते आत्महत्या की हो, इसका प्रमाण नहीं है । फिर भी महागठबंधन के दलों ने किसानों की आत्महत्या के मामले को खूब उछाला । बेरोजगारी की भयावह तस्वीर पेश कर यह बताने की कोशिश की गई कि मोदी फिर आए तो रोजगार के अवसर और कम हो जाएंगे । कारोबारियों को नोटबंदी और जीएसटी के नाम पर एनडीए से अलग करने की कोशिश की गई । यह वादा भी किया गया कि केंद्र में बनने वाली नई सरकार नौकरियां देगी । जीएसटी को सरल बनाया जाएगा । लेकिन, राष्ट्रीय स्वाभिमान का काट महागठबंधन कभी नहीं खोज पाया । विपक्ष के सबसे बड़े घटक दल राजद ने आरक्षण के नाम पर पिछड़ों और अनुसूचित जातियों को जोड़ने की कोशिश की । इसके केंद्र में भी मोदी ही रहे। यह खतरा दिखाया गया कि मोदी फिर आए तो आरक्षण पूरी तरह समाप्त कर दिया जाएगा । शुरुआती दिनों में एनडीए ने सवर्ण गरीबों को सरकारी सेवाओं में दी गई आरक्षण की सुविधा को भी मुददा बनाया, लेकिन, बाद में उसने प्रतिक्रिया के डर से इसकी अधिक चर्चा नहीं की ।
राजस्थान में विधानसभा के परिणाम से बिल्कुल उल्टा परिणाम लोकसभा चुनाव का दिख रहा है । जहाँ भाजपा अपनी कामयाबी का झंडा फहराने जा रही है । महारानी से शिकायत थी मोदी से नहीं यह वहाँ स्पष्ट दिख रहा है ।
छह संसदीय सीट वाले जम्मू कश्मीर के तीन संभागों में अलग–अलग चुनौतियों और सरकार के प्रति नाराजगी के बावजूद लोकतंत्र के इस यज्ञ में मतदाताओं का जोश देखने को मिला । कश्मीर में कई जगहों पर आतंकवादियों और अलगाववादियों के चुनाव बहिष्कार करने की धमकियों के कारण बेशक वहां मतदान प्रतिशत कम रहा, लेकिन जिस प्रकार से लोग मतदान के लिए बाहर आए, उससे यह साफ था कि घाटी में भी लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हैं ।
पंजाब के चुनाव में इस बार कई रंग दिखे । गुरदासपुर से इस बार बालीवुड अभिनेता सनी देयोल भाजपा के टिकट पर मैदान में उतरे तो जालंधर से हाई कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस जोरा सिंह आम आदमी पार्टी के टिकट पर । फतेहगढ़ साहिब सीट से दो पूर्व मुख्यमंत्रियों के प्रधान सचिव रहे दरबारा सिंह गुरु और डॉ. अमर सिंह भी चुनावी मैदान में उतरे। होशियारपुर से भी नौकरशाह सोम प्रकाश भाजपा से चुनाव लड़े । कर्ज के कारण परिवार के तीन सदस्य गंवा चुकीं वीरपाल कौर भी बठिंडा से बतौर निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में थीं ।
झारखंड में भी भाजपा २०१४ का इतिहास दोहराने जा रही है यह अनुमान बता रहा है । पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने झारखंड की १४ में १२ सीटें अपने नाम की थीं । इस बार हालात में बदलाव यह है कि तब महागठबंधन नहीं था, इस बार है । तब मोदी लहर थी, इस बार मोदी का काम है । मतलब, एकजुटता महागठबंधन की ताकत तो भाजपा की ताकत मोदी । झारखंड में पूरा चुनाव मोदी के नाम पर ही लड़ा गया है ।
भोपाल की बात करें तो वहाँ जनता ने चेहरे पर मुस्कान सजाए रखी, मजाल है जो मतदान खत्म होने के बाद भी कोई उनका मन पढ़ ले । लेकिन चुनाव समाप्त होते ही यह मोदी की सुनामी वहाँ भी दिखने लगी है ।
उड़ीसा में भी नवीन पटनायक की स्थिति गिरती नजर आ रही है । कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भाजपा ने अपने ही क्षेत्र में अपनी स्थिति बरकरार नही रखी है बल्कि दूसरे के गढ़ में भी अपनी स्थिति मजबूत बना ली है । यानि यह कहा जा सकता है कि भारत की जनता भारत को नरेन्द्र मोदी के हाथों में सुरक्षित देख रही है और देश के आगे सभी मुद्दों को पीछे कर मोदी का चुनाव करने जा रही है ।