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‘उर्वशी’ जितनी बार भी पढ़ूँ दिल नहीं भरता : डॉ. श्वेता दीप्ति

“दुःख दर्द जतलाओ नहीं मन की व्यथा गाओ नहीं नारी/उठे जो हूक मन में, जीभ पर लाओ नहीं ।”
दिनकर



डॉ. श्वेता दीप्ति, रामधारी सिंह दिनकर (पुण्यतिथि २४ अप्रील) | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ मेरे प्रिय कवि और ‘उर्वशी’ मेरी प्रिय कृति है जिसे मैं जितनी बार भी पढ़ूँ दिल नहीं भरता है । दिनकर के अनुसार ‘उर्वशी’ कामाध्यात्म है । इस पर पर्याप्त बहस भी हुई है और उर्वशी की आलोचना भी । १९६४ में कवि की रचना आई, ‘कोयला और कवित्व’ । इसमें कामचिंतन सम्बन्धी कई कविताएँ हैं । कवि ने इसी कामचिंतन को ‘उर्वशी’ में आध्यात्मिक रूप देने की कोशिश की है । जिसमें कवि स्वयं मानते हैं कि नर–नारी का वास्तविक प्रेम महज शारीरिक भूख की शांति नहीं है बल्कि यह मिलन उसकी आत्मा का परिष्कार करता हुआ अनुभूति की उँचाई तक ले जाता है ।

कवि उर्वशी के माध्यम से यह बता देना चाहते हैं कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए वैराग्य की आवश्यकता नहीं है । एक गृहस्थ भी ईश्वर को पा सकता है । यही स्थापना कवि ने ‘उर्वशी’ में की है ।
कवि ने भूमिका में माना है कि, आदमी हवा और पत्थर के दो छोरों के बीच झटके खाता है और झटका खाकर , कभी इस ओर कभी उस ओर को मुड़ जाता है । कभी प्रेम ∕ कभी सन्यास ∕ और संन्यास प्रेम को बर्दास्त नहीं कर सकता, न प्रेम संन्यास को, क्योंकि प्रेम प्रकृति और परमेश्वर संन्यास है और मनुष्य को सिखलाया गया है कि एक ही व्यक्ति परमेश्वर और प्रकृति, दोनों को प्राप्त नहीं कर सकता । उर्वशी पूछती है, क्या ईश्वर और प्रकृति दो हैं, क्या ईश्वर प्रकृति का प्रतिबल है, उसका प्रतियोगी है ? क्या दोनों एक साथ नहीं चल सकते ? क्या प्रकृति ईश्वर का शत्रु बनकर उत्पन्न हुई है । इन्हीं प्रश्नों का उत्तर तृतीय अंक में ढूँढा गया है । उर्वशी का तृतीय अंक इस महान कृति की आत्मा है और विश्लेषकों और आलोचकों का ध्यान भी अधिकतर यहीं केन्द्रित रहा है । माना जा सकता है कि, उर्वशी से अगर तृतीय अंक निकाल दिया जाय तो उर्वशी सारहीन और प्राणहीन रह जाएगी । किन्तु क्या उर्वशी की कल्पना द्वितीय, चतुर्थ और पंचम अंक के बिना की जा सकती है ? क्या औशीनरी और सुकन्या के बिना उर्वशी की कथा को पूर्णता मिल सकती थी ? उर्वशी बार–बार मेरी निगाहों से गुजरी है, उर्वशी की महत्ता इसलिए है कि वह इस काव्य–कथा की केन्द्रबिन्दु है । वह देवलोक की कन्या है, द्वन्द्ध मुक्त है । वह स्वर्ग के सुखों को त्याग पृथ्वी का सुख लेने आई है । उसे सिर्फ प्रेम चाहिए —
“पर , मैं बाधक नहीं, जहाँ भी रहो, भूमि, या नभ में,
वक्षस्थल पर इसी भाँति, मेरा कपोल रहने दो ।
कसे रहो, बस, इसी भाँति, उर–पीड़क आलिंगन में
और जलाते रहो अधर पुट को कठोर चुम्बन से ।”

पूरी कृति में उसे औशीनरी के लिए सोचते हुए कभी नहीं दिखाया गया है, शायद इसलिए कि, वह मानव गुण से रहित है । वह सिर्फ और सिर्फ पुरुरवा को द्वन्द्ध मुक्त देखना चाहती है, ताकि उसका पूर्ण प्यार मिल सके और कवि ने उसके चरित्र को इसी रूप में रूपायित किया है । इस कृति में मेरा ध्यान जिस चरित्र ने सबसे अधिक खींचा वह औशीनरी है । एक नारी जो साधारण है, जिसमें अप्सरा का सौन्दर्य नहीं है और न ही वो देवी है । वह सिर्फ गृहिणी है, त्याज्या है और ऐसी परित्यक्ता जो पति के प्यार की अधिकारी नहीं है, किन्तु पति द्वारा किए जाने वाले यज्ञ हेतु समर्पित है । एक ऐसी नारी जो हर व्यथा सहने के लिए तत्पर है—
“पगली ⁄ कौन व्यथा है जिसको नारी नहीं सहेगी ?
कहती जा सब कथा, अग्नि की रेखा को चलने दे,
जलता है यदि हृदय अभागिन का, उसको जलने दे ।”

एक ओर जहाँ उर्वशी किसी भी हाल में पुरुरवा को अपने से दूर नहीं जाने देना चाहती, वहीं औशीनरी यह जानते हुए भी कि उसका पति किसी और के साथ है, अपने धैर्य और सहनशीलता का परिचय
देती है । औशीनरी, नारी के उस रूप का उदाहरण है जिसमें धैर्य है और सहनशक्ति है—
“दुख दर्द जतलाओ नहीं,
मन की व्यथा गाओ नहीं,
नारी ⁄ उठे जो हूक मन में,
जीभ पर लाओ नहीं ।

पत्नी को छोड़ पुरुरवा गन्धमादन पर्वत पर उर्वशी के साथ मगन है और औशीनरी को आदेश मिलता है कि, तुम धर्मसाधना में रत रहो कोई त्रुटि नहीं होनी चाहिए क्योंकि एलवंश को पुत्र चाहिए और मैं भी ईश्वर की आराधना में रत हूँ —
हाँ अनोखी साधना,
“अप्सरा के संग रमना ईश की आराधना है ।
पुत्र पाने के लिए बिहरा करें वे कुँज भवन में
और मैं आराधना करती रहूं सूने भवन में ।”
कितनी बेबस है वो, अपना दर्द जता भी नहीं सकती —
“दुःख दर्द जतलाओ नहीं मन की व्यथा गाओ नहीं नारी ⁄
उठे जो हूक मन में, जीभ पर लाओ नहीं । ”
सारी बातें जानती हुई भी औशीनरी कहती है—
तब भी मरुत अनुकूल हों,
मुझको मिले जो शूल हों
प्रियतम जहाँ भी हों,
बिछे सर्वत्र पथ में फूल हों । ”

 

तृतीय अंक में जहाँ कविवर काम और आध्यात्म के भेद को सुलझाने में लगे हुए हैं, वहीं द्वितीय अंक में वे नारी मन के चित्रण में मनोविश्लेषक के रूप में उभर कर सामने आए हैं । उर्वशी जैसा विचार गर्भित और मनोविश्लेषणात्मक काव्य हिन्दी साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है । प्रो.नलिन विलोचन शर्मा ने कहा था, दिनकर की कविता में विचारों का संगीत है । उर्वशी तो इसका चरम बिदुं है । दिनकर हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ कवि तो हैं हीं, पर वो एक मनोविश्लेषक भी हैं । एक पुरुष मन ने कुछ इस तरह नारी मन को पढ़ा है कि, यह यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि ये चित्र किसी पुरुष की लेखनी से खींचे जा रहे हैं । दिनकर उन विरले कवियों में से थे जो एक साथ बैचेन मस्तिष्क विह्वल हृदय लेकर कविता में आए । औशीनरी और उर्वशी दोनों का मन बैचेन है । औशीनरी पत्नी है और उर्वशी प्रेयसी । औशीनरी के पास जो था वो गँवा चुकी है, उसका हृदय इसलिए बैचेन है किन्तु, उर्वशी पुरुरवा के प्यार और साथ को सदा के लिए पाना चाहती है, वह उस प्यार को अपने लिए सुरक्षित रखना चाहती है इसलिए बैचेन है । एक सहज मन है औशीनरी के पास जो अपने पति पर कोई आक्षेप नहीं लगाता । पुरुरवा का जाना औशीनरी के लिए असहनीय है और वह सारा दोषारोपण उर्वशी पर करती है—
“जानें, इस गणिका का मैंने कब क्या हित किया था,
कब, किस पूर्व जन्म में उसका क्या सुख छीन लिया था,
जिसके कारण भ्रमा हमारे महाराज की मति को,
छीन ले गई अधम पापिनी मुझ से मेरे पति को । ”

 

यहाँ एक साधारण नारी की ऐसी मनःस्थिति है, जिसे अपने पति पर भरोसा है कि अगर उर्वशी ने अपने रूप का जादू नहीं चलाया होता तो उसका पति उसके पास ही रहता । कितनी सहजता के साथ कवि ने एक पत्नी मन को वर्णित कर दिया है—
“जाल फेंकती फिर ती अपने रूप और यौवन का,
हँसी हँसी में करती हैं आखेट नरों के मन का ।
किन्तु, बाण इन व्याधिनियों के किसे कष्ट देते हैं ?
पुरुषों को दे मोद प्राण वे वधुओं के लेते हैं ।”

नर और नारी दोनों ही जब प्यार की पहली अनुभूति से गुजरते हैं तो सब कुछ नया और रुमानी सा लगता है, यह सच है । किन्तु यह भी सच है कि कुछ पा लेने की चाहत नारी की अपेक्षा नर में अधिक रहती है । यह वो क्षण होता है जब नर को नारी का हर रूप प्रिय लगता है । परन्तु वहीं नारी के लिए वह क्षण गौरवमयी होता है । वह उसे जीना चाहती है, पर स्थायित्व के साथ । पाना वह भी चाहती है पर मान–मनुहार के साथ क्योंकि उसे यह अहसास होता है कि वो अभी जो चाहे वो उसे मिलेगा—
“कितनी गौरवमयी घड़ी वह भी नारी जीवन की,
जब अजेय केसरी भूल सुध–बुध समस्त तन मन की
पद पर रहता पड़ा, देखता अनिमिष नारी मुख को,
क्षण क्षण रोमकुलित, भोगता गूढ़ अनिर्वच सुख को ।
यही लग्न है वह जब नारी जो चाहे, वह पा ले,
उडुओं की मेखला, कौमुदी का दुकूल मँगवा ले । ”

किन्तु कितनी क्षणिक होती हैं ये भावनाएँ भी, एक ज्वार आता है और फिर चला जाता है । पुरुष के अन्दर जो चाहत, जो प्यास, जो भावनाएँ उमड़ती हैं वो जितनी तेजी से उठती हैं, उतनी ही जल्दी शांत हो जाती हैं । किन्तु नारी मन तसल्ली चाहता है, यकीन करना चाहता है, इसलिए उसके मन की भावना धीरे जगती है, वह उसमें स्थायित्व खोजती है । लज्जा और संकोच का बन्धन जब उसके हृदय से निकलता है, प्रेम की गहराईयों को जब महसूस करना चाहती है तब तक पुरुष, मन और तन उस प्यार को भोग चुका होता है । आवेग का क्षण गुजर चुका होता है । प्रीत की जो ज्वाला पुरुष को शांत कर चुकी होती है वही नारी मन को विचलित करती रहती है । उस अन्तरंग क्षण के बाद भी वह प्रगाढ़ता खोजती है । यह नारी मनोविज्ञान है, जिसे दिनकर ने बड़ी ही खूबसूरती के साथ चित्रित किया है —
“किन्तु, हाय, यह उद्वेलन भी कितना मायामय है ।
उठता धधक सहज जिस आतुरता से पुरुष हृदय है,
उस आतुरता से न ज्वार आता नारी के मन में,
रखना चाहती वह समेट कर सागर को बन्धन में,
किन्तु बन्ध को तोड़ ज्वार नारी में जब जगता है,
तब तक नर का प्रेम शिथिल प्रशमित होने लगता है ।
पुरुष चूमता हमें अर्ध निद्रा में हम को पाकर ,
पर, हो जाता विमुख प्रेम के जग में हमें जगा कर ।”

नारी मन ही नहीं दिनकर ने पुरुष मन को भी व्याख्यायित किया है, वह भी अत्यन्त ईमानदारी के साथ । पत्नी घर में होती है और सहज उपलब्ध भी सम्भवतः इसलिए उसको पाने के लिए प्रयास की आवश्यकता नहीं होती पर, जब कोई और दिल को भा जाता है तो, उसे प्राप्त कर ने के लिए मन बैचेन होता है । जो दूर है वह अधिक प्रिय है—
“कौन कहे ? यह प्रेम हृदय की बहुत बड़ी उलझन है ।
जो अलभ्य, जो दूर , उसी को अधिक चाहता मन है ।
उस पर भी नर में प्रवृत्ति है क्षण क्षण अकुलाने की,
नयी नयी प्रतिमाओं का नित नया प्यार पाने की ।
वश में आयी हुई वस्तु से इसको तोष नहीं है,
जीत लिया जिसको, उससे आगे सन्तोष नहीं है ।
नयी सिद्धि हित नित्य नया संघर्ष चाहता है नर ,
नया स्वाद, नव जय, नित नूतन हर्ष चाहता है ।”

ये चंद पंक्तियाँ पुरुष–मनोविज्ञान की पूर्ण व्याख्या करने में सक्षम हैं । कहते हैं नर की सफलता में नारी का साथ आवश्यक होता है । शारीरिक बल पुरुष में नारी की अपेक्षा अधिक है । ईश्वर ने नर और नारी दोनों की संरचना में पर्याप्त अन्तर रखा है । एक कोमल है, दूसरा कठोर । एक ओर धैर्य है दूसरी ओर अधैर्य । एक में मनोबल है दूसरे में बल । किन्तु आश्चर्य यह है कि इतनी सक्षमता के बाद भी नर–नारी पर मानसिक रूप से आश्रित होता है । नारी सहनशील है, उसमें हर पीड़ा सहने की असीम शक्ति होती है । वह अपनी बैचेनी, इच्छा और चाहत सब पर संयम रख सकती है किन्तु नर में यह क्षमता कम होती है । कवि ने इसे भी बहुत सुन्दर और सहजता से मदनिका से कहलाया है —
“पुरुष सदा आक्रान्त विचर ता मादक प्रणय क्षुधा से,
जय से उसको तृप्ति नहीं, संतोष न कीर्ति सुधा से ।
असफलता में उसे जननि का वक्ष याद आता है,
संकट में युवती का शय्या कक्ष याद आता है ।
संघर्षों से श्रमित शान्त हो पुरुष खोजता विह्वल
सिर धर कर सोने को, क्षणभर नारी का वक्ष स्थल ।
आँखों में जब अश्रु उमड़ते, पुरुष चाहता चुम्बन,
और विपद में रमणी के अंगों का गाढ़ालिंगन ।”

शब्दों के सुन्दर संयोजन द्वारा पुरुष मन की सही व्याख्या करने में कवि सफल हुए हैं । जहाँ तक औशीनरी का सवाल है, उसे कवि ने समर्पित पत्नी के रूप में स्थापित किया है । वह पीडि़त है पर , अपने पत्नी धर्म का निर्वाह पूरी ईमानदारी से करती है । मौन रहकर पुरुरवा की बेरुखी वह सहती है—
“कौन सका कह व्यथा ? नहीं देखा समग्र जीवन में
जो कुछ हुआ, देख उसको मैं कितनी मौन रही हूं
कोलाहल के बीच मूकता की अकम्प रेखा सी ?”
औशीनर उपेक्षिता है, एक दर्द उसके साथ समानान्तर चलता है । महल के किसी कोने में बैठी वो निरंतर पुरुरवा की प्रतीक्षा करती है, किन्तु पुरुरवा जब सब छोड़कर जाता है तब भी उसने औशीनरी से मिलना आवश्यक नहीं समझा—
“किन्तु, हाय, हो गयी मृषा साधना सकल जीवन की,
मैं बैठी ही रही ध्यान में जोड़े हुए करों को,
चले गए देवता बिना ही कहे बात इतनी भी,
हतभागी ⁄ उठ, जाग, देख मैं मन्दिर से जाता हूं ।
बावजूद इसके वह ईश्वर से यही माँगती है—
जो भी हो आपदा, मुझे दो, मैं प्रसन्न सह लूंगी,
देव ⁄ किन्तु, मत चुभे तुच्छतम कँटक भी प्रियतम को ।”
औशीनरी के पास एक विशाल हृदय है, जो किसी भी हाल में अपने पति का बुरा नहीं सोच पाता । वह साधारण है पर इसी में उसकी असाधारणता है, वह आम नारी की भावना को रखते हुए भी खास है, तभी तो, पुरुरवा जब सब छोड़कर चला जाता है तो उसके पुत्र को भी वह स्वीकार करती है —
“हाँ मैं अभी राजमहिषी थी, चाहे जहाँ कहीं भी
इस प्रकाश से दूर भाग्य ने मुझे फेंक रखा था ।
किन्तु, नियति की बात ⁄ सत्य ही अभी राजमाता हूं ।
आ बेटा ⁄ लूं जुड़ा प्राण छाती से तुझे लगा कर ।”
नारी कमजोर है, कोमल है, सहनशील है किन्तु यह भी सच है कि इन गुणों में ही सृष्टि की नींव होती है, जिन्दगी की आधार शिला होती है और गार्हस्थ जीवन का सुख भी ।
नारी की महत्ता को कवि ने खुले विचारों के साथ अपनाया है । वह मानते हैं कि सबसे बड़ा गुण जिस मानवता को माना जाता है, वह गुण भी नर की अपेक्षा नारी में कहीं अधिक है । प्रभुत्व की कामना से
जितना अधिक पीडि़त पुरुष रहता है वह नारी नहीं रहती । सुकन्या कहती है कि, सुना है कि नारी की सृजना कर ने वाला कोई प्रकाण्ड पुरुष था इसलिए नारी की रचना उसने कुछ ऐसी की कि वह हमेशा खुद को खो कर कृतार्थ होती है, वहीं उसने पुरुष में स्वत्व हरण की भावना भर दी है । पर कोई दिन तो ऐसा आएगा हम सृष्टि की संरचना करेंगे और ऐसा पुरुष बनाएँगे जिसका हृदय कोमल होगा, जो कातर मन की पुकार समझ पाएगा । कवि की निगाह में आने वाले कल की एक सुखद कल्पना है । वह चाहते हैं कि कल उस नारी का हो जिसे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी नहीं पड़े । वह उपेक्षिता ना हो, अबला नहीं हो एक स्वर्णिम सुबह की कल्पना कवि ने औशीनरी के द्वारा की है —
“हम तो चलीं भोग उसको जो सुख दुख हमें बदा था,
मिले अधिक उज्ज्वल, उदार युग आगे की ललना को ।”
मानव मन की सहज अभिव्यक्ति है दिनकर रचित उर्वशी । उसमें जितनी गहराई से मन डूबता है वह उतनी ही आतुरता के साथ अपने अन्दर जिज्ञासु मन को समाहित करता है । निःसन्देह उर्वशी को पढ़ना एक ऐसे धरातल पर ले जाता है जहाँ एक साथ मन लोक पर लोक, सौन्दर्य असौन्दर्य, द्वन्द्ध, काम और ईश्वर सबसे हमें जोड़ता है । भले ही दिनकर रचित उर्वशी एक विवादित दस्तावेज हो पर इसकी महत्ता न पहले कम थी और न आने वाले समय में कभी कम होगी —
“मत्र्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं,
उर्वशी ⁄ अपने समय का सूर्य हूं मैं ।”



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