मीडिया, बाजार ,हिन्दी जाति और हिन्दी भाषा
संजय कुमार सिंह

हिन्दी पत्रकारिता का जन्म 19वीं शताब्दी में होता है, जब साम्राज्यवादी औपनिवेशिक सत्ता-संस्कृति के जुए के नीचे 30 मई 1826 ई. को कलकत्ता से ‘ उदन्त मार्तण्ड ‘ हिन्दी अखबार का प्रकाशन होता है।यूँ छापाखाना की भारत में स्थापना अंग्रेजों ने इसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए किया था, लेकिन इसकी स्थापना की बहुआयामिता के अपने परिणाम रहे।पराधीन भारत-वासियों के प्रतिरोध की अभिव्यक्ति का यह सशक्त माध्यम बनी …तब पत्रकारिता भारतीय मनीषियों के लिए एक मिशन थी। वह अपनी भाषा, जाति और अपने राष्ट्र-समाज के उत्थान से नाभि-नाल जुड़ी हुई थी।हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास वस्तुत: आजादी की लड़ाई का इतिहास है।सारसुधा निधि,नृसिंह, उचित वक्ता, हरिश्चन्द्र मैगजीन, कवि -वचन सुधा,आज, विशाल भारत जैसे पत्रों के प्रकाशन का उद्देश्य भी भारतीय जन-मानस में नवोन्मेष का उपस्थापन ही था ताकि विजाातीय भाषिक प्रतिरूपों का विखण्डन कर आजादी के लक्ष्य की प्राप्ति कर अपनी जाति-संस्कृति और समय-समाज की उन्नति की जा सके।आजादी के बाद भी धर्मयुग, दिनमान आदि अनेकों पत्र-पत्रिकाओं को हम इस कड़ी में जोड़ सकते हैं।
दर असल भाषा का सवाल हमारे लिए एक सांस्कृतिक सवाल है। वह हमारी जातीय स्मृति और इतिहास से अभिन्न है। हमारे होने के अनुभव से अभिन्न! कल भी, आज भी और आने वाले समय में भी। इसकी भाषिक संरचना को जब जाने-अनजाने कोई तोड़ता है, तो पूरी मानसिक संरचना टूटती है। हमारा जीवन शिल्प खंडित होता है।ऐसा वे करते हैं जिनके लिए संसार की भाषाएँ एक प्रोडक्ट हैं।यह भूमंडलीकृत बाजारवाद का पाठ है, जिसे प्रच्छन्न रूप से आर्थिक दबाव तले निर्मित किया जा रहा है।हमारे लिए इस दौर में यह और आवश्यक हो गया है कि हम अपनी जातीय स्मृति और इतिहास से जुड़ कर इस विधा को ज्यादा से ज्यादा प्रासंगिक और जनोन्मुख बनाकर ऐतिहासिक परम्परा से संबद्ध रखें, जिसका बीज पंडित युगल किशोर मिश्र, दुर्गा प्रसाद मिश्र, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, पराड़कर, प्रेमचंद, निराला शिवपूजन सहाय से लेकर अज्ञेय, रघुवीर सहाय आदि ने डाला था, जिनकी प्रतिबद्धता और निष्ठा अपनी अस्मिता की पहचान कराने में सतत सक्रिय रही।दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज यह प्रतिबद्धता वैश्वीकरण के प्रभाव और पूँजी के विचलन के कारण बदलती जा रही है। इसलिए इस पर गहन विमर्श की आवश्यकता है। हमें विशेष कर हिन्दी भाषा की सकारात्मक शक्तियों,जातीय विशेषताओं और बहुलतावादी भाषिक उपलब्धियों को गहराई में जाकर विश्लेषित करना चाहिए, ताकि हमारे आप्त-लोक का विघटन नहीं हो सके।
जैसा खयाल आता है कि यह लगभग आठवें -नौवें दशक का दौर होगा, जब विजातीय प्रतीकों और प्रतिरूपों का समागमन हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में तेजी से शुरु होता है।भूमंडलीकरण और उदारीकरण के हल्लाबोल के साथ सूचना प्रोद्योगिकी का विस्फोट सामने आता है।इलेक्ट्रोनिक मीडिया के वर्चस्व के साथ विज्ञापन और ब्रेक के बीच समाचारों का समाश्रय एक नई चका-चौंध के साथ उपस्थित होता है।, दूरभाष, इण्टरनेट, लैपटाॅप, डेक्सटाॅप आदि की अनिवार्यताओं ने इन सुविधाओं के प्रकल्पों के बीच कुछ पूर्वाग्रहों को भी जन्म दिया। समाचारों के संयोजनों,भाषिक स्वरूपों और समाचारों की प्रस्तुतियों पर टेक्नोलाॅजी का हस्तक्षेप भी बढ़ता चला गया। समाचार भी उत्पाद की तरह प्रस्तुत होने लगे।इस मीडिया के बारे में आज प्रसिद्ध पत्रकार मुकेश कुमार कहते हैं,”मीडिया का राजनीतिकरण नहीं अपराधीकरण हुआ है। मीडिया इंडस्ट्री में कई गैंग और डॉन सक्रिय हैं। मीडिया अब माफिया में तब्दील हो चुका है। उसका एक अंडरवर्ल्ड है जिसके कनेक्शन सत्ता और व्यवस्था से जुड़े हैं।सत्ता का उनके सिर पर हाथ है। सत्ता के इशारों पर वे चरित्र हत्याएं करते हैं, मॉब लिंचिंग करते हैं। सत्ता के इशारे पर वे ख़बरों में मिलावट करते हैं और तरह-तरह की सामाजिक बीमारियाँ (भेदभाव, तनाव, घृणा, हिंसा) फैलाते हैं। इन्हें पत्रकारों या मीडियाकर्मियों की तरह नहीं अपराधियों की तरह देखा जाना चाहिए और इनसे इसी रूप में व्यवहार किया जाना चाहिए। पिछले छह सालों का मीडिया इतिहास ख़ास तौर पर यही बताता है।”
कहना नहीं होगा कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने रचनात्मक विवेचना की जगह स्नायु-तंत्र को उत्तेजित करने वाले उपक्रमों पर जोर दिया । उधर प्रिंट मीडिया पर साहित्य और संस्कृति के पेज सिमटने लगे,तो चैनलों पर हँसना भूल गए लोगों को हँसाने का लिए के लिए कार्यक्रम पेश किए जाने लगे।मीडिया एक व्यवसायिक हब में तब्दील होता गया।आज सस्पेंश और स्कैंडल की तरह-तरह की खबरों के जरिए मनुष्य की बौद्धिक संपदा का पूरा दोहन किया जा रहा है। बाघिन जिस तरह अपने बच्चों को उठाती है,उसी सतर्क कला का समचारों के संचयन और वाचन में निदर्शन होता है।, खुलकर विजातीय भाषिक प्रतीकों का भी निर्बाध इस्तेमाल होता है।जाहिर है भाषिक प्रदूषण का संबंध हमेशा सांस्कृतिक प्रदूषण से होता है, जो आपके आप्त-लोक का विघटन करता है। इसे लक्ष्य कर प्रसिद्ध फ्रांसिसी विद्वान जेम्स पेत्रास कहते हैं,”तीसरी दुनिया के आकृतियों और विचारो को तोड़कर, उनके दलित और पिछड़े होने के अनुभवों को उभार कर, नये बिम्बों में प्रक्षेपित कर स्वायत्ता और स्वतंत्रता के बहाने अलगाव पैदा कर, परिवार और समाज के बंधनों को नष्ट कर, बाजार और पूँजी आधारित नव उपनिशवाद के लिए अनुकूल माहौल बनाया जा रहा है।”कहते हैंवैश्वीकरण के विचार को औचित्यपूर्ण बनाने वाले सारे संसाधन उदार लोक-तंत्र और स्थानीय स्वायत्तता की जितनी भी वकालत कर लें,भीतर से उनकी आक्रामकता अमेरिकी शैन्य-शक्ति से अधिक मारक है।आपको याद होगा मीडिया ने किस कौशल से अफवाहों का बाजार गर्म कर सद्दाम को बुश से बड़ा बाघ बना दिया और फिर एक वैश्विक समारोह के अभियोजन के साथ उसकी संप्रभुता को रौंद दिया गया?अपनी किस खबर की पुष्टि के लिए वह कब खंडन के लिए फिर आगे आया या पश्चाताप किया?मुकेश कुमार की बात सौ फीसदी सच लगती है। इसके स्थानीय और वैश्विक व्यवसायिक गठजोड हैं, जो किसी प्रच्छन्न रिमोट से चलते हैं।पूँजीवादी स्म्राज्यवाद में संचार के साधन अपने कौशल से हमारे अवधान को उस ओर ले जाते हैं, जहाँ जाकर हमारी चुनौती खत्म हो जाती है।हमारा ध्यान दूसरी तरफ बँट जाता है।इतना ही नहीं, लगातार भाषा और विचार में उन प्रतीकों,स्मृतियों और आग्रहों को मिटाया जाता है, जिनसे वे प्रतिरूप गढ़े जाते हैं। संसार से अगर जर्मन, पश्तो, फ्रेंच हिन्दी,रसियन को हटा कर अंग्रेजी कर दिया जाए, तो यह दुनिया कितनी कुरूप हो जाएगी?औपनिवेशिक सत्ता-संस्कृति में गुलामों के साथ यही होता है। कीनियाई मूल के दक्षिण अफ्रीकी लेखक नगूगी वा थियौंगो अपनी आत्मकथा में कहते हैं कि एक तरह की कंडिशनिंग के बाद हम खुद अपनी भाषा और संसकृति के खिलाफ वैसा सोचने पर मजबूर हो जाते हैं, जैसा वे चाहते हैं। चूँकि अफ्रीकन उपमहाद्वीप में छोट-छोटे देश हैं , इसलिए सुनियोजित रूप से अंग्रेजी में सुविधा मुहैय्या करा कर अपनी भाषा से काटने की साजिश की गयी। न्गुगी को ग्यारह वर्ष लगे समझने में, अपनी भाषा की ओर लौटने मे!हमारा देश भी बड़ा है बाजार भी ताकतवर और हमारी भाषा-संस्कृति भी महत्तर!हम जितनी जल्दी अपनी आत्म-शक्तियों की पहचान कर लौट आएँ, उतना अच्छा! क्योंकि इतिहास के पन्ने में फिर उनकी यह उद्घोषणा करवट बदल रही है,” जिन करोड़ों लोगों पर हम शासन करते हैं, उनके बीच दुभाषिये का काम करे,ऐसे लोगों का वर्ग जिसका खून और रंग तो भारतीय हों, जिसकी रूढ़ियाँ, जिसके विचार, नैतिक मानदण्ड और सोचने का ढंग अँग्रेजी हो।”मैकाले।
…जो लोग इस खतरे से बेपरवाह हैं, उन्हें मैं उदय प्रकाश की कहानी ‘ छप्पन तोले का करघन’ का एक संवाद सुनाता हूँ,” अँग्रेजों को गोली मारने वाले और बड़े-बड़े कारनामे करने वाले दादा से आजादी के बाद ट्ट्टी वाला लोटा नहीं उठता था… वे उस तालाब के पास भी गये, पर नयी नस्ल की बत्तखों ने उन्हें नहीं पहचाना।”
संजय कुमार सिंह,
प्रिंसिपल,
आर.डी.एस काॅलेज
सालमारी, कटिहार।
रचनात्मक उपलब्धियाँ-
हंस, कथादेश, वागर्थ, आजकल, पाखी, वर्त्त