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सरकार को कौन–सी नौबत आ गई, ताकि अध्यादेश जारी करना पड़ा ?



हिमालिनी  अंक मई 2020,देश कोरोना वायरस (कोभिड–१९)के कारण समस्याओं का सामना कर रही है । कोरोना संक्रमण के कारण ही आज (मई २०२० प्रथम हफ्ता) तक विश्व में २ लाख ५० हजार से अधिक लोगों की जान जा चुकी है । नेपाल में भी १०० से अधिक लोग कोरोना वायरस से संक्रमित हो चुके हैं । जनता को कोरोना वायरस संक्रमण से बचाने के लिए विश्व के अधिकांश देशों ने बन्दा–बन्दी (लॉकडाउन) घोषणा की है, अपनी पूरी शक्ति जनता को बचाने के लिए लगा दी है ।

नेपाल में भी सरकार ने लॉकडाउन घोषणा की है, जनता अपने–अपने कमरे बंद हैं, जीवन कष्टकर होता जा रहा है । ऐसी पृष्ठभूमि में सम्पूर्ण राज्यशक्ति जनता को सुरक्षित महसूस कराते हुए संकट समाधान के प्रति केन्द्रित रहना चाहिए था, इसमें सत्तापक्ष हो या प्रतिपक्ष, सभी दल को एकजूट होना चाहिए था । लेकिन संकटपूर्ण इस घड़ी में भी हमारे राजनीतिक दल तथा नेता ऐसे घिनौनी खेल में शामिल हो गए, जो शर्मनाक है । प्रसंग है, गत अप्रील २० तारीख की । उस दिन सरकार ने राजनीतिक दल गठन और संवैधानिक परिषद् संबंधी दो अध्यादेश जारी किया । वर्तमान परिस्थिति में उक्त दोनों अध्यादेश की कोई भी औचित्य नहीं था । इसीलिए बाद में सरकार को बाध्य होकर उक्त अध्यादेश वापस करना भी पड़ा ।

आखिर सरकार को कौन–सी नौबत आ गई, ताकि अध्यादेश जारी करना पड़ा ? यह सवाल आज भी है । अध्यादेश जारी करने के बाद विकसित राजनीतिक घटनाक्रम को दखते हैं तो स्पष्ट होता है कि उसके पीछे एक ही कारण था– तत्कालीन समाजवादी और राष्ट्रीय जनता पार्टी को विभाजन करना ।

हां, अध्यादेश जारी होते ही तत्कालीन समाजवादी पार्टी के सांसद् ड । सुरेन्द्र यादव को रातोरात जनकपुर से काठमांडू लाए गए । बताया जाता है कि समाजवादी पार्टी विभाजन के लिए आवश्यक एक सदस्य कम होने के कारण उनको जबरदस्ती काठमांडू लाया गया था । इसके लिए सत्ताधारी पार्टी नेकपा संबंद्ध सांसद् महेश बस्नेत, किसन श्रेष्ठ और पूर्व पुलिस प्रमुख (आईजीपी) सर्वेन्द्र खनाल की सक्रियता रही । कहा जाता है कि प्रधानमन्त्री के पी शर्मा ओली द्वारा कहने पर ही यह सब हो रहा था । हां, कोरोना वायरस रोकथाम तथा नियन्त्रण के लिए घोषित लॉकडाउन के कारण आम सर्वसाधारण घर से बाहर नहीं निकल पा रहे थे, लेकिन वहीं सत्ताधारी दल के सांसद् और पूर्व पुलिस प्रमुख रातों–रात काठमांडू से जनकपुर पहुँचते हैं और एक सांसद् को उठाकर काठमांडू लाते हैं । इस घटना को राजनीतिक वृत्त में ‘अपहरण–काण्ड’ के रूप में चर्चा की जा रही है ।

राजनीतिक वृत्त में में इसतरह का ‘ दखल’ अथवा ‘काण्ड’ होता रहता है, जो हम लोगों को कई बार देखने को मिल चुका है । इसीलिए जनकपुर से काठमांडू तक सांसद् डॉ. यादव को जिसतरह यात्रा करना पड़ा, उसको ‘अपहरण’ माना जाए या नहीं ? इस में अलग ही बहस हो सकता है । लेकिन जिस उद्देश्य के साथ उनको काठमांडू लाया गया, वह सत्ताधारी दल की ओर से की गई एक घटिया हरकत के सिवा कुछ भी नहीं है ।

क्योंकि सरकार लगभग दो–तिहाई बहुमत में है, देश और जनता के पक्ष में मनचाहा कर सकती है, किसी से भी अवरोध होनेवाला नहीं है । प्रतिपक्षी दल के पास ऐसा कोई भी ताकत नहीं है, ताकि वह सरकार को संकट में ड़ाल सके । ऐसी परिस्थिति में राजनीतिक दल गठन संबंधी संशोधित अध्यादेश जारी करने की कोई भी जरुरत नहीं थी । राजनीति करनेवालों में थोड़ी–सी भी ‘नीति’ और ‘नैतिकता’ रहती थी तो इसतरह की घटना देखने को नहीं मिलता ।

यहां बात सिर्फ सत्ताधारी दलों का ही नहीं है । कहा जाता है कि दल विभाजन संबंधी अध्यादेश के संबंध में प्रधानमन्त्री ओली ने प्रमुख प्रतिपक्षी दल नेपाली कांग्रेस के सभापति शेरबहादुर देउवा से भी विचार–विमर्श किया था और स्वीकृति ली गई थी । लेकिन जब संवैधानिक परिषद् को प्रमुख प्रतिपक्षी दल विहीन बनाने की उद्देश्य से दूसरा अध्यादेश भी साथ में आया, तब जाकर नेपाली कांग्रेस ने भी विरोध शुरु किया । इसमें कांग्रेस के ऊपर भी सवाल उठ सकता है ।

प्रायः हर राजनीतिक पार्टी तथा उसमें आबद्ध नेताओं की यही अवस्था हैं । उदाहरण के लिए तत्कालीन समाजवादी पार्टी तथा ड । यादव संबंधी प्रसंग को ही पुनः ले सकते हैं । संकटपूर्ण परिस्थिति से देश को बाहर निकालने की जिम्मेदारी सिर्फ सत्ताधारी दल की ही है, ऐसा नहीं है । संसद् में प्रतिनिधित्व करनेवाले हर दल और समाज में क्रियाशील अन्य सभी राजनीतिक तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं का भी है । लेकिन ऐसी ही पृष्ठभूमि में समाजवादी तथा राजपा में ऐसे कई नेता दिखाई दिए, जो अपने राजनीतिक दल विभाजन कर सत्ता में शामिल होना चाहते थे । सच तो यही है कि उन लोगों की इसी चाहत को सम्बोधन करने के लिए ही सरकार ने रातोंरात अध्यादेश जारी किया । लेकिन जब मूल पार्टी से विभाजन होने के लिए इच्छुक समूह के पास ४० प्रतिशत सांसद् नहीं रहे तो ड । यादव को जबरदस्ती काठमांडू लाना÷आना पड़ा । इसके पीछे सिर्फ सत्ताधारी दल के नेताओं की नीति और नैतिकता के प्रति ही सवाल नहीं उठता, तत्कालीन समाजवादी और उससे संबंद्ध नेताओं को भी जबाव देना पड़ता है । हां, लगभग यही हालत राजपा का भी होने लगा था । लेकिन दोनों पार्टी के शीर्ष नेताओं की सक्रियता के कारण संभावित दुर्घटना से दोनों पार्टी बच गई । अन्ततः समाजवादी और राजपा मिलकर जनता समाजवादी पार्टी बनाने की घोषणा की गई है । परिणाम के लिए इन्तजार ही करना पड़ेगा, क्योंकि एकीकृत पार्टी संबंद्ध नेता भी कोई दूध के धुले नहीं हैं ।



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