र्सर्वे भवन्तु सुखिन:वेदना उपाध्याय
र्सर्वे भवन्तु सुखिनः र्सर्वे सन्तु निरामयः र्सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भागभवेत । कैसी कल्याणकारी पंक्तियाँ हैं भारतीय वांगमय की । सभी सुखी हो, निरोगी हो, सभी में भलमनसाहत हो, किसी को किसी प्रकार का कोई कष्ट न हो । संतो ने कितनी सुन्दर बातें बताई है । पर क्या फयदा ! हम तो अपनी ही ढपली ले अपना ही राग अलापते हैं । वो कहते हैं न कि सारी रामायण हो गया और किसी ने पूछा सीता किसकी बेटी – या फिर नेपाली में एक बडी अच्छी कहावत है- ‘रातभरि रुग्यो, बूढी जिउँदै’ असल में कुछ चीजें होती हैं जो जन्म के साथ आती हैं और मृत्यु के बाद ही जाती है । जन्म के साथ से हमारा आशय है, बचपन की लगी आदत बचपन में नहीं जाती बल्कि वो तो उम्र के साथ और भी मजबूत हो जाती है, जड पकड लेती है, जैसे कोई पौधा बरसात का पानी पाकर अपनी जड मजबूत कर लेता है, फिर इन आदतों को तो तब तक न जाने कितनी बरसातों का पानी मिल चुका होता है तो इनका जडÞ पकडÞना कोई अस्वभाविक बात भी तो नहीं है ।
ये तो मानवीय स्वभाव है कि उसे जितनी खुशी अपने बडे से बडे सुख से नहीं मिल पाती वो खुशी उसे अपने पडोसी को होने वाले किसी साधारण कष्ट से ही मिल जाती है । हो भी क्यों न क्योंकि सब कुछ तो महामाया का ही खेल है । आज नहीं, ये तो सदियों से चला आ रहा सृष्टि का सनातन नियम है कि जो खुद कुछ अच्छा नहीं कर पायेगा वो दूसरों के अच्छे कामों में भी कीचड उछा लेगा । अब अगर ऐसा न होता तो उस धोबी को सीता की प्रतिष्ठा पर प्रश्न उठाने की भला जरूरत ही क्या थी, पर यदि वो प्रश्न न उठाता तो एक नयाँ इतिहास कैसे रचा जाता और आज मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम पर भी कई लोगों को बहस करने का मौका कैसे मिल पाता – खैर, शायद हम अपने विषय से भटके जा रहे हैं ये तो हमारा आज का विषय नहीं आज तो विषय बडा आम सा है । आजकल समाज में एक रिवाज सा आ गया है- विकासोन्मुख देशों की युवा पीढी का विकसित देशों में जाकर विद्या अध्ययन करने का, और रिवाज आ गया है इन देशों की युवा पीढी का बाहर -विदेशों में) जाकर धनार्जन करने का- जो शायद कुछ बेजा भी नहीं है क्योंकि इससे किसी न किसी रूप में परिवार को, समाज को, देश को मदद ही मिलती है परन्तु जैसा कि हमारे समाज में लोगों को अपनी मेहनत की गाढी कमाई का भोजन भी तब तक नहीं पचता जब तक वो दूसरो के विषय में दो-चार उल्टी-सीधी टीका-टिप्पणी न करे लें ।
अभी कुछ रोज पहले राह चलते हमारी एक पुराने जान-पहचान के एक महाशय से मुलाकात हो गई वे महाशय भी बडे निराले व्यक्तित्व के धनी हैं । थोडेÞ से गिले-शिकवे के बाद सीधे ही अपना बात पर आ गए । वे न जाने कब से किसी ऐसे बन्दे की तलाश में थे, जो उनकी मन की भडÞास को सुन सके और उनकी हाँ में हाँ मिला सके । बोले- अरे, आप तो उन्हें जानते हैं, न वे हमारे पडोसी वर्मा जी ! हमने जबाब दिया- क्यों नहीं – मैं तो उन्हें बहुत अच्छी तरह जानती हूँ । बडेÞ नेक इन्सान है और जितने खुद नेक इन्सान हैं अपने बच्चों को उन्होंने संस्कार भी उतने ही अच्छे दिए हैं । और बच्चे हैं भी बडेÞ लायक । कल मेरी बेटी बता रही थी की उनका बेटा तो छात्रवृत्ति पाकर कुछ दिनों पहले ही अमेरिका गया है । मेरी बात को बीच में ही काटकर वे बोले- अरे, आप भी कौन सी दुनियाँ में रहती हैं – अरे कौन कहाँ कैसे गया ये तो आपको पता ही नहीं । कोई छात्रवृत्ति नहीं मिली बस बाप चालू बेटा महाचालू- वो कहते हैं कि न कि जो जैसा दिखाई देता है, वो हमेशा वैसा ही नहीं होता, कभी-कभी कुछ का कुछ दिखाई देता है । जिन्हें आप बहुत नेक कह रहे हैं वो तो बस नाटक करने वाले अच्छे कलाकार हैं । अरे वो हैं न उनके क्षेत्र के मंत्री जी सब उनकी ही महिमा का खेल है और वे वर्मा जी बडेÞ सधे हुए साध हैं ।
उन्हीं की कृपा से बेटे को मिल गया अमेरिका का वीजा । पर इतना ही कहाँ है साहब ! उनका बेटा गया अच्छी बात है, चाहे सच बोलकर गया या झूठ का नाटक करके, पर मजे की बात तो अब है बेटा तो वहाँ की जेल में है । पीस रहा है जेल की चक्की और यहाँ वर्मा जी बडÞी नाक ऊंची किये घूमते हैं कि उनका बेटा अमेरिका में पढर्Þाई कर रहा है । पर वह कोई पढर्Þाई-वढर्Þाई नहीं कर रहा है । अरे ये एक क्या- आजकल तो ये आम बात हो गई है जो अपने देश में हाई स्कूल भी पास नहीं कर पाते ढंग से, वह विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाते हैं, यहाँ के कपूत विदेश में जाते ही सपूत बन जाते हैं । अरे, ऐसा कौन सा अलादीन का चिराग है वहाँ, कि जाते ही सब बदल जाता है – मित्र महाशय ऐ्से धारा प्रवाह बोले जा रहे थे कि हमें न तो न कहने का मौका दे रहे थे और नहीं अपनी बात कहने का । अंत में जब उनकी दलीलों की हद ही हो गई तो हमने कहा- नहीं, भाई साहब ऐसी बात नहीं है, ये जो नई पीढी है, ये बहुत ही महत्वाकांक्षी है और हो भी क्यों न आज संसार सिमट कर मानों एक ही घर के कई कमरे की तरह हो गया है । कहीं की कोई बात किसी से छिपी नहीं रहती । अब जब दूसरे राष्ट्रों के लोग तरक्की करते हैं तो वह बीच में बोल पडेÞ अरे काहे की तरक्की, कोई तरक्की-वरक्की नहीं है ये सब चालाकी का खेल है । बस ऐसे लोग हर तरह से अपना फायदा देखते हैं, उन्हें देश और समाज से कुछ नहीं । अरे सही मानों तो शर्मा जी, ये तो कुछ दूर चलकर अपने परिवार के भी नहीं रहते बस केवल अपने आप में सिमट कर रह जाते हैं । मेरी बात को बीच में ही काटकर वे सज्जन फिर से धारा प्रवाह शुरू हो गए थे । पर आज न जाने क्यों मेरा दिल भी चुप रहने को न रहा सो मैंने कहा देखिये आपके निजी विचार क्या हैं, इससे मेरा कोई सरोकार नहीं है । पर जहाँ तक मैं जानता हूँ, वर्मा जी को वे बडेÞ ही खुद्दार इन्सान है और जहाँ तक बच्चों के बाहर जाने के सम्बंध में आप के विचार हैं, मैं उनसे भी कुछ सहमत नहीं । क्योंकि अनुभव कहता है कि जगह वातावरण और परिस्थितियां बदलने से बहुत कुछ बदल जाता है । जब व्यक्ति और लोगों को अच्छी तरह जीते और अच्छा काम करते देखता है तो उसमें भी उसकी ललक जगती है । ये कोई नई बात नहीं है । आपने कहा कि विदेशों में क्या अलादीन का चिराग है कि वहाँ जाकर आदमी एकाएक बन जाता है ! वह बनता नहीं, कोई अच्छा काम नहीं करता, बस जाकर छोटे-छोटे काम करता है यहाँ वह बडेÞ और ऊंचे काम चाहता है ये भी सही है बडेÞ और ऊंचे काम करना सब कोई चाहता है । खासकर हमारे जैसे देश में जहाँ बच्चे की शिराओं में ही ऊँच और नीच भर दी गई है, यहाँ काम को महत्व न दिया जाकर उसके छोटे-बडेÞ होने को महत्व दिया जाता है, वहाँ काम का महत्व है सभी करते हैं और कोई कुछ भी करें कोई किसी का मजाक नहीं बनाता हमारे यहाँ की तरह । और वैसे भी आप तो काफी अनुभवी हैं ।
साहित्य में एक बडÞी विचित्र की कहावत भी है- देश चोरी परदेशी भिक्षा यानि अपने गाँव-ठाँव में भिक्षा मागने में शर्म का अनुभव होता है सो लाचार होने पर आदमी चोरी करता है ये जानते हुए भी कि ये गलत है – जुल्म है पर देश में जहाँ उसे कोई जानता नहीं उसे भिक्षा माँगने में कोई शर्म नहीं । बात अन्य चीजों पर भी लागू होती है । हमारे सज्जन मित्र शायद इस विचार में न थे कि हम उनकी बात का इस प्रकार खंडन कर देंगे । सो हाँ शायद आप ठीक कह रहे हैं कहकर जल्दी में होने का बहाना बनाकर वहाँ से चले गए । वैसे इस किस्म की बातों का होना कोई नई बात नहीं है । अक्सर लोग ऐसा सोचते हैं, पर मजे की बात ये है कि वे भी इस फिराक में रहते हैं कि उनके बच्चों को भी कोई मौका मिल जाये बाहर जाने का जब कुछ नहीं हो पाता तो फिर अंगूर खट्टे हैं की कहावत चरितार्थ होती है ।
बडेÞ दुःख की बात तो ये है कि जिस सभ्यता और संस्कृति की प्रशंसा करते हम नहीं अघाते उसी सभ्यता और संस्कृति की खिल्ली भी हम स्वयं ही उडÞाते है । जहाँ र्सर्वे भवन्तु सुखिनः की गंगा कभी बहती थी आज वहीं स्वान्तः सुखाय के लिए हम कुछ भी कर सकने को तैयार बने बैठे हैं । हम ये क्यों नहीं सोच पाते कि अगर हम किसी को सुख नहीं पहुंचा सकते तो उसे दुःख पहुँचाने का हमें भला क्या हक है – अगर हम किसी की मुक्त कंठ से प्रशंसा नहीं कर सकते तो हमें उसकी दबे गले से भी भर्त्सना करने का क्या हक है –
काश ! आज सब हमारी प्राचीन आर्य संस्कृति के अनुसार जीवन बिताने तो ये समाज में नित नई पैदा होती जा रही इष्र्या और वितृष्णा की स्थिति इस कदर न फैलाती और सही मायने में भाईचारा रहता फिर किसी को कोई दिखावा करना न पडÞता फिर किसी राम को किसी गुह को गले लगाने में कोई दुविधा न होती । जियो और जीने दो का नारा आज समाज के लिए सबसे आवश्यक नारा है । हम किसी के घर में झांकने की बजाय यदि अपने ही घर में झांके, घर में भी क्यों खुद में झाँकें तो हर समस्या का निराकरण हमारे ही पास मौजूद है । पहले के समय के आदमी की धारणा कुछ ऐसी थी-
जो तोको काँटा बोए ताहि बोउ तू फूल
तोको फूल तो फूल हैं, बांको है त्रिशूल ।
पर आज के आदमी की धारणा ऐसे बदली-
जो तोको कांटा बोए ताहि बोए तू भाला, वो भी साला क्या समझेगा किससे पडÞा है पाला ।