बारहवां नेपाल राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलनः
औचित्य और आवश्यकता
डाँ. श्वेता दीप्ति:जनकनन्दिनी के पावन और तर्राई की उर्वर धरती पर पनपती, पुष्पित होती, मधेश के विभिन्न जगहों से अपने सफर को तय करती, सुरम्य वादियों से गुजरती, नेपाल हिन्दी प्रतिष्ठान, जनकपुर ने, अपना बारहवाँ सफर देवाधिदेव महादेव बाबा पशुपतिनाथ की पावन नगरी काठमाण्डू में, गत चैत्र तीन और चार गत े-मार्च १६/१७) प्रज्ञा प्रतिष्ठान के भव्य सभागार में भव्यता के साथ पूरा किया।
विश्व की दूसरी साधन सम्पन्न भाषा हिन्दी, विगत कई वर्षों से नेपाल में, जहाँ हिन्दी बोलने वालों की संख्या भारत के पश्चात् सबसे अधिक है, विवाद का विषय रही है। कितने आरोप-प्रत्यारोप को झेलती हिन्दी, पहाडÞी रास्तों के अनचाहे मोडÞों से होती हर्ुइ, नेपाल में आज तक का सफर तय करती आई है। इतिहास के पन्नों और आँकडÞों पर अगर्रर् इमानदारी से नजर डाली जाय, तो यकीनन दूर-दूर तक इसके विरोध की कोई स्पष्ट वजÞह नहीं दीख पडÞती है, सिवा इसके कि, चंद कल और आज के सत्ता के ठेकेदारों ने इसे अपनी स्वार्थपरता और सत्तालोलुपता की पर्ूर्ति के लिए विवाद का विषय बना रखा है। विदेशी भाषा कहकर हिन्दी को बहिष्कृत करने की कोशिश की जाती रही है। यह सत्य है कि हिन्दी, भारत की राष्ट्रभाषा और कई प्रांतो की राजकाज की भाषा है, पर इसके साथ यह भी तो उतना ही सत्य है कि मैथिली, भोजपुरी, अवधी, वज्जिका, थारु और नेपाली जैसी अन्य भाषाऐं भी भारत के कई प्रांतों में बोली जाती हैं और ये भाषाऐं नेपाल के भी कई क्षेत्रों की भाषा या बोली है। तो प्रश्न उठता है कि, अगर इनका विरोध नहीं है तो हिन्दी का ही क्यों – क्या सिर्फइसलिए कि यह भारत की राष्ट्रभाषा है – अगर विवाद की सिर्फयही वजह है, तो इस सच को भी नहीं नकारा जा सकता कि नेपाल में हिन्दी प्रयोग का इतिहास साढे ग्यारह सौ वर्षों से भी अधिक पुराना है। लगभग साढÞे पाँच सौ मील में विस्तृत तर्राई प्रदेश हिन्दी भाषियों का मुख्य क्षेत्र रहा है।
देश आज संक्रमणकाल से गुजर रहा है। राजनीतिक अस्थिरता का दौर है, सभी अपनी अपनी स्वार्थसिद्धि में लगे हुए हैं। संघीयता और नए संविधान की बहस जारी है और यही वह समय है जब हिन्दी को भी आधिकारिक रूप से संविधान में स्थान दिलाने के लिए पुरजोर आवाज उठाने की आवश्यकता है क्योंकि, अधिकार माँगने और लेने का यही सही समय है, वरना तुलसी दास ने सही ही कहा है,
“का बरखा जब कृषि सुखानी
समय चूकि पुनि का पछतानी”
इन्हीं ज्वलंत मुद्दों को बारहवें हिन्दी राष्ट्र सम्मेलन में उठाया गया। इस महत्वपर्ूण्ा सम्मेलन के प्रमुख अतिथि नेपाल के प्रसिद्ध समाजसेवी, मानवाधिकारवादी, पर्ूव सभामुख माननीय श्री दमननाथ ढुंगाना जी थे। उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में अत्यन्त जोरदार शब्दों में ये अपील की कि, नेपाल में सर्म्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी के अस्तित्व को नहीं नकारा जा सकता क्योंकि, हिन्दी सिर्फभारत और नेपाल के सम्बन्धों को ही नहीं जोडÞती बल्कि नेपाल के भीतर हिमाल, पहाडÞÞ, तर्राई के क्षेत्रों को भी सांस्कृतिक और व्यापारिक दृष्टिकोण से एक सूत्र में बाँधने का काम करती है। उन्होंने कहा कि, जिस तरह आज की स्थिति में संघीयता का सवाल महत्वपर्ूण्ा है और इसकी आवश्यकता महसूस की जा रही है, उसी तरह हिन्दी की आवश्यकता नेपाल में थी और रहेगी। नेपाल की युवा पीढÞी लाखों की संख्या में प्रतिवर्षविदेश में रोजगार के लिए जाती है और उन्हें सर्म्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी का सहारा लेना पडÞता है। इसलिए भी इसके अध्ययन-अध्यापन को मान्यता दिलाना आवश्यक है। उन्होंने माना कि विश्व में भारत के बाद नेपाल ही वह देश है, जहाँ हिन्दी बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक है। विश्व पटल पर हिन्दी दूसरी सर्म्पर्क भाषा के रूप में स्थान बना चुकी है, इस स्थिति में, नेपाल में, जहाँ इसकी जडÞें आज की नहीं हैं बल्कि वर्षों पुरानी हैं, उन्हें उखाडÞा ही नहीं जा सकता। आवश्यकता वर्तमान सर्ंदर्भ में बस इतनी ही है कि, हिन्दी को आधिकारिक रूप से मान्यता दिलाने के लिए राजनीतिज्ञों को पूरर्ीर् इमानदारी के साथ सामने आना पडÞेगा।
एक मानवाधिकारी, समाजसेवी और पर्ूव सभामुख के रूप में ढुंगाना जी का वक्तव्य काफी मायने रखता है। समाज की क्या आवश्यकता है, कहाँ उनके मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है, इन तथ्यों से, जिम्मेदार नागरिक या सच्चा राजनीतिज्ञ, जिनके कंधों पर देश की बागडोर है, अनभिज्ञ नहीं रह सकता। बस आवश्यकता सच्चर्ीर् इमानदारी की है।
इसी सर्ंदर्भ में सम्मेलन के विशिष्ट अतिथि महामहिम भारतीय राजदूत श्री जयंत प्रसाद जी के मन्तव्य पर अगर नजर डाली जाय तो सबसे पहली बात यह होगी कि, उन्होंने इस मुद्दे की संवेदनशीलता को समझते हुए इसकी चर्चा अत्यंत संयमित ढंग से की। यह उनकी दूरदर्शिता और कूटनीतिज्ञता का परिचय देती है। उन्होंने कहा कि, भारत के संविधान की अनुसूचियों में हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं और बोलियों के साथ-साथ नेपाली को भी शामिल किया गया है, उसी तरह नेपाल में हिन्दी को भी स्थान मिलना चाहिए। साथ ही उन्होंने उन प्रांतों की भी चर्चा की जहाँ नेपाली राज-काज की भाषा के रूप में स्थापित है। भारत के हर राज्य की अपनी भाषा है पर, देश के एक कोने से दूसरे कोने तक को जोडÞने का काम हिन्दी ही करती है, जिसके मूल में इसकी सहजता और सरलता है। महामहिम ने कहा कि वो स्वयं जब हिन्दी बोलते हैं, तो इस क्रम में अँग्रेजी शब्दों की मिलावट हो जाती है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि इससे हिन्दी की गरिमा कम हो जाती है।
हिन्दी की यह भी एक विशेषता है कि उसमें विदेशी शब्द भी कुछ इस तरह घुल मिल गए हैं कि उन्हें अलग करना आसान नहीं होता। उर्दू, संस्कृत, मैथिली, भोजपुरी, अँग्रेजी आदि के शब्दों को हिन्दी ने सुगमता के साथ आत्मसात् किया हुआ है। पत्रकार विद्वान कामिल बुल्के ने कहा था, “संसार की कोई ऐसी भाषा नहीं है, जो सरलता और अभिव्यक्ति के दृष्टि से हिन्दी की बराबरी कर सके।” एक सुसमृद्ध साहित्य, व्याकरण, शब्द-भण्डार का खजाना है हिन्दी, जो नेपाली साहित्य का भी आधार बना, और-तो-और नेपाल के आन्दोलन में भी इसकी महत्ता रही है। इतना ही नहीं कभी यहाँ शिक्षा का भी आधार हिन्दी थी, तो आज इसके प्रति इतनी वैमनस्यता क्यों – हिन्दी फिल्में, हिन्दी संगीत, हिन्दी कार्यक्रम से सभी को यहाँ भरपूर प्यार मिलता है, तो इसी भाषा से यह दुराव क्यों –
सम्मेलन में विद्वानों, राजनीतिज्ञों और साहित्यकारों की अच्छी उपस्थिति थी। सबने अपने-अपने मत रखे और हिन्दी की आवश्यकता पर जोर दिया। श्री राजेन्द्र महतो, श्री विमलेन्द्र निधि, श्री मती सुरिता साह आदि जैसे अनेक राजनीतिज्ञों ने इसकी महत्ता को स्वीकार किया और इसे सम्मानजनक स्थान देने की बात कही। प्रसिद्ध भाषा शास्त्री श्री योगेन्द्र प्रसाद जी की भी उपस्थिति थी, उन्होंने कहा कि ताजा आँकडÞा बताता है कि हिन्दी बोलने वालों की संख्या में काफी वृद्धि हर्ुइ है। यह बात निश्चित रूप से हिन्दी-प्रेमियों के मन में आशा का संचार पैदा करती है। नेपाल हिन्दी प्रतिष्ठान के अध्यक्ष और प्रसिद्ध साहित्यसेवी, विद्वान श्री राजेश्वर नेपाली जी का अथक प्रयास था यह सम्मेलन। नेपाली जी हमेशा से हिन्दी को सम्मानित अधिकार और स्थान दिलाने की लडर्Þाई लडÞते आए हैं। इन्होंने अपने मंतव्य में सरकार की नीति के साथ-साथ नेपाल प्रज्ञा-प्रतिष्ठान के प्रति भी अपना रोष प्रकट किया। नेपाल प्रज्ञा प्रतिष्ठान ने आजतक हिन्दी की मौलिक रचनाओं के प्रकाशन में कोई सहयोग नहीं दिया है और यही स्थिति साझा प्रकाशन की है, साथ ही उन्होंने गोरखापत्र का भी जिक्र किया, जिसमें नेपाल की तकरीबन हर भाषा को शामिल कर अंक निकाला जाता ह,ै पर हिन्दी को उसमें कोई जगह नहीं दी गई है। नेपाल में हिन्दी लेखकों की कमी नहीं है किन्तु, उनके रचनाओं के प्रकाशन के लिए कोई सामने नहीं आता। यह पीडÞा यहाँ के हिन्दी लेखकों की है, जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
ग्ाौरतलब है कि नेपाल का सबसे पुराना विश्वविद्यालय त्रिभुवनविश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग है, किन्तु विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित कोई भी पत्रिका में हिन्दी भाषा में लिखी गई रचना को शामिल नहीं किया जाता है और विडम्बना यह है कि जब हिन्दी शिक्षकों की पदोन्नति का सवाल होता है, तो उनसे उनकी भाषा की प्रकाशित रचनाओं को मांगा जाता है । किसी अन्य भाषा में छपी सामग्री को उनके लिए महत्व नहीं दिया जाता है। प्रकाशक, हिन्दी भाषा की रचनाओं को छापना नहीं चाहते, अखवार में इसके लिए कोई जगह नहीं है और सम्मानित हिन्दी पत्रिकाओं की कमी है, यह यक्ष प्रश्न हमारे सामने है और इसका जवाब हमें ढँूढना होगा।
इस सम्मेलन में हिन्दी विद्वानों को सम्मानित किया गया, साथ ही नेपाल हिन्दी प्रतिष्ठान द्वारा स्थापित ‘राजषिर् जनक प्रतिभा’ पुरस्कार से वर्ष२०६८ और २०६९ के लिए संत साहित्यकार श्री रामस्वार्थ ठाकुर और कथाकार और उपन्यासकार और पेशे से डाँक्टर श्री शिवशंकर यादव जी को सम्मानित किया गया। कई मौलिक पुस्तकों का लोकार्पण भी किया गया। सम्मेलन के प्रथम दिन के अंतिम चरण में सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत संगीत प्रतिभा के धनी श्री गुरुदेव कामत जी और रमा मण्डल जी ने अपने गायन-कला से सबका मन-मोह लिया। इनका साथ संगीत मार्तण्ड बदन मण्डल जी ने बखूबी दिया। इन सबको भी सम्मानित किया गया। अरविंद आश्रम के छोटे-छोटे बच्चों ने तो अपने नृत्य से मंत्रमुग्ध ही कर दिया था।
सम्मेलन के दूसरे दिन ‘गणतंत्र नेपाल और हिन्दी की दशा और दिशा’ विषय पर चर्चा-परिचर्चा हर्ुइ। एक बृहत काव्य-गोष्ठी का भी आयोजन किया गया, जिसमें भारत और नेपाल के कई स्थापित और नवोदित कवि, कवयित्रियों को काव्य-पाठ का अमूल्य अवसर प्राप्त हुआ।
एक लम्बी बहस और हिन्दी को एक सम्मानित स्थान दिलाने के संकल्प के साथ इस सम्मेलन की समाप्ति हर्ुइ। सम्मेलन में हिमालिनी परिवार की उपस्थिति, सहयोग और योगदान निश्चित रूप से सराहनीय रही। सीमित साधन के बावजूद सम्मेलन सफल रहा इसके लिए निस्संदेह नेपाल हिन्दी प्रतिष्ठान धन्यवाद का पात्र है। उम्मीद है आने वाले वर्षो में भी नेपाल हिन्दी प्रतिष्ठान और हिन्दी प्रेमी ऐसे सम्मेलन की आयोजना हेतु सतत प्रयत्नशील रहेंगे।
-लेखिका त्रिवि केन्द्रीय हिन्दी विभाग
कर्ीर्तिपुर में उप प्राध्यापक हैं)