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कब तक हैवानियत की ग्रास बनती रहेंगी निर्मला और भागीरथी : डॉ. श्वेता दीप्ति

भागीरथी
भागीरथी

डॉ श्वेता दीप्ति,हिमालिनी 2021 फरवरी अंक । हर रोज निर्मला और भागीरथी मर रही हैं और हम तमाशाई बने हुए हैं । कुछ समय पहले जब कोरोना– कहर और लॉकडाउन से हम जूझ रहे थे, तब भी हम ऐसी घटनाओं को सुनने से वंचित नहीं थे । जिस महामारी ने पूरे विश्व को दहला दिया था, उस वक्त भी शारीरिक भूख और वहशीपना इन बीमार मानसिकता वालों के दिमाग पर कब्जा जमाए हुए थी । आखिर क्यों ? क्या सचमुच इंसान जानवर बन रहा है ? या सभ्यता की खाल ओढ़े हुए इन हैवानों को औरत सिर्फ भोग की वस्तु नजर आती है, जिसपर वो अपना अधिकार साबित करना चाहते हैं ? क्या हम यह समझ पाते हैं कि, ‘रेप’ या ‘बलात्कार’ एक ऐसा शब्द, जो बोलने या सुनने में तो बहुत छोटा सा लगता है, लेकिन इसकी पीड़ा कितनी लंबी और दुखदायी हो सकती है ? इसका अंदाजा सिर्फ और सिर्फ वही लगा सकती है, जिसके साथ यह बर्बरता होती है । बाकी लोग बस इसके बारे में बातें ही कर सकते हैं । सच तो यह है कि बलात्कार किसी भी लड़की के लिए मौत से पहले मौत होती है । जहाँ कभी तो वह उस आततायी के हाथों मरती है तो कभी हमारे तथाकथित समाज और सभ्य परिवार के हाथों मरती है ।

दो दशक पहले, पूरे नेपाल में औसतन २०० बलात्कार के मामले दर्ज किए गए थे । किन्तु वर्तमान आँकड़ा इससे कहीं बहुत आगे निकल चुका है । एक नजर डालते हैं २०७६ में अन्नपूर्ण पोस्ट में प्रकाशित आँकड़े पर जिसके अनुसार पिछले छह वर्षों में बलात्कार के मामलों की संख्या दोगुनी से भी अधिक हो गई है । पुलिस मुख्यालय के अनुसार, २०७०÷२०७१ में ९०५ घटनाएं हुईं । २०७५÷७६ तक यह संख्या २,२३३ तक पहुंच गई । २०७१÷७२ में ९८१, २०७२÷७३ में १,०९३, २०७३÷७४ में १,१३७ और २०७४÷७५ में १,४८० घटनाएं हुईं। सभी ७७ जिलों में से, काठमांडू में सबसे अधिक घटनाएं हुईं । पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि उसके बाद झापा में कई घटनाएं हुईं । २०७५÷७६ में काठमांडू में २१० और झापा में १३० घटनाएं हुईं । उसके बाद सुनसरी, मोरंग और कैलाली में कई घटनाएं हुईं । सुनसरी में ११०, मोरंग में १०२ और कैलाली में १०० घटनाएं हुईं । प्रदेश के स्तर पर देखें तो सबसे अधिक प्रदेश एक में घटनाएं हुई हैं। २०७५÷७६में ५९४ घटनाएं हुईं। पांच प्रदेशों में ४०१ घटनाएं हुई हैं । काठमांडू में बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि हुई है।

हर बार एक ही सवाल दिल–दिमाग को झकझोरता है कि आखिर यह कैसी मानसिकता है जो गैर ही नहीं अपनी बच्चियों तक को नहीं बख्शता है ? कभी पिता के द्वारा, कभी भाई के द्वारा तो कभी चाचा, ताऊ जैसे अपनों के द्वारा बेटियाँ बलात्कृत होती आ रही हैं । जो इस पीड़ा को झेलती हैं वो जिन्दा रहकर भी मृत हो जाती हैं । क्योंकि यह सभ्य समाज उसे जीने नहीं देता । बलात्कार क्यों होता है, कैसे होता है, किन परिस्थितियों में होता है यह सब उस महिला या लड़की के लिए कुछ मायने नहीं रखते जिसके साथ यह होता है । क्योंकि ऐसी स्थिति में उस पीडि़ता के लिए जीवन कष्टों की गठरी बन जाती है । पहले तो उसका शारीरिक बलात्कार होता है और फिर हर डगर पर उसका मानसिक बलात्कार अपनों द्वारा होता ही रहता है ।

आखिर किसी अपराधी द्वारा रेप जैसे घिनौने कृत्य को अंजाम देने की मुख्य वजह क्या हो सकती है—पहने हुए छोटे कपड़े ? या रात में अकेले निकलना या फिर लड़कों के साथ उनकी दोस्ती ? किन्तु अगर गौर करें तो ये सारी वजहें सतही हैं, जो इस घिनौने कृत्य का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करती हैं, क्योंकि अगर ऐसा होता, तो दुनिया का हर पुरुष बलात्कारी होता, जो कि नहीं है । बलात्कार दरअसल एक मानसिकता है, जिसके निदान के लिए हमें उन सभी कारकों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, जो इसके लिए उत्तरदायी हैं, वरना हम कितने भी कानून क्यों न बना लें या फिर अपनी बेटियों को सेल्फ–डिफेंस की कितनी भी तरीके क्यों न सिखा दें, यह अपराध समूल नष्ट करने के लिए नाकाफी ही साबित होगा ।

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जो बलात्कार जैसा घिनौना अपराध करते हैं अगर उनकी मनोदशा और प्रवृत्ति को देखें तो हमें दो श्रेणियों के अपराधी मिलते हैं— पहली श्रेणी ऐसे बलात्कारियों की है, जिन्हें इस बात का एहसास भी नहीं होता कि वे कुछ अपराध भी कर रहे हैं । वे अक्सर नशे या मानसिक दिवालियापन की गिरफ्त में होते हैं । उनकी इस प्रवृत्ति पर उनकी परवरिश और परिवेश का व्यापक प्रभाव होता है । ये लोग अपने घर–परिवार से दूर दूसरे शहर की दमघोंटू परिस्थितियों में काम करने को मजबूर होते हैं । इनमें ड्राइवर, क्लीनर, खलासी, रेहड़ी, फैक्ट्ररी वर्कर, आदि के अलावा कुंठित बेरोजगार भी शामिल होते हैं । इनकी इतनी कमाई नहीं होती कि ये अपने परिवार को अपने साथ रख सकें, लेकिन इससे शरीर की जरूरतें तो नहीं खत्म हो जातीं । ऐसे में सर्वसुलभ और आसानी से उपलब्ध सस्ती कामुक सामग्री इनकी कामुकता को इनकी समझ के दायरे से बाहर कर देती है और क्षणिक आवेश में उत्तेजित होकर ये लोग कभी अकेले तो कभी समूह में बलात्कार जैसी घिनौनी कृत्य को कर गुजरते हैं । ऐसी घटनाओं की पीडि़ता अक्सर कोई अनजान या अकेली ही होती है, जिन्हें ये शायद ही पहले से जानते हों। विकृत मानसिकता वाले इन बलात्कारियों ने हाल के दिनों में पाशविकता की सीमाएं पार कर दी हैं।

ऐसा नहीं है कि बलात्कारियों में केवल गुंडे और असामाजिक तत्व ही शामिल हैं । आज यदि हम बलात्कार के आरोपितों की जाँच करें, तो पाएंगे कि इनमें कई पुलिस कर्मी, वकील, जज, मंत्री, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, उच्चाधिकारी, लोकप्रिय फिल्म अभिनेता व निर्देशक, सामाजिक कार्यकर्ता और नामचीन पत्रकार आदि सफेदपोश लोगों के नाम भी जुड़े हैं । इनके अलावा निकट के परिजन, दोस्त, प्रेमी और जानकार से लेकर पिता, भाई और पति तक ऐसी हिंसा में लिप्त पाए गए हैं । मतलब बलात्कार की यह मानसिकता किसी खास आयु वर्ग, पेशा, क्षेत्र या शिक्षित–अशिक्षित होने तक सीमित नहीं है । यह एक सभ्यतामूलक चुनौती है, जिसके मूल में हमारे समाज की पितृ–सत्तात्मक सोच है ।

इस कुकृत्य के पीछे नशा का भी अहम योगदान है । नशा आदमी की सोच को विकृत कर देता है । उसका स्वयं पर नियंत्रण नहीं रहता और उसके गलत दिशा में बहकने की संभावनाएं शत–प्रतिशत बढ़ जाती है । ऐसे में कोई भी स्त्री उसे मात्र शिकार ही नजर आती है । हमारे देश में नशा धड़ल्ले से बिक रहा है । आपको हर एक किलोमीटर में मंदिर मिले ना मिले पर शराब की दुकान जरूर मिल जाएगी । और शाम को तो लोग शराब की दुकान की ऐसी परिक्रमा लगाते हैं कि अगर वो ना मिली तो प्राण ही सूख जायेंगे । ईश्वर ने नर और नारी की शारीरिक संरचना भिन्न इसलिए बनाई कि यह संसार आगे बढ़ सके । परिवेश में घुलती अनैतिकता और बेशर्म आचरण ने पुरुषों के मानस में स्त्री को मात्र भोग्या ही निरूपित किया है । यह आज की बात नहीं है अपितु बरसों–बरस से चली आ रही एक लिजलिजी मानसिकता है जो दिन–प्रतिदिन फैलती जा रही है । हमारी सामाजिक मानसिकता भी स्वार्थी हो रही है । फलस्वरूप किसी भी मामले में हम स्वयं को शामिल नहीं करते और अपराधी में व्यापक सामाजिक स्तर पर डर नहीं बन पाता ।

सिर्फ कानून और प्रशासन के जरिये नहीं संभव है समाधान
आज जिस तरह हर हाथ में मोबाइल और इन्टरनेट की सुविधा है ऐसे में किसी एक कानून बनाकर हम इस अपराधिक प्रवृत्ति से किसी को मुक्त नहीं कर सकते । कभी फुटपाथ पर बिकने वाले अश्लील साहित्य से लेकर टीवी–वीसीआर–वीसीडी और सिनेमा के रास्ते तो, आज यह यू–ट्यूब तक पहुंच चुके हैं,देखा जाए तो समाज के रूप में हमारी यौन–प्रवृत्तियां बद से बदतर होती गई हैं । ऐसे में सिर्फ कानून–प्रशासन के जरिए बलात्कार–मुक्त समाज बनाने की कोशिश एक दिवास्वप्न ही है । दुनिया की कोई भी सरकार पोर्न, साहित्य और सिनेमा को बैन करने में न तो पूरी तरह सफल हो सकती है, और न ही बैन या सेंसरशिप इसका वास्तविक समाधान है । हमें स्वयं अपनी जीवन–शैली और दिनचर्या को भी समझने की जरूरत हो सकती है । हम और हमारे बच्चे क्या पढ़ते हैं, क्या देखते–सुनते हैं, क्या हमारे बच्चे किसी व्यसन का शिकार हो रहे हैं, हमारे घर और आस–पास का वातावरण कैसा है, इस सबके प्रति सचेत रहना होगा । इंटरनेट और सोशल मीडिया इत्यादि का विवेकपूर्ण और सुरक्षित ढंग से उपयोग सीखना और सिखाना भी इसी निजी सतर्कता का हिस्सा है ।

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दुनिया भर के शोधकर्ता, समाजशास्त्री, राजनेता, कानूनविद और प्रशासनिक अधिकारी का मानना है कि पोर्नोग्राफी बढ़ते यौन अपराधों का एक बड़ा कारण है । मोबाइल या इंटरनेट डाटा के एक बड़े हिस्से का प्रयोग मनोरंजन और अश्लील सामग्री देखने में हो रहा है जबकि इसका उद्देश्य सूचनात्मक ज्ञान बढ़ाना बताया गया था । विशेषज्ञों की मानें तो यह महिलाओं की स्थिति और स्वास्थ्य पर गहरा असर डाल रहा है । बलात्कार और यौन हिंसा की शिकार महिलाओं में रक्तचाप, हृदय रोग, नींद न आना, अवसाद (डिप्रेशन) और एंग्जाइटी जैसी समस्या का खतरा दो से तीन गुना ज्यादा बढ़ जाता है । पीडि़त महिलाओं और बच्चियों में बढ़ता मानसिक तनाव आत्महत्या की वजह बनता है । कुछ तो इस सदमे से आजीवन बाहर नहीं आ पातीं और उन्हें कई तरह की गंभीर मानसिक समस्याओं से गुजरना पड़ता है।

जिनके साथ यह घिनौनी हरकत होती है, उन्हें सामाजिक बहिष्कार भी झेलना पड़ता है । अभी कुछ दिन पहले एक पीडि़ता बलात्कारियों के द्वारा मरने से तो बच गई किन्तु, अपने घर और समाज के तानों की वजह से उसने आत्महत्या कर ली । आखिर क्या कुसूर था उसका ? एक तो हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि शारीरिक शोषण को ‘इज्जत का लूटना’ बता कर व्याख्यायित किया जाता है । आखिर यह ‘इज्जत’ सिर्फ लड़कियों की क्यों लुटती है ? इज्जत का बोझ इनके ऊपर ही क्यों लादा जाता है ? जरा सोचिए कि अगर इस इज्जत जैसे शब्द को इस दुष्कर्म से हटा दें तो शायद पीडि़ता जीने की हिम्मत दिखा पाए । किन्तु नहीं हमें यह लगता है कि अगर किसी बच्ची, युवती या महिला के साथ यह शारीरिक दुष्कर्म हुआ तो वह और उसका परिवार समाज में मुँह दिखाने के लायक नहीं रह गया और ऐसे में उनका वहिष्कार होता है और नौबत आत्महत्या तक की आ जाती है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए बलात्कार मुक्त समाज तो कल्पना से परे है क्योंकि यह एक ऐसी बीमारी है जिसे पूरी तरह से रोक पाना शायद असंभव है लेकिन इस बीमारी को महामारी बनने से रोका जा सकता है । महिला हिंसा और बलात्कार की बढ़ती घटनाओं पर लगाम तो लगाई जा सकती है । यह भी जरूरी है कि पीडि़ता को सामाजिक सहयोग और एक सम्मानजनक जीवन प्राप्त हो । सामाजिक बराबरी के सम्मान की वह भी हकदार है । बलात्कार के जख्म शरीर के साथ–साथ उसके मन से भी मिटने चाहिए ।

बदलने की जरुरत हमारी सामाजिक व्यवस्था को भी है क्योंकि, कड़े कानूनों के बावजूद एक बलात्कार पीडि़ता को सामाजिक न्याय और सम्मान से जीने का अधिकार नहीं मिलता । विकृत मानसिकता के व्यक्ति द्वारा उसकी अस्मिता को खÞत्म किया जाता है, इसमें उसका क्या दोष ? आज आधुनिक समाज में भी उसका आगे का जीवन अंधकारमय ही है उसे ही जीवन के हर मोड़ पर अपने चरित्र का प्रमाण–पत्र दिखाना पड़ता है । उसका तो हर मोड़ पर बलात्कार होता है – कभी अदालत में पेशी दर पेशी वकीलों के बेहूदा सवालों के रूप में, कभी समाज के द्वारा उसके अच्छा पहनने–ओढ़ने या सजने–संवरने के तौर–तरीकों पर शक करके ।

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (ग्ल्ँएब्) का कहना है कि जÞहरीली मर्दानगी की भावनाएँ युवाओं के जेहन में बहुत छोटी उम्र में ही बिठा दी जाती हैं । उन्हें ऐसी सामाजिक व्यवस्था का आदी बनाया जाता है जहां पुरुष ताकतवर और नियंत्रण रखने वाला होता है । पुरुषवादी मानसिकता महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों का बड़ा कारण है । महिला सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए हमें अपने विचारों में परिवर्तन लाना होगा । महिला सुरक्षा और लैंगिक समानता के बारे में जागरूकता बढ़ानी होगी । महिलाओं को खुद स्वयं को सशक्त बनाने की पहल करनी होगी । महिला सुरक्षा से संबंधित कÞानूनों का सख्ती से पालन भी एक महत्वपूर्ण कदम है लेकिन इन सबसे बढ़कर इस दिशा में समाज और सरकार दोनों को मिलकर कुछ ऐसे मनोवैज्ञानिक कदम उठाने की जरूरत है जिससे महिलाओं के प्रति समाज में स्वस्थ मानसिकता विकसित हो, तथा बलात्कार पीडि़त महिलाओं के प्रति हमारा नजरिया स्वस्थ व संतुलित हो सके ।

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जहाँ तक इस दुष्कर्म के लिए बने कानून का सवाल है, तो हमारे देश का कानून लचर है ये सब मानते हैं । अगर कानून सख्त हो तो शायद आपराधिक मामलों की संख्या बहुत कम हो जाती । कमजोर कानून और इंसाफ मिलने में देर यह भी बलात्कार की घटनाओं के लिए जिम्मेदार है । देखा जाये तो प्रशासन और पुलिस कभी कमजोर नही हैं, पर कमजोर हैं उनकी सोच और उनकी समस्या से लड़ने की उनकी इच्छा शक्ति । पैसे वाले जब आरोपों के घेरे में आते हैं तो प्रशासनिक शिथिलताएं उन्हें कटघरे के बजाय बचाव के गलियारे में ले जाती हैं । पुलिस की लाठी बेबस पर जितने जुल्म ढाती है सक्षम के सामने वही लाठी सहारा बन जाती है । अब तक कई मामलों में कमजोर कानून से गलियां ढूंढ़कर अपराधी के बच निकलने के कई किस्से सामने आ चुके हैं । निर्मला के अपराधी आज भी स्वतंत्र हैं क्योंकि वो रसूख वाले थे और यही वजह थी कि उनके लिए कोई सबूत ही नहीं मिला । अक्क्सर सबूत के अभाव में न्याय नहीं मिलता और अपराधी छूट जाता है । पिछले दिनों कई ऐसी घटनाएँ सामने आईं जिसमें समाज में ही ऐसे दुष्कर्मियों को मेल–मिलाप और पैसे के लेन–देन के साथ बचाते हुए देखा गया ।

हर बार जब भी ऐसी विभत्स घटना होती है तो हम बयानबाजी कर के चुप हो जाते हैं, प्रशासन यह कह कर शांत करा देता है कि जाँच चल रही है और पीडि़ता के माता पिता अदालतों और पुलिस विभाग के चक्कर लगा कर थक जाते हैं । हर कोई निर्भया के माता–पिता की तरह नहीं होता । उनके जुनून ने और अपनी बेटी के लिए न्याय पाने की अदम्य लालसा ने अंततः दोषियों को फासी के तख्त तक पहुँचा दिया । हम सभी जानते हैं कि कानून को हाथ में लेना अपराध है, परन्तु हैदराबाद की घटना के बाद जिस तरह पुलिस ने अपराधियों का एनकाउंटर किया था उसे सराहना ही मिली । तो क्या हम यह मानें कि अदालती प्रक्रिया से इस अपराध के लिए लोगों के अंदर का संयम समाप्त हो रहा है ? बहरहाल यह तो तय है कि इस अपराध के लिए सख्त कानून और त्वरित सजा की आवश्यकता है ।

एक जिम्मेदारी माता पिता की है कि वह अपने बेटे की परवरिश इस तरह करें कि वो महिलाओं का सम्मान करना सीखें ना कि भोग–उपभोग की वस्तु समझें और बेटियों को यह बताएँ कि बलात्कारी कहीं भी हो सकते हैं, किसी भी चेहरे के पीछे, किसी भी बाने में, किसी भी तेवर में, किसी भी सीरत में इसलिए, हमेशा उनकी नजरों को पढ़ना सीखो और स्वयं को ऐसे किसी भी अवांछित परिस्थिति में धैर्य और बुद्धि से निकलना सीखो । बलात्कार एक प्रवृति है । उसे चिन्हित करने, रोकने और उससे निपटने की दिशा में यदि हम सब एकमत होकर काम करें तो संभवतः इस प्रवृत्ति का नाश कर सकते हैं । उम्मीद करें कि निर्मला को जो न्याय अब तक नहीं मिल सका, वह न्याय भागीरथी ही नहीं उसकी जैसी सभी बेटियों को अवश्य मिले ।

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