प्रजातन्त्र के प्रहरी से
–डा. उमारानी सिंह
सोये बहुत, उठो अब सोने का
यह समय नहीं है।
यह अमूल्य क्षण, इसको खोने का
यह समय नहीं है।
आज अहिंसा को तजकर
हिंसा को है अपनाना है
छोडो मन की दुविधाएँ,
ढुलमुल कोमलताएँ त्यागो !
प्रजातन्त्र के प्रहरी जागो !!
रण का विगुल बजा कर में लेकर करवाल,
बढÞो आगे ! एक बार हूंकार करो,
दुश्मन पीछे मुडÞकर भागे !
प्रजातन्त्र के दीपक पर,
तुम शलभ-रूप बन कर प्रहरी !
हंस हंस कर मरना सीखो !
प्रजातन्त्र के प्रहरी जागो !!
सरिता की गति से बढÞे चरण,
बाधाओं से टकराते !
बन फूल, हृदय में लिये शूल,
तुम बढÞो मगर मुस्काते !
ऐसा फैला दो समर कि प्रहरी !
हो जाओ तुम सदा अमर !
स्वतन्त्रता की बेदी पर,
प्राणों को अर्पण कर दो,
प्रजातन्त्र के प्रहरी जागो !! |
आत्म मंथन
–रागिनी सिंह
अच्छा लगता है खिडÞकी के पास
खडÞे होकर विस्तृत आकाश को निहारना
धंुध और बादलों के बीच मेरे लिए
निहारने को है भी क्या –
यह तो एक बहाना है
अर्ंतर्मन के द्वन्द्व को छिपाने का
अपने को अलिप्त मानने पर भी
मन के गलियारे में ही भटकना
एक वियाबान जंगल सा हो गया है मन
रात के अंधेरे में जब नींद नहीं आती
खामोश आँखों के पीछे
अर्ंतद्वन्द्व भरा दिखता है मन
लगता ह ै मन क े सागर म ंे बहतु कछु छिपा है
पर उस सागर में गोता लगाएँ कैसे
अपनी ही सोच के दायरे में सिमटा ये मन
आत्मचिन्तन या आत्ममंथन -! |
माँ
माँ रो रही है,
अपनी सन्तानो पर।
वह कहती है,
मेरी आशा और विश्वास को
तुम सबों ने तोडा है,
आपस में लडकर,
सारे अंगों को झझकोरा है…..२।।
मै माँ हूँ,
तुम सब मेरी सन्तान,
फिर तुमने क्यो आवाज उर्ठाई
जात(पात की
क्यो भिन्नता दिखाई,
अधिकार की –
मेरी बात मानी होती तो
सबसे बडÞा सयाना होता
इस मधेश में ही नहीं,
नेपाल भर में
तू सबसे बडÞा होता ….२।।
आज इतिहास हंसता है मुझ पर
तेरी सन्तान कैसी है –
दूसरों पर भरोसा कर
भाई(भाई से अलग होता है।।
मै माँ हूँ
मेरी बात मान
अभी बहुत कुछ बाँकी है
कर दिखाने को,
बेडिÞया तोडÞनी हैं
अधिकार पाने की….२।।
मेरे आँचल के नीचे आजा
इसमे बडी शक्ति है
सपथ खा ले आज तू
मिलकर चलेंगे हम
माँ की लाज बचानी है तो
कुछ कर दिखाएंगे हम…२।।
कैलास दास/जनकपुर |
मेरे प्रभु, चरणों में, पहुँचे मेरी यह पर््रार्थना
दूर कर दो, मेरे हृदय की क्षुद्रता,
दो मुझे शक्ति सहज भाव से
अपने आनन्द और विषाद सहने की
दो मुझे शक्ति
जिससे मेरा अनुराग तेरी सेवा में सुफल हो।
प्रभु, ऐसी शक्ति दो मुझे
कि दीनजन से कभी विमुख न होऊँ मैं
ऐसी शक्ति मुझे दो, प्रभु,
कि उद्धत-उन्मत्त किसी शक्ति के आगे घुटने
न टेकूँ कभी।
यादों के झरोखे से
संकलनः मुकुन्द आचार्य
-गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर |