अपराध का संरक्षक राजनीति, ओली क्यों पहुँचे सिंहदरवार : अंशु झा
अंशु झा, काठमांडू। नेपाल की राजनीति इतनी गंदी हो गई है जो अपराधिक गतिविधि को अपने में समेटकर इस तरह धूमिल कर देती है कि बाद में यह अपरध था, पता भी नहीं चलता । हमारे देश में अपराध शब्द नया नहीं है । यह प्रक्रिया बार–बार होती रहती है क्योंकि नेपाली नेता का पेट इमानदारी से नहीं भर सकता है । घूस खाना, ठिक्कापट्टा घोटाला, बजेट विचलन, भष्टाचार यह सब पुरानी बातें है, जिसका समय–समय पर नवीकरण होता रहता है । मेरे विचार से अगर कानुनी रुप से प्रारम्भ से खंगाला जाय तो एक आध को छोडकर विभिन्न अपराध में सारे नेतालोग बिना फँसे नहीं रह पायेंगे । यह अपराधिक जाल इतना फैला हुवा है कि इसका छोड पकडना असम्भव है ।
फिलहाल नेपाल में एक अपराध उजागर हुआ है । वैसे तो यहां अपराध की खेती खूब लहलहाती रहती है । उच्च पद पर आसिन लोग मिल बांटकर खाते पिते हैं । इसी दौरान आजकल नकली भुटानी शरणार्थी बनाकर अमेरिका भेजने के ठगी मामले मे आहिस्ते से बडे बडे लोग फंसते जा रहे हैं । मैथिली में एक कहाबत है, “इचना पोठी चाल दै, रहुवा सिर ग्रह” । इस काण्ड के जाल में पूर्वप्रधानमन्त्री के बच्चे, सरकारी सचिव, पूर्व गृहमन्त्री का सलाहकार इत्यादि का एक गिरोह फंस गया है । आशा है अगर इस काण्ड पर पर्दा नहीं लगाया जायेगा तो और भी बडे बडे हस्ती इसमें फंस सकते हैं । परन्तु यहाँ तो राजनीति तथा सत्ता को वाइरस स्केनर के रुप में प्रयोग किया जाता है । कोई भी अपराध कर लो फिर अपने बडे बाप के पास जाओ, उसके तलवे को सहलाओ, वो पहुंच जायंगे सत्ता प्रमुख के पास अपराधी का सफाई देने । यही तो होता है यहाँ । इसमें आश्चर्य की बात ही नहीं है । ऐसे ही प्रकरण सब होते रहेंगे, पर्दा गिरता रहेगा । इसी प्रक्रिया से तो यहाँ की राज्यप्रणाली ग्रसित है ।
प्रजातन्त्र के बाद जितने भी दल आए सब तो एक ही चट्टे बट्टे के दिखाई दे रहे हैं । सत्ता के मुख्य खिलाडी फिलहाल कांग्रेस, एमाले और माओवादी हैं, सभी तो एक दूसरे से मिले ही हुए हैं । नकली शरणार्थी प्रकरण में जब टोप बहादुर रायमांझी फंसे, ओली जी दौडे दौडे सिंहदरबार जा के ही सांस लिए । इसे क्या कहा जाय ? सत्ता को ढाल बनाकर नेता, नेता के शुभेच्छुक लोग अपराधिक गतिविधि करने से तनिक भी नहीं हिचकिचाते ।
राजनीति को स्वच्छ रखने की जिम्मेदारी संसद तथा राजनीतिक दलों का होता है । अगर वही भष्ट और बेइमान हो जाय तो राजनीति दुषित ही रहेगी । जनता को सुशासन की प्रत्याभुति कभी नहीं होगी । जब राजनीति सिद्धान्तविहीन हो जाती है तो वो अपनी मूल्य, मान्यता तथा संस्कार का त्याग कर देती है । राजनीतिक पार्टियां लुटने में लग जाती है । नातावाद का बोलबाला हो जाता है तत्पश्चात सत्ता का महत्व घट जाता है । इसलिए सत्तासीन व्यक्तियों को अपने राज्य के प्रति कर्तव्यनिष्ठ, इमानदार होना बहुत ही आवश्यक होता है । भ्रष्ट और बेइमान के कारनामें पर पर्दा नहीं डाला जाय तो उसे सुधरने का अवसर मिलता है । इससे आने वाले संतति भी सीख लेते हैं और सही मार्ग पर ही चलते हैं ।