साहित्य से सृजनात्मक मानवता की ओर : मनीषा खटाटे

साहित्य मानवता की ओर सृजनात्मक यात्रा करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आ रहा हैं । साहित्य मानव संवाद, अनुभव, और भावनाओं का एक माध्यम होता है जो निरंतर बहती हुई जीवन धारा को समझने और अन्य लोगों के भी अनुभवों को समझने में मददतगार होता है। साहित्य के माध्यम से लोग अलग-अलग समाज, संस्कृति, और विचारों के साथ जुड़ सकते हैं, जिससे समाज में रहते हुएं मनुष्य आत्म – जागरूकता, समझदारी, और समरसता की ओर कदम बढ़ सकते हैं।



साहित्य के माध्यम से लिखी गई कविताएँ, कहानियाँ, नाटक, और नॉन-फिक्शन जैसी साहित्यिक विधाएं लोगों को आपसी संबंधों, समरसता, और विचारों के प्रति जागरूक करती हैं। साहित्य के माध्यम से लेखक और सर्जक अपने दृष्टिकोण और विचारों को साझा करते हैं, जिससे की हम मनुष्य सामाजिक बदलाव और मनुष्य से मानवता की ओर एक सफल तथा कल्याणकारी कदम बढ़ाते हैं।
साहित्यिक मूल्यों का सृजनात्मक मानवता के निर्माण कार्य में एक सक्रीय भूमिका भी हो सकती हैं। साहित्य मानव भावनाओं, विचारों, और अनुभवों को व्यक्त करने का एक माध्यम होता है, और यह मानव समाज को समझने और समर्थन करने में मदद कर सकता है। साहित्य के माध्यम से हम दूसरों के दर्द, खुशियाँ, संघर्ष, और सपनों को समझ सकते हैं, जिससे हमारी दृष्टि में सहयोग और समरसता बढ़ सकता है। साहित्य मानव जीवन की गहराइयों में दर्शकों को ले जाने का माध्यम भी बनता है और हमें सभी के साथ मिलकर एक सजीव और सजीव समाज की दिशा में मदद कर सकता है।
साहित्य से सृजनात्मक मानवता की ओर आग्रह किया जा सकता है क्योंकि साहित्य मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं, भावनाओं, और अनुभवों को दर्शाता है। सही साहित्य मानवता की अद्भुतता, समाजिक समृद्धि, और सहयोग की महत्वपूर्ण मान्यता को प्रोत्साहित कर सकता है। साहित्य के माध्यम से हम दूसरों के दर्द और आनंद को समझ सकते हैं, जिससे हमारी दृष्टि समस्त मानवता की कल्याण ओर बढ़ सकती है।
साहित्य सृजनात्मक मानवता की ओर बढ़ने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम हो सकता है। साहित्य मानव अनुभव, भावनाओं, और सोच को व्यक्त करने का एक महत्वपूर्ण तरीका होता है, और यह लोगों के बीच समझ, सहमति, और सहयोग की भावना को बढ़ावा देता है। साहित्य विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों के माध्यम से विविध जीवन अनुभवों को साझा करता है, जो मानवता के साथी धर्म की भावना को मजबूत करता है। साहित्य के माध्यम से हम दूसरों के दर्द और खुशियों को समझते हैं, जिससे हमारा सामाजिक संबंध और जागरूकता में सुधार हो सकता है।
सृजन और समन्वय की शक्ति –
मनुष्य अनेक रहस्यमय शक्तियां लेकर जन्म लेता हैं.जीवित रहने की ईच्छा ही मुख्यतः मनुष्य को चलायमान रखती हैं.यह शक्तियां अच्छाईयां और बुराईयों के द्वंद्व में संघर्ष करती हैं.महत्वपूर्ण बात यह हैं कि तुम मनुष्य बनने के लिये अच्छाई के साथ बुराईसे कितनी देर तक लड सकते हो.इस लडाई का अंतिम परिणाम तुम्हे जीवन के अमृत की तरफ धकेल देगा. जीवन का अमृत हैं,अंतःप्रेरणा और कल्पना शक्ति, जिसके आधार पर मनुष्य हमेशा ईश्वर होने का ख्वाँब देखता आ रहा हैं.इसी शक्तियों के बदौलत मनुष्य ने इस संसार को सृजनशील बनाया हैं.कल्पना शक्ति को प्रत्यक्ष,यथार्थ जगत में आकार दिया हैं.यथार्थ जगत को मनुष्य ने अद्भूत और रमणीय बनायां हैं.
जीवन के मिथक,दिव्यकथा,कहानीयाँ तथा संस्कृती के विकास साक्षी बनी हैं यह जल धाराएं.यह जीवन और भाषा के जलप्रपात के साथ बहते हैं.कल्पना शक्ति के जादुई घोडों पर सवांर होकर यथार्थ को भी चमत्कार से प्रकाशित करते हैं.यथार्थ जगत को अदृश्य तथा सुक्ष्म जगत के जोडने का कारण बनते हैं.
जगत के साथ मनुष्य अपना जीवन सहजता में नही जी पाता हैं.कुछ जटिलताओं को वह खुद महसुस नही करता हैं,तब तक उसे जाग्रती का अहसास नही होता हैं.जागरुकता के फुल वेदना की काँटो पर खिले हुए ही अच्छे लगते हैं.वेदना के फुलों की सुगंध हवां में तितली बनकर उडती हैं,तो वह कल्पनाओं की प्रेरणा बनकर वापिस लौटती हैं.क्या हमने कल्पना कि हैं कभी की काँटो के बिना फुल खिलने की?पुर्णतः यह असंभव हैं.उसी तरह अतःप्रेरणा या कल्पना शक्ति बिना वेदना के अपनी उडान नही भरती.
क्या कभी हमने कोशीश की हैं….?ओस की बुँद से जगत के सौंदर्य को देखने की …… ? नही ना ! तो फिर तुम्हे भोर का भी सपना देखने का कोई हक नही हैं.ओस की बुँद में सृष्टी को निहारा जा सकता हैं.अभी अभी मधुमक्खी ने फुल से रस चुरायां हैं,और तितली ने फुलों के रंग.मगर मुझे हर समय इन सभी सृष्टी के रहस्यों का अहसास एक ओस की बुँद ने करवायां हैं.
कल्पना और अतःप्रेरणा से हम सृष्टी के रहस्यों को समजने का प्रयास करते रहते हैं.सृष्टी की इन्ही रहस्यों में मैं अपने स्रष्टा होने की प्रेरणा को खोजती हुँ.और मेरी अंतरात्मा सृजन की भाषा,अर्थ ,प्रतिक और सौंदर्य तथा सत्यान्वेषन की ऊँची उडान भरते हैं.उनकी अपनी पगडंडी हैं,अपना आकाश हैं.
उस आकाश में सुरज उगता हैं तो सिर्फ मेरे शब्दों को प्रकाशित करने के लिये और रात को चाँद-सितारे भी उगते हैं तो मुझे शीतलता प्रदान करने के लिये.जब से मैं मेरे लिखे हुये शब्दों को सुरज से तो कभी चाँद -सितारों से प्रकाश मांगती हुँतो वे भी मुझे आधिकार से यह प्रश्न पुछ बैठते हैं कि तुम जो भी लिख रही हो,उसे तुम्हारे पहले कभी किसिने लिखा हैं?तुम जो किताब लिख रही हो,उसे कभी ईश्वर ने पढा हैं…….?इन प्रश्नों के जवाब में मैने कहां कि हां!मैं ईश्वर को पुछकर ही हर एक शब्द को लिखती हुँ.फिर इस संवाद को तोडते हुये,कहीं दुर से एक ध्वनी सुनायी देती हैं कि क्या इन किताबों को पढकर मनुष्य का जीवन बेहतर हुआ हैं?क्या ये किताबे मनुष्य की आत्मा का पुनरुत्थान करने में सक्षम या सफल रही हैं.क्या लेखकों को जिस कार्य के लिये इस दुनियां में भेजा था,वे उनका कार्य प्रामाणिकता से कर रहे हैं या दुनियादारी में उलझ रहे हैं ? अब वह अदृश्य ध्वनी धीरे धीरे एक प्रकाश में प्रकट हो रही थी.
मैं स्वयं में ही उत्तर खोज रही थी कि क्या सही अर्थो में मेरे लिखे शब्द मनुष्य ईश्वर की सत्ता का अनुभव कराते है ……? क्या वे मृत शरीर में प्राण फुँकते है …… ? क्या कभी इस बात का भी अगर अहसास होता हैं कि तुम एक चिटीं को अपनी ऊँगली से मसलते हो ,तब तुम सृष्टी के करोडो वर्षों के विकासक्रम को खंडीत कर रहे हो.यह अहसास तुम्हें मनुष्य बना देता हैं.जीवन का यह लांछन को,अपराध भाव को आत्मा के रुपांतरण की प्रक्रियां शामील कर सकते हो ! हमारा लिखने का उद्देश्य चेतना की ऊँचाईयाँ छुने के लिये मनुष्य को प्रेरित करना होता हैं.
साहित्य को सिर्फ आनंद और सौंदर्य का द्वार नही बनना चाहिये.ज्ञान अगर अनंत सत्ता में विलीन होता हैं तो आत्म प्रकाश का सुरज उदित होता हैं.मेरी किताबे भी मनुष्य जाती को प्रकाशित करने कार्य करेगी.मेरी किताबे सिर्फ किताबघर का हिस्सा नही बननी चाहिये.किताबघर में अक्सर देखा जाता हैं कि दुनियां के महान लेखक इतिहास एक का बेजान हिस्सा बनकर रह गये हैं.साहित्य ही चेतना को अंतर्धारा के रुप में बहना सिखाती हैं.साहित्य को ना ही इतिहास बनना हैं और ना ही इतिहास को अपनी धारा में अंतर्निहीत करना हैं.जब कहीं ऐसा होता हुआ देखोगे तो समझ लेना कि साहित्य अपनी अंतिम सांसे गिन रहा हैं.
मैं आज जो भी लिख पा रही हुँ , वह तो ईश्वर और सत्य की देन हैं.हर क्षण मेरी आत्मा में प्रार्थना ऊठती हैं कि मेरे लिखे शब्द जीवन को एक अमृत में तब्दिल करनेवाले बने ! वे सत्य की साधना का आधार बने ! और ईश्वर का प्रकाश बने !
मैं कैसे ईश्वर जैसी सोच सकती हूँ …….. ?
मैं हर रोज सुबह जैसे उठती हूँ, उसी तरह आज भी उठ गयी । उठने के बाद चाय पिने की एक पुरानी आदत हैं, वह भी मैंने पूरी कर ली. लिखने का समय हो गया तो मैं टेबुल (मेज) के पास पहुँची । समय का अर्थ मेरे लिये सिर्फ और सिर्फ वर्तमान हैं।क्योंकी वर्तमान समय में ही मैं ईश्वर और मेरी चेतना के साथ कुछ पल बिता सकती हूँ ।नही तो स्मृतियों की आँधी में, भूतकाल के तूफान से मैं बच नहीं सकती. लिखने के पहले मैं सोचती जरूर हूँ, मेरे अवचेतन में झाँकती जरूर हूँ कि वहाँ ईश्वर ने मेरे लिये कुछ संदेश तो नहीं भेजा हैं.
आज संदेश तो नहीं था परंतु कुछ तस्वीरें भेजी थी, अनंत ऊर्जा की ….
वह ईश्वर के होने की दास्तां बयां करते थे. मेरे मन में यूं ही यह ख्याल आया की यहीं वह उर्जा हैं जो हर जीव और वस्तु को जीने की और सृजन करने की प्रेरणा देती हैं. जिसने इस ब्रह्मांड का निर्माण किया हैं, वह ईश्वर किस तरह सोचता होगा…. ? या यह सोचना मेरे लिये सबसे बेहतर होगा की उस ईश्वर जैसी मैं कैसे सोच सकती हूँ …? उसके जैसा मैं कैसे व्यवहार कर सकती हूँ जो ईश्वर सृष्टि को चलाता हैं,सृष्टी के कण, कण में व्याप्त हैं । हर प्राणों का प्राण हैं ।उसे किस तरह मेरी आत्मा से प्रकट कर सकती हूँ।उसके विचारों को, भावना को और इच्छा को मैं ज्ञान, प्रेम तथा पंछियों की किलकिलाहट में, वृक्षों के पत्तों में या फुलों से मैं जान सकती हूँ ।झरनों के संगीत में मैं उसके गीत खोजती हूँ।ये विचार मेरे मन में ना जाने अचानक उठने लगते हैं. शायद ईश्वर हमेशा मेरे साथ ऐसे ही बातचीत करता रहता हैं।
ईश्वर के भेजे गये विचारों से ही जीवन का प्रवाह निरंतर बहता रहता हैं।उन्ही विचारों को पकडकर मनुष्य ने अपना संसार बनाया हैं. लेकिन विचार और कर्म की कुशलता के जोर पर मनुष्य ने ईश्वर बनने की कोशिश की हैं. हमें लगता हैं की हमने ईश्वर पर विजय पा ली हैं, हम उसके संदर्भ में बहुत कुछ जानते हैं, परंतु वह भी हमेशा मनुष्य की इस सोच-विचार को नकारता आया हैं ।
चलो ! यह मान लेते हैं कि मनुष्य उसके बारे में ऐसे सोचता हैं. परंतु वह ईश्वर भी मनुष्य के बारे में किस तरह सोचता होगा. तुम यकीन करो की वह सोचता हैं की तुम तुम्हारे कर्मों से और वचन से पहचाने जाओगे. जो कमजोर हैं, उन्हें और सताया जायेगा और जो सशक्त हैं उन्हें अंत में दंडित किया जायेगा. आखिरकार दोनों भी अपने कर्मों के लिये दोषी पाये जायेंगे. इसलिये हे मनुष्य तुम मुक्ति के लिये आनंद का मार्ग चुनो !
मैंने तुम्हें सृष्टि के साथ जीवन को जीने के लिये भेजा हैं.लेकीन एक और शक्ति मैंने तुम्हें दी हैं ,वह हैं सृजन ! सृजन करने से ही तुम आनंद को उपलब्ध हो सकते हों. मृत्यु के पश्चात, जब तुम मेरे पास आओगे तो तुम्हें यह एहसास होना चाहिये कि तुमने तुम्हारा जीवन पूरी तरह से जी लिया हैं ।
एक आवाज कहीं,दुर से या शून्य से मेरे कानों पर पड रही थी ।
क्या तुम मुझे सुन पा रहे हो ….?
मैंने ऐसी आवाजों पर विशेष ध्यान नहीं दिया. नदी किनारे मैं एक कँनव्हास पर सृष्टि का चित्र बनाने में व्यस्त थी । नदी के दूसरे छोर से फिर आवाज आयी कि आज तुम्हें मेरी बाते सुननी होगी. अगर तुम्हें लगता हैं कि तुम मुझसे भी बडा स्रष्टा हैं । तुम मेरे साथ एक दांव खेलो. जो जितेगा वह ईश्वर कहलायेगा……मैने उस आदमी की बातों तर ध्यान नहीं दिया।शायद वह मुझसे भी बडा पागल हैं.मै अपना चित्र बनाने लगी।
यह खेल तुम्हें खेलना ही होगा. तुम चाहो या ना चाहो ।तुम अपना निर्णय नहीं ले सकते और खेल को बीच में अधुरा छोडकर भी नहीं जा सकते ।तुम इस गलतफहमी में भी मत रहो की तुम खेल नहीं रहे हो तो खेल खत्म हो जायेगा ।इस खेल का असली मजा यही हैं कि तुम ना खेलते हुये भी इस खेल के हिस्सा हो ।
मैंने अब भी उस पागल की तरफ ना देखते हुये लाल रंग को ब्रश पर लिया और कँनव्हास पर जोर से पटका…..
तुम्हारे लिये यह खेल कई वर्षों का हो सकता हैं ।मगर मेरे लिये यह सदियों पुराणा हैं या कुछ क्षणों का भी कह सकते हों।तुम जिन आयामों में इस खेल को खेल रहे हो,मेरे लिये उन्हे छोडकर दुसरे भी आयाम हैं ।तुम्हारे और मेरे आयाम अलग,अलग हैं।ऐसा भी हो सकता हैं कि तुम अपना खेल खेलो और मैं अपना….तुम्हारी अपनी मर्जी….क्योंकि मैने तुम्हे आधा पशु और आधा परमात्मा बनाया हैं…..!
इस आधे पशुवाले सिद्धांत को कुछ इस तरह मूल्यवान बनाना सिखते हैं । मिट्टी के बर्तन को टुटने पर उसे अगर मिट्टी से जोडने का प्रयास करोगे तो वह अपना भी मूल्य खो देगा.परंतु उसे अगर सुवर्ण से जोडा जायेगा तो वह सोने की मौजुदगी में मूल्यवान बन जायेगा…….टुटने बाद मूल्यवान बनना हैं किसी अमूल्य के साथ जूड जाओ ।तोडते रहना तुम्हारा स्वभाव हैं और मेरा स्वभाव जोडने का हैं।इस खेल में हम दोनों भी थकते नही हैं……यह खेल आरंभ से चला आ रहा हैं…..कई किरदार या खिलाडी बदल गये,परतु खेल अनादी काल से चला आ रहा हैं.नियम भी वही हैं,लेकिन कौन जितेगा पता नही चलता हैं…..
मैंने पिले रंग को ज्यादातर कँनव्हास पर उँडेला था……
मेरा अहंकार और गुस्सा रंगो के द्वारा कँनव्हास पर फेंका जा रहा था।क्योंकि मैं भी मेरे खेल का निर्माता हुँ.मैं भी जो बनाता हुँ,उसपर मेरा पूर्ण आधिकार हैं….मै पूर्ण रुपेन स्वतंत्र हूँ और मेरा अस्तित्त्व मेरे विचारों की देन हैं.और तूम प्राचीन,पुरातन खंडहर की तरह लगते हो,जो कभी भी टुट सकता हैं.
देखो ! आँखे खोलकर देखो ! तुम्हारे सामने ही मैं मेरे बनाये हुये चित्र को तोड सकता हुँ.क्या तुम ऐसा कर पाओगे कभी ? नही ना ! फिर इतनी बकबक क्यों करते हो…..
वह पागल आदमी इस बात पर मौन रहा….
लेकिन कुछ क्षणों के बाद अचानक बारिश शुरु हो गयी और उस नदी में बाढ आ गयी…उस बाढ में उस चित्रकार का चित्र टुटकर बह तो गया परंतु वह पागल आदमी उस चित्रकार को बचाने में सफल हो गया
हम आयामों की दुनियां में जीते हैं….हर एक अस्त्तित्त्व के आयाम अलग-अलग हैं ।हर एक व्यक्ति अपना,अपना आयाम चुनकर अपनी आत्मयात्रा पर निकल पडता हैं….इस आत्मज्ञान को कहानीयों द्वारा उपलब्ध होकर मैं अपनी आत्मयात्रा पर निकल पडी हूँ……यह आत्मयात्रा एक के साथ हैं….फिर भी अनेकों में व्याप्त होती हैं….किसी के लिये यह एक क्षण की हैं तो किसी के लिये यह अनंत जन्मों की यात्रा हैं…….

