जातीय कूप मंडूक : अजय कुमार झा
अजयकुमार झा, हिमालिनी अंक मई 2924 । शिक्षा में की गई राष्ट्रीय लापरवाही के परिणामस्वरूप शिक्षित और संपन्न होकर भी अधिकांश लोग दिखावे के अहंकार तथा आधुनिकता की बहार में अपनी संस्कृति को लात मारने और अपने धर्म का उपहास करने में आनंद का मजा ले रहे हैं । इसका परिणाम यह है कि आज उन आधुनिक परिवारों की लड़कियां विधर्मियों के द्वारा वर्षो पहले षडयंत्र पूर्वक बिछाए गए अनंत जेहाद के जाल में बुरी तरह फसती जा रही हैं । भीषण अत्याचार और क्रूरतम व्यवहार का शिकार बनती जा रही हैं और समाज मौन होकर मजा ले रहा है । हमारे बच्चे बरबाद हो रहे हैं । लड़के नशेड़ी होते जा रहे हैं । वे जीवन की मौलिकता से कोसाें दूर होते जा रहे हैं । ब्रह्मांड की सर्वोत्तम उपलब्धि यह जीवन उनके लिए बोझ बनती जा रही है । पारिवारिक वातावरण को बदतर हालात में पहुंचा दिया गया है । सामाजिक विभेद चरमोत्कर्ष पर है । संस्कृति में भीषण विकृति पैदा कर दी गई है । जीवन को धारण करने का सूत्र बतानेवाला धर्म आज धार्मिक उन्माद और हिंसा का पर्याय बनता जा रहा है । प्रेम के गीत गानेवाला मनुष्य आज इष्र्या, घृणा और बेइमानी का ताज लिए घूम रहा है । तोड़, फोड़, आगजनी, षडयंत्र, हत्या, हिंसा, बलात्कार, ठगी, धोखेबाजी और चोर प्रवृति यत्र–तत्र–सर्वत्र विराजमान हैं । और उपरोक्त सभी कुसंस्कार आधुनिक शिक्षा और पाठ्यक्रम का उपहार है । जो खुद कुसंस्कार और क्षुद्रता का शिकार है, वह हमे ज्ञान देकर समझदार बनाना चाहते हैं । और हम अपनी मूढ़ता के कारण उन्हें गुरु मानकर गौरवान्वित हो रहे हैं ।
हम अपनी कमजोरी को छुपाते हुए सदा दूसरे को दोषी मानते आए हैं । विश्व विख्यात व्यक्ति अथवा सितारों को अपना आदर्श मानना मानवीय स्वभाव है । हमारे प्रेरक व्यक्तित्व भी हमें उदाहरण में उसी फिल्मी सितारों से तुलना करके आगे बढ़ने के लिए अभिप्रेरित करते रहते हैं । अब वह सितारा आवारा मानसिकता से ग्रस्त फिल्मी हीरो – हीरोइन जैसे नसेड़ी और चरित्रहीन ही क्यों न हो । वैसे इन जैसों को मशहूर बनानेवाले टीभी धारावाहिक और हम दर्शक लोग भी दोषी हैं । ध्यान रहे ! स्टार के पीछे सब भागता है, वो लड़का हो या लड़की । वो आपका हो या मेरा ।
जहां दस हजार अंग्रेज करोड़ों हिंदुओं को गुलाम बना डाला । मुठ्ठी भर तुर्क करोड़ों हिंदुओं को गाजर मूली की तरह काट डाला । जो भी विदेशी आया; हिंदुओं को कुचलकर चला गया । आखिर ऐसा हुआ क्यों ? कहीं हमारी मानसिकता बिकाऊ और नपुंसक तो नहीं ? कहीं जातीय सर्वोच्चता के अहंकार और अपनों के साथ सौतेला व्यवहार हमारी गुलामी का कारण तो नहीं ? वास्तव में जाति भेद के नारकीय अहंकार में डूबे हिंदु को सुरक्षित रहने का कोई अधिकार नहीं है । अरे, क्या गजब है यहां ! हमारे तथाकथित शंकराचार्य ही जातपात के मुख्य संरक्षक और पृष्ठपोषक बने हुए हैं । ध्यान रहे ! जिसे आत्मा का भी ज्ञान न हो, वो हमारा जीवन दर्शक कैसे हो सकता है ? क्या आत्मा की जाति होती है ? क्या आत्मा का लिंग होता है ? पूछा जाय इन शंकराचार्यों से । देह पे अटका हुआ व्यक्ति पशु के समान होता है । और पशु गुलामी के ही लायक होता है । अतः जो भी धार्मिक अगुवा, गुरू, संत, आचार्य जाति के पृष्ठपोषक दिखाई दे उसका सीधा प्रतिकार किया जाय । उसको कड़ा दण्ड दिया जाय । उसे अधिकार विहीन कर समाज से बहिष्कृत किया जाय । इसके बाद अपने बच्चों पर अंकुश लगाने की सोचे । रोग के जड़ को नष्ट किए बिना पत्तों पर आक्रोशित होने से अपना ही क्षति होगा ।
एक तो जन्म से जातीय श्रेष्ठता का वकालत करने वाले लोग निहायत दुष्ट और समाजद्रोही हैं । उनकी मुर्खता का शिकार होने के कारण ही सनातन हिन्दू संस्कृति दिन प्रति दिन गर्त में जा रही है । यह धरती, आकाश, जल, सूर्य, हवा किसी जाति विशेष के बाप की धरोहर नहीं है । जब यह पंचभूत किसी भी प्राणी से वैर भाव नहीं रखता है तो इस ब्रह्माण्ड में कीड़े के समान दिखनेवाला मनुष्य को किसी अन्य से जन्मना श्रेष्ठता का अधिकार किसने दिया ? इन मूढ़ों को वर्ण परिवर्तन के ऐतिहासिक वैदिक शास्त्रीय प्रमाण का पता भी नहीं है ।
सत्यवादी राजा हरीश चंद्र चंडाल हो गए उनका पुत्र बिक कर सेवक शुद्र हो गया पुनः दाम देकर क्षत्रिय हो गया । इसका क्या मतलब होता है ? वैदिक वर्ण व्यवस्था में शास्त्रीय आधार जहाँ योग्यता गुणों के आधार पर वर्ण परिवर्तन विधान था । इतिहास में ऐसे वर्ण परिवर्तन के अनेकों उदहारण हैंः जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के पूर्वज सम्राट रघु का प्रवृद्ध नामक एक पुत्र को नीच कर्मों के कारण उसे राक्षस घोषित किया गया था । श्री राम के पूर्वज महाराजा सगर के असमंजस नामक पुत्र के अन्यायपूर्ण कर्मों के कारण क्षत्रिय से शूद्र घोषित कर दिया गया था तथा राज्य से बहिष्कृत कर दिया गया था । लंका का राजा रावण पुलस्त्य ऋषि के वंश में ब्रह्मऋषि ऋषि विश्वश्रवाके वंश में उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मण था परन्तु बाद में अन्यायी और दुराचारी होने के कारण उसे राक्षस घोषित किया गया । रावण की जायज व नाजायज संतानें राक्षस ही रहे । सूर्यवंशी और चंद्रवंशी क्षत्रियों के मूल पुरुष सातवें मनु वैवस्त एक चक्रवर्ती राजा थे, उनके पुत्र पृषध्र को शूद्र घोषित कर दिया गया था । क्षत्रिय राजा त्रिशंकु क्षत्रिय से शुद्र चाण्डाल बना । पौन्ड्रक, औद्रु, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पहल्व, चीन, किरात, दरद, खश, मेकल, लाट, कान्वशिरा, शौंडिक, दार्व, चौर, शबर जातियों के लोग क्षत्रिय हुआ करते थे परन्तु क्षत्रिय कर्त्तव्यों का त्याग करने के कारण ये शूद्र कोटि में चले गए । ऐतरेय ऋषि दास के पुत्र थे, परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की । ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे, जुआरी और हीन चरित्र भी थे, परन्तु बाद में उन्होंने वेदाध्ययन करने कारण ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया । (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे कर्मो से ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए । गौत्तम ऋषी ने सत्यकाम को अपना शिष्य बना कर ब्राह्मण घोषित किया । राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । (विष्णु पुराण ४.१.१४) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए । पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया (विष्णु पुराण ४.१.१३) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया । (विष्णु पुराण ४.२.२) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए । विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने । हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए । (विष्णु पुराण ४.३.५) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए । इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण है । मातंग ऋषि चांडाल पुत्र से गुण और ज्ञान प्राप्त कर ब्राह्मण बने ।
सूर्यवंशीय सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र और उनकी सन्तान की कथा वर्ण परिवर्तन और कर्म आधारित जातिय व्यवस्था का सबसे बड़ा शास्त्रीय प्रमाण है ।
राजा रघु का पुत्र दुर्ग‘णों वश प्रवृद्ध राक्षस हुआ । डाकू राक्षस से वाल्मीकि जी राम नाम भक्ति से वेदांत को पार कर ब्राह्मण हुए । त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे । विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया । विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया । विदुर दासी पुत्र थे, तथापि वे ब्राह्मण हुए । वेदों में ‘शूद्र’ शब्द लगभग बीस बार आया है, परंतु कहीं भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है । और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने, उन्हें वेदाध्ययन से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है ।
ध्यान रखें ! कस्यप ऋषि को ब्राह्मण माना जाता है किन्तु उनके एक स्त्री अदिति से देवता कहलाए और दूसरी स्त्री दिति से जन्में पुत्र असुर कहलाए । कश्यप के पुत्र देवता में सूर्य, सूर्य संग उषा की संतान का वंश श्री राम वाला सूर्य वंश कहलाया जो की राज काज कार्य करने से क्षत्रिय कहलाए । अन्य स्त्रियों से पुत्र अलग अलग गुण कारण अलग अलग वर्ण के कहलाए । जबकि पिता ब्रह्म कर्म वाला ब्राह्मण है जिनसे पैदा तो मनुष्य हुए किन्तु गुणों के कारण वर्ण व अगली गति प्राप्त हुई । महाभारत काल में क्षत्रिय अग्रसेन जी महाराज के पुत्र व्यापारी हो वैश्य हो अग्रवाल कहलाने लगे । ब्रह्मज्ञान का परम सूत्र के द्रष्टा विश्वामित्र राज ऋषि से ब्रह्म ऋषि बने । मां गायत्री और गायत्री मंत्र को हृदय में प्राप्त करने वाले प्रथम द्रष्टा हुए । चंद्रगुप्त मौर्य शुद्र से क्षत्रिय वर्ण को प्राप्त हुए । गागरोन रियासत के राजा पृथ्वी सिंह जो संत पीपा हुए उन्होंने अपने अनुयायी क्षत्रियो को वैश्य दर्जी बनाया वे लोग राजपूत क्षत्रिय से अब वैश्य दर्जी है । ज्ञातव्य हो ! वैदिक काल में हर परिवार में एक पुत्र सेना में जाता जो क्षत्रिय वर्ण को धारण करता वही परिवार का पहला पुत्र उसी पिता के वर्ण(धारण किये आजीवका कर्म) कार्य को जारी रखता उसी वर्ण में रहता । सहस्त्र बाहु के द्दद्दवे वंशज नरेश भाव और सार महर्षि परसुराम से बचने हिंगलाज की शरण हो कर क्षत्रिय से वैश्य वर्ण होकर वस्त्र निर्माण रंगाई–छपाई कार्य करने लगे । दुर्योधन से पांडव जुए में हार कर शुद्र कार्य करने वाले दास हो गए थे किंतु कर्म गुणों कारण पुनः राज कार्य करके क्षत्रिय हुए । अज्ञात काल में ब्राह्मण भी हुए । अज्ञात वास व्यतीत कर फिर क्षत्रिय रूप में प्रकट हुए । यदि सदा लिए अज्ञात वास देता तो, आज उनके वंशजो को हम आदिवासी या देहाती ही कहते ।
परशुराम जी क्षत्रिय बन रहे थे । कभी क्षत्रिय तो कभी ब्राह्मण किन्तु राम सम्मुख आने पर अहंकार व क्रोध को त्याग कर ब्राह्मण हुए । गोबर में जन्में गौरखनाथ जी महान संत बनें ।
इस अनंत प्रकृति में मानव भौतिक, मनोवैज्ञानिक और जैविक प्रक्रियाओं के द्वारा अपने लिए एक कृत्रिम परिवेश तैयार करता है, ठीक उसी प्रकार जैसे मकड़ी जाला बुनती है । ये प्रक्रियाएँ पारस्परिक भी हैं, एक पक्षीय भी हैं और बहुपक्षीय भी । ये प्रक्रिया क्रमिक और निरन्तर चलती रहती हैं । व्यक्ति और व्यक्ति, व्यक्ति और समूह, एक समूह और दूसरा समूह, एक संस्कृति और दूसरी संस्कृति, एक प्रौद्योगिकी और दूसरी प्रौद्योगिकी, विचार प्रणाली, विश्वास– प्रणाली और मूल्य प्रणाली–इन सबकी भौतिक, मनोवैज्ञानिक, और जैविक– प्रक्रियाएँ उसी प्रकार जुड़ी हुई हैं, जैसे जलाशय में एक लहर दूसरी लहर से जुड़ी रहती है । एक प्रक्रिया का प्रभाव दूसरी प्रक्रिया पर तुरन्त पड़ता है ।
जातियां जानवरों की होती है मनुष्यो की नही । वेद बार बार कहते है मनुष्य बनो अर्थात वेद पढ़ कर मनुष्य होंगे फिर जीवन यापन कर्म चुनेंगे वही उनका वर्ण निर्धारित होगा । जन्म से सब शुद्र ही होते है । अंतःकरण से स्वीकृत जीवनोपार्जन कर्म ही उनका वर्ण होता है । मनुष्य का मनुष्य से सम्बन्ध होता है ।
वास्तव में वैदिक वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित है, न कि जन्म आधारित तथा यह व्यवस्था पक्षपात रहित है, स्वतः स्फूर्त स्वीकृत गुण कर्म आधार पर निर्धारित किया गया न्याय संगत वर्ण है । सोने का काम करनेवाले को हम लोहार नहीं कहते, उन्हें सोनार या सोनी कहते हैं । वैसे ही जो लोहे का काम करे उसे लोहार कहेंगे सोनी नहीं । पुरोहित का कार्य करते हैं उन्हें पुरोहित ही कहा जाएगा । यह उसके कर्म के पहचान का हिस्सा है । जो उसके कर्म में कुशलता के लिए संबल का काम करता है । कर्म ही जीवन है, और स्वांतः सुखाय कर्म से चेतना जागृत होने के साथ साथ ऐश्वर्य का बोध भी सहज हो जाता है । जो एक मानव के लिए सर्वोत्तम उपलब्धि हासिल करना है ।
कुछ लोग समझते हैं कि सबसे बडा सत्य सिर्फ और सिर्फ उनके ही पास है । वे हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या अन्य किसी भी धर्म, संस्कृति, परंपरा, समुदाय, दल या संगठन के प्रवक्ता हो सकते हैं । वास्तविकता यह है कि इन लोगों की एक सीमा है, वे नहीं समझ सकते कि सत्य कितना व्यापक है । सत्य किसी एक परिधि में समा ही नहीं सकता । यह एक प्रकार खुश रहने तथा अपनी अहंकार को पुष्ट रखने का मन की एक काल्पनिक अवस्था है । जिसमें मनुष्य कल्पना करता है कि, “संसार में सभी लोग मेरी तरह से ही सोचने लग जाए तो संसार में सुख शांति हो सकती है । सारे लोग एक ही धर्म के अनुयायी हो जाए, मेरा वाला धर्मग्रंथ तो ईश्वर की वाणी है । वही एक मात्र सच है, बाकी को इस रास्ते पर लाना ही हमारा अंतिम लक्ष्य होना चाहिए । “परंतु, वो यह नहीं सोच पाते कि इसी तरह दूसरे लोग भी सोचते होंगे कि, “उनके अनुसार सब व्यवहार करना सीख ले तो जीवन में सुख ही सुख प्राप्त होगा ।” कार्ल माक्र्स ने यही सोचा था न ! उनके विचार से मानवता को क्या मिला ? क्या परम् आनन्द, परम् ऐश्वर्य प्राप्त हुआ ? भौतिकता के सफलता में आध्यात्मिक आनंद की क्षणिक अनुभूति भी मिली ? क्या हिंसा, हत्या, षडयंत्र, युद्ध, भ्रष्टाचारी, बेइमानी, लोभ, इष्र्या, लूट खसोट जैसे दुर्ग‘णों में कमी आई ? सारे राजनैतिक विचारधारा वाले भी अपने–अपने परिवेश वाले विचारकों, दार्शनिकों के विचार को परम सत्य मान कर इसी प्रकार सोचते हैं । सारे लोग इस या उस दार्शनिक के कहे अनुसार चलें तो दुनियां बदल जाय या वर्ग विहीन समाज बन जाय । लेकिन आज तक एक कदम भी शुद्ध रूप में आगे क्यों नहीं बढ़ पाए ?
वास्तव में यह उस विचार– समूह का यूटोपिया होता है । इस यूटोपिया के लिये सेना बनायी जाती हैं, संगठन बनाए जाते हैं, ब्रेनवाश किया जाता है, बालमन को दीक्षित किया जाता है, आस्था की प्रतिज्ञा कराई जाती है, दिन रात प्रचार किया जाता है । जिससे मास कंससनेस को प्रभावित कर अपनी विचारधारा को थोपी जाती है । माओवाद, नक्सलवाद, लेलिनवाद, समाजवाद, साम्यवाद के साथ साथ अद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, परमाद्वैतवाद, परंतु महावीर वर्धमान ने अनेकांत का सत्य उजागर किया, जिसे उन्होंने, ‘स्याद्वाद’ अर्थात् (यह ही नहीं, यह भी) । अर्थात् व्यापक सत्य तो विराट और असीम है, हम अपनी क्षुद्रता के कारण उसे अपने दायरे में बांधने का प्रयास करते हैं । यहीं से खिंचाव और तनाव का जन्म होता है, जो महा विनाश का कारण बनता है ।
जो ईश्वर से एकत्व प्राप्त किए हुए, महात्मा, ज्ञानी, सज्जन पुरुष, साधू, संत, अच्छे लोग है वो कमाई पद्धति या जाती देखने के बजाय, भावो को देखते है । मनुष्य में जन्मना भेद, जातिभेद, भेदभाव, ऊंच नीच, अनुलोम विलोम, जन्मना भेदभाव करने वाला ही वास्तव में अज्ञानी और जातीय जानवर है । और आज इस तरह के जानवरों का बहुत बड़ा देशी विदेशी झुण्ड नेपाल के दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में तांडव करते दिख जाएंगे । हिंदुओं में भेद बुद्धि का विकास कराना, नफरत फैलाना, सहज सामाजिक शांति को अशांति में बदलना, झूठी दिलाशाओं के लिए अच्छा खासा जीवन शैली को तथाकथित विद्रोह के नाम पर आतंकित करना । सामाजिक माधुर्य को दंगाई मानसिकता में बदलना । लोगों को गुमराह करके अपना मकसद पूरा करना । बस, इनका अंतिम सोच इससे आगे देख ही नहीं पाता । उन्हें बोध ही नहीं है कि हम सब इश्वर की ही सन्तान हैं, सब में परमात्मा है । नीचा, छोटा कोई नही । समता ही परमात्मा से एकत्व का परम् योग है ।