अध्यात्म
पवजन्म का कर्म फल
रवीन्द्र झा शंकर’:भगवान व्यास सभी जीवों की गति तथा भाषा को समझते थे । एक बार जब वे कहीं जा रहे थे, तब रास्ते में उन्होंने एक कीडÞे को बडÞे वेग से भागते हुए देखा । उन्होंने कृपा करके कीडÞे की बोली में ही उससे इस प्रकार भागने का कारण पूछा । कीडÞे ने कहा- विश्वबन्ध मुनीश्वर ! कोई विशाल रथ इधर ही आ रहा है । कहीं वह आकर मुझे कुचल न डाले, इसलिए तेजी से भागा जा रहा हूँ ।’ इस पर व्यासदेव ने कहा- ‘मनुष्य यदि मृत्यु से डरे तो उचित है, पर तुम कीट को इस शरीर के छूटने का इतना भय क्यों है –
इस पर कीडÞे ने कहा- ‘महर्षर् ! मुझे मृत्यु से किसी प्रकार का भय नहीं है । भय इस बात का है कि इस कुत्सित कीटयोनि से भी अधम दूसरी लाखों योनियाँ हैं । मैं कहीं मरकर उन योनियों में न चला जाऊँ ।’
व्यासजी ने कहा- ‘कीट ! तुम भय न करो । मैं जब तक तुम्हे ब्रम्ह शरीर में न पहुंचा दूंगा, तब तक सभी योनियों से शीघ्र ही छुटकारा दिलाता रहूँगा ।’ व्यास जी के यों कहने पर वह कीडÞा पुनः मार्ग में लौट आया और रथ के पहिये से दबकर उसने प्राण त्याग दिए । तत्पश्चात् वह कौवे और सियार आदि योनियों में जब-जब उत्पन्न हुआ, तब तब व्यास जी ने जाकर उसके पर्ूवजन्म का स्मरण करा दिया ।
इस तरह वह क्रमशः साही, गोहा, मृग, पंक्षी, चण्डाल, शूद्र और वैश्य की योनियों में जन्म लेता हुआ क्षत्रिय जाति में उत्पन्न हुआ । उस में भी भगवान व्यास ने उसे दर्शन दिया । वहाँ वह प्रजापालन रूप धर्म का आचरण करते हुए थोडÞे ही दिनों में रणभूमि में शरीर त्याग कर ब्राहृमण योनि में उत्पन्न हुआ । जब वह पाँच वर्षका हुआ, तभी व्यास देव ने जाकर कान में सारस्वत मन्त्र का उपदेश कर दिया । उसके प्रभाव से बिना ही पढÞे उसे सम्पर्ूण्ा वेद, शास्त्र और धर्म का स्मरण हो आया । पुनः भगवान व्यासदेव ने उसे आज्ञा दी कि वह कार्तिकेय के क्षेत्र में जाकर नन्दभद्र को आश्वासन दे । नन्दभद्र को यह शंका थी कि पापी मनुष्य भी सुखी क्यों देखे जाते हैं – इसी क्लेश से घबराकर वे बहूदक तर्ीथपर तप कर रहे थे । नन्दभद्र की शंका का समाधान करते हुए उस सिद्ध सारस्वत बालक ने कहा- ‘पापी मनुष्य सुखी क्यों रहते हैं, यह तो बडÞा स्पष्ट है । जिन्होंने पर्ूवजन्म में तामस भाव से दान किया है । उन्होंने इस जन्म में उसी दान का फल प्राप्त किया है, परन्तु तामस भाव से जो धर्म किया जाता है, उसके फलस्वरूप लोगों का धर्म में अनुराग नहीं होता और फलतः वे मनुष्य पुण्य-फल को भोग कर अपने तामसिक भाव के कारण नरक में ही जाते हैं । इस में सन्देह नहीं है ।
इस विषय में मार्कण्डेयजी की कही ये बातें र्सवदा ध्यान में रखी जानी चाहिए- एक मनुष्य ऐसा है, जिसके लिए इस लोक में तो सुख का भोग सुलभ है । परन्तु परलोक में नहीं । दूसरा ऐसा है, जिसके लिए परलोक में सुख का भोग सुलभ है, किन्तु इस लोक में नहीं । तीसरा ऐसा है, जो इस लोक और पर लोग में दोनों ही जगह सुख प्राप्त करता है और चौथा ऐसा है, जिसे न यहीं सुख है और न परलोक में ही । जिस का पर्ूवजन्म का किया पुण्य शेष है, उसको भोगते हुए परम सुख में भूला हुआ जो व्यक्ति नूतन पुण्य का उपार्जन नहीं करता, उस मन्दबुद्धि एवं भाग्यहीन मानव को प्राप्त हुआ, वह सुख केवल इसी लोकतक रहेगा । जिसका पर्ूवजन्मोपार्जित पुण्य तो नहीं है किन्तु वह तपस्या करके नूतन पुण्य का उपार्जन कर रहा है । उस बुद्धिमान को परलोक में अवश्य ही विशाल सुख का भोग उपस्थित होगा । जिसका पहले का किया हुआ पुण्य वर्तमान में सुखद हो रहा है और जो तप द्वारा नूतन पुण्य का उपार्जन कर रहा है, ऐसा बुद्धिमान तो कोई-कोई ही होता है, जिसे इहलोक-परलोक दोनों में सुख मिलता है । जिसका पहले का भी पुण्य नहीं है और जो यहाँ भी पुण्य का उपार्जन नहीं करता । ऐसे मनुष्यों को न इस लोक में सुख मिलता है और न परलोक में ही ।
इस प्रकार नन्दभद्र को समाहित कर बालक ने अपना वृतान्त भी बतलाया । तत्पश्चात् वह सात दिनों तक निराहार रहकर र्सर्ूय मन्त्र का जाप करता रहा और वही बहूदक तर्ीथ में उसने उस शरीर को छोडÞ दिया । नन्दभद्र ने विधिपर्ूवक उसके भी शव का दाहासंस्कार कराया । उसकी अस्थियाँ वहीं सागर में डÞाल दी गई औ दूसरे जन्म में वह मैत्रेय नामक श्रेष्ठ मुनि हुआ । मैत्रेय जी ने व्यासजी के पिता परासर से विष्णु पुराण तथा वृहत् पराशर होरा, होरा शास्त्र नामक विशाल ज्योतिसग्रन्थ का अध्ययन किया था ।