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नेपाल में राजा की सक्रियता से चिंतित राजनैतिक दल

काठमांडू, 13 मार्च । नेपाल में हाल के दिनों में पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह की सक्रियता और राजावादी दलों के आंदोलनों ने देश के राजनीतिक परिदृश्य में एक नया मोड़ ला दिया है। प्रजातंत्र दिवस के अवसर पर पूर्व राजा द्वारा जारी संदेश, “अगर देश को बचाना है तो मेरा साथ दें, त्याग को कमजोरी न समझा जाए,” ने राजावादी समर्थकों में जोश भर दिया है। राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (राप्रपा), राप्रपा नेपाल जैसे दलों ने इस संदेश को न केवल गंभीरता से लिया, बल्कि सड़क आंदोलन और समर्थन सभाओं का आयोजन भी किया। इन सभाओं में उन्होंने जोर-शोर से नारा लगाया, “देश में राजा को वापस लाना ही होगा, वरना देश डूब जाएगा।”
पोखरा में करीब एक महीने तक रहने के बाद लौटे पूर्व राजा ज्ञानेंद्र के सम्मान में फाल्गुन 25 गते इन दलों और अन्य छोटे-मोटे राजावादी संगठनों ने न केवल अभिनंदन समारोह आयोजित किया, बल्कि हजारों की संख्या में लोगों ने उनके पक्ष में नारेबाजी भी की। हाथ हिलाते हुए गाड़ी में सवार पूर्व राजा का वह दृश्य प्रजातंत्र और लोकतंत्रवादी दलों के लिए आंखों में खटकने वाला बन गया। नेपाली कांग्रेस, नेकपा (एमाले), नेकपा (माओवादी केंद्र), नेकपा (एकीकृत समाजवादी), राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी (रास्वपा), जनता समाजवादी पार्टी (जसपा) जैसे प्रमुख दलों ने पूर्व राजा की इस सक्रियता पर अपनी-अपनी तरह से चेतावनी दी, मानो राजा कुछ ही दिनों में सत्ता में वापस आने वाले हों।
राजावादी आंदोलन का प्रभाव
इस बार का राजावादी आंदोलन पहले के मुकाबले जनभागीदारी के लिहाज से ज्यादा सफल रहा। इससे राजावादी ताकतों का हौसला बढ़ा है, वहीं प्रजातंत्र और लोकतंत्रवादी ताकतें कुछ हद तक चिंतित दिखाई दीं। इस आंदोलन ने देश के बड़े शहरों में समर्थन जुटाने में सफलता हासिल की, जिससे यह सवाल उठा कि क्या राजतंत्र के पक्ष में जनमत बढ़ रहा है। हालांकि, यह आंदोलन भावनात्मक नारों पर आधारित है या वास्तव में राजनीतिक शक्ति में बदल सकता है, यह अभी स्पष्ट नहीं है।
लोकतंत्रवादी दलों की प्रतिक्रिया
लोकतंत्रवादी दलों ने पूर्व राजा की सक्रियता को गंभीरता से लिया है। प्रधानमंत्री और एमाले अध्यक्ष केपी शर्मा ओली ने कई मंचों से पूर्व राजा पर कटाक्ष किए, वहीं एमाले महासचिव शंकर पोखरेल ने उन्हें चुनाव में दो-तिहाई बहुमत लाकर दिखाने की चुनौती दी। माओवादी केंद्र के अध्यक्ष पुष्पकमल दाहाल ने तो यह तक चेतावनी दी कि अगर जरूरत पड़ी तो उन्हें निर्मल निवास से भी हटाया जा सकता है। एकीकृत समाजवादी के अध्यक्ष माधवकुमार नेपाल ने भी उन्हें चुनाव के जरिए सत्ता में आने की चुनौती दी।
संसद में भी इस मुद्दे ने जोर पकड़ा। एमाले सांसद हेमराज राय ने ‘राजा’ शब्द को ही रिकॉर्ड से हटाने की मांग की। माओवादी नेता दीनानाथ शर्मा ने राजावादी गतिविधियों को संविधान के खिलाफ बताते हुए इसे रोकने की अपील की। एकीकृत समाजवादी की उपाध्यक्ष जयंतीदेवी राय ने कहा, “जिस राजतंत्र को हमने परास्त कर कब्रिस्तान में दफनाया था, वह फिर से सिर उठा रहा है। गणतंत्र के लिए लंबा संघर्ष किया गया है, इसे बचाने के लिए हमें सजग रहना होगा।”
जन असंतोष और राजतंत्र की संभावना
राजनीतिक विश्लेषक हरि रोका के अनुसार, जनता का असंतोष सत्ताधारी दलों की नाकामी के खिलाफ है, लेकिन यह असंतोष राजतंत्र को वापस लाने के लिए नहीं, बल्कि एक प्रगतिशील व्यवस्था के लिए है। उनका मानना है कि राजावादी ताकतों के पास समाज को बदलने का कोई ठोस एजेंडा नहीं है। राजावादी नारे भावनाओं और अतीत की यादों पर टिके हैं, लेकिन मौजूदा समस्याओं का समाधान कैसे होगा, इसका कोई स्पष्ट रास्ता उनके पास नहीं है।
नेपाल का संविधान गणतंत्र को मजबूती देता है और राजतंत्र की वापसी के लिए संवैधानिक संशोधन जरूरी है, जो वर्तमान राजनीतिक स्थिति में असंभव-सा लगता है। फिर भी, जन असंतोष का फायदा उठाकर राजावादी ताकतें अपनी मौजूदगी को मजबूत करने की कोशिश कर सकती हैं।
निष्कर्ष
नेपाल में राजा की वापसी की चर्चा अभी भावनात्मक आंदोलन और राजनीतिक रणनीति का हिस्सा मात्र है। पूर्व राजा ज्ञानेंद्र की सक्रियता और राजावादी दलों के प्रदर्शन ने लोकतंत्रवादी ताकतों के सामने चुनौती तो खड़ी की है, लेकिन यह चुनौती गणतंत्र को उलटने की स्थिति में नहीं दिखती। सत्ताधारी दलों को चाहिए कि वे जनता की नाराजगी को समझें और अपनी कार्यशैली में सुधार करें। अगर ऐसा नहीं हुआ तो भविष्य में इस तरह के आंदोलन और ताकतवर हो सकते हैं। फिलहाल, राजतंत्र की वापसी की बात चर्चा और बहस तक ही सीमित है, जिसे संवैधानिक और राजनीतिक वास्तविकता ने रोक रखा है।
पूर्वराजा ज्ञानेन्द्र शाह ने कहा है कि  राजसंस्था के विना प्रजातन्त्र       नहीं टिक सकता है

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